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आत्मा का मुक्त स्वभाव

सभों का वर्णन अधिक नहीं है। वह एक ऐसी भाषा में लिखा गया है जो अत्यन्त संक्षिप्त है और सरलता से याद रखी जा सकती है।

प्रतीत ऐसा होता है कि इस ग्रन्थ के लेखक मानो केवल कई घटनाओं को स्मरण रखने के उपाय लिख रहे हैं। मानो उनकी ऐसी धारणा है कि ये सब बातें सभी जानते हैं। इससे असुविधा यह होती है कि हम उपनिषद में लिखी कथाओं के वास्तविक तात्पर्य को ग्रहण नहीं कर सकते। इसका कारण यह है—यह सब जिन लोगों के समय में लिखा गया था वे लोग उन घटनाओं को जानते थे, किन्तु आज उनकी किम्वदन्ती भी वर्तमान नहीं है,—और जो एकाध है भी, वह भी अतिरंजित होगई है। उनकी ऐसी नयी व्याख्या होगई है कि जब हम पुराणों में उनके विवरण पढ़ते है तो देखते है कि वे उच्छ्वासात्मक काव्य बन गये हैं।

पाश्चात्य देशों में जैसे हम पाश्चात्य जाति की राजनीतिक उन्नति के विषय में एक विशेष भाव देख पाते हैं कि वे किसी प्रकार अनियन्त्रित शासन सहन नहीं कर सकते, वे किसी प्रकार के बन्धन को—जैसे कोई उनके ऊपर शासन करे—सहन नहीं कर सकते, वे जैसे क्रमशः उच्च से उच्चतर प्रजातन्त्र-शासन-प्रणाली की उच्च उच्चतर धारणा तथा वाह्य स्वाधीनता कीं उच्च से उच्चतर धारणा प्राप्त कर रहे हैं ठीक वैसी ही घटना दर्शन में घटती है; किन्तु भेद यही है कि यह आध्यात्मिक जीवन की स्वाधीनता है। 'अनेकदेववाद' से क्रमशः लोग 'एकेश्वरवाद' में पहुँचते है—उपनिषद में फिर मानो इसी एकेश्वरवाद के विरुद्ध युद्धघोषणा हुई है। जगत्