यह उत्तर भी एकदम ही प्राप्त नहीं हुआ। उसके भी विभिन्न सोपान है। इस उत्तर के सम्बन्ध में दार्शनिको में मतभेद है। मायावाद भारत के सभी दार्शनिको को मान्य नहीं है। सम्भवतः उनमे से अधिकांश दार्शनिकों ने इस मत को स्वीकार नहीं किया। कुछ तो द्वैतवादी है―उनका मत द्वैतवाद है―निश्चय ही उनका यह मत विशेष उन्नत तथा मार्जित नहीं है। वे इस प्रश्न की जिज्ञासा ही नहीं होने देगे-वे इस प्रश्न के उत्पन्न होते ही इसे दबा देते है। वे कहते है–"तुमको इस प्रश्न के पूछने का अधिकार नहीं है–क्यो इस तरह हुआ, इसकी व्याख्या पूछने का तुम्हे कुछ भी अधिकार नहीं। वह तो ईश्वर की इच्छा है―हमें शान्त भाव से उसे सहन करना होगा। जीवात्मा को कुछ भी स्वाधीनता नहीं है। सब कुछ पहले से ही निर्दिष्ट है―हम क्या करेगे, हमे क्या क्या अधिकार है, हम क्या-क्या सुख-दुःख भोगेगे, सभी कुछ पहले से ही निर्दिष्ट है। हमारा कर्तव्य है–धैर्य से उन सभो का भोग करते जाना। यदि हम ऐसा न करेतो और भी अधिक कष्ट पायेगे। किस तरह से हमने इसको जाना है?–क्योकि वेद ऐसा कहते है।" वे भी वेद के श्लोक उद्धृत करते है, उनके मतसम्मत वेद का अर्थ भी है; वे इन सभों को प्रमाण कह कर सभी को उन्हे मानने के लिए कहते है और तदनुसार चलने का उपदेश देते है।
फिर अनेक ऐसे भी दार्शनिक है जो मायावाद स्वीकार नहीं करते, पर उनका मत मायावाद और द्वैतवाद के बीच का है। वे है परिणामवादी। वे कहते है, जीवात्मा की उन्नति तथा अवनति― विभिन्न परिणाम ही-जगत् की प्रकृत व्याख्या है। वे रूपक भाव से वर्णन करते है कि समस्त आत्मा एक बार सकोच को और फिर विकास को