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ज्ञानयोग

के अनेक शासनकर्ता अपने भाग्य को नियंत्रित कर रहे हैं केवल यही धारणा उन्हें असह्य होती हो सो नहीं, बल्कि एकजन उनके अदृष्ट का विधाता होगा—यह धारणा भी उन्हें सह्य न हो सकी। उपनिषद की आलोचना करने पर यही सबसे पहले हमारे सामने आता है। यही धारणा धीरे धीरे बढ़कर अन्त में उसकी चरम परिणति हुई, प्रायः सभी उपनिषदों में अन्त में हम यही परिणति पाते हैं। वह है—जगदीश्वर को सिंहासनच्युत करना। ईश्वर की सगुण धारणा जाकर निर्गुण धारणा उपस्थित होती है। तब ईश्वर जगत् का शासनकर्ता एक व्यक्ति नहीं रह जाता, वह फिर एक अनन्तगुणसंपन्न मनुष्य-धर्मविशिष्ट नहीं रहता, प्रत्युत वह एक भाव मात्र, एक परम तत्व मात्र रूप में ज्ञात होता है। हममें, जगत् के सभी प्राणियों में, यहाँ तक कि समस्त जगत् में वही तत्व ओत-प्रोत भाव से विराजमान है। और यह निश्चित है कि जब ईश्वर की सगुण धारणा निर्गुण धारणा में पहुँच गई तब मनुष्य भी सगुण नहीं रह सकता। अतएव मनुष्य का सगुणत्व भी उड़ गया—मनुष्य भी एक तत्व-मात्र हुआ। सगुण व्यक्ति बाह्य प्रदेश में विराजित है;—प्रकृत तत्व अन्तर्देश में—पश्चात्। इसी तरह दोनों ओर से ही क्रमशः सगुणत्व चला जाता है और निर्गुणत्व का आविर्भाव होता रहता है।

सगुण ईश्वर की क्रमशः निर्गुण धारणा होती है एवं सगुण मनुष्य का भी निर्गुण मनुष्यमात्र आता रहता है—तब इन दो दिशाओं में विभिन्न भाव से प्रवाहित इन दो धाराओं का विभिन्न वर्णन पाया जाता है। ये दो धारायें जिस क्रम से क्रमशः आगे होकर मिल जाती हैं, उसके वर्णन से उपनिषद पूर्ण है एवं प्रत्येक उपनिषद की शेष