पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
२८१
अपरोक्षानुभूति


सामने एक पत्थर फेको, तो अनन्त काल के बाद एक समय ऐसा आयेगा, जब वह घूमकर गोलाकार मे तुम्हारे निकट फिर आजायेगा। तुमलोगो ने क्या गणित के इस स्वत सिद्ध सिद्धान्त को नही पढ़ा है कि सरल रेखा अनन्त रूप मे बढ़ाने पर वर्तुलाकार धारण करती है? अवश्य ही यह ऐसा ही होगा, परन्तु संभव है, मार्ग पर अग्रसर होते होते कुछ इधर उधर होजाय। इसी कारण मै सर्वदा ही प्राचीन धर्मों का मत लेता हूॅ--क्या ईसा, क्या बुद्ध, क्या वेदान्त, क्या बाइबिल, सभी कहते है--इस अपूर्ण जगत् को छोड़कर ही समय पर हम पूर्णता प्राप्त करेंगे। यह जगत् कुछ भी नहीं है--अधिक से अधिक उस सत्य की एक भयानक विसदृर्श अनुकृति अर्थात् छाया मात्र है। सभी अज्ञानी मनुष्य इन इन्द्रियसुखो का उपभोग करने के लिये दौड़ते है।

इन्द्रियो मे आसक्त होना अत्यन्त सहज है। और भी सहज यह है कि हम अपने प्राचीन अभ्यास के वशीभूत होकर केवल आहार--पान मे मत्त रहे। किन्तु हमारे आधुनिक दार्शनिक इन सभी सुखकर भावो को लेकर उनके ऊपर धर्म का छाप देने की चेष्टा करते है। किन्तु यह मत सत्य नहीं है। इन्द्रियो की मृत्यु अटल है। हमे मृत्यु से अतीत होना होगा। मृत्यु कभी भी सत्य नहीं है। त्याग ही हमे सत्य मे पहुॅचायेगा। नीति का अर्थ ही त्याग है। हमारे प्रकृत जीवन का प्रत्येक अंश ही त्याग है। हम जीवन के उन्ही क्षणो मे वास्तविक साधुता से युक्त होते हैं और प्रकृत जीवन का संभोग करते है, जब हम 'मैं' की चिन्ता से विरत होते है। 'मैं' का जब नाश होता है--हमारे अन्तर के 'प्राचीन मनुष्य' ('Old man') की मृत्यु होती है, उसी समय हम सत्य मे पहुॅचते है। और वेदान्त कहता है--वह