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आत्मा का मुक्त स्वभाव


प्राप्त होते हैं। समस्त जगत् ही जैसे भगवान का शरीर है। ईश्वर समस्त प्रकृति एव आत्माओ के आत्मा स्वरूप है।

सृष्टि का अर्थ है ईश्वर के स्वरूप का विकास--कुछ समय तक यह विकास जारी रहकर फिर संकुचित होने लगता है। प्रत्येक जीवात्मा के लिए इस सकोच का कारण है--असत् कर्म। मनुष्य के असत् कर्म करने से उसकी आत्मा की शक्ति क्रमशः सकुचित होने लगती है--जितने दिनो तक वह सत्कर्म आरभ नही करता। तब फिर उसका विकास होने लगता है। इन भारतीय विभिन्न मतो मे--एव मेरे विचार में, जान मे या अनजान मे जगत् के सभी मतो मे--एक साधारण भाव दिखाई देता है, मै उसे "मनुष्य का देवत्व" या ईश्वरत्व कहना चाहता हूॅ। जगत् मे ऐसा कोई मत नहीं है, प्रकृत धर्म नाम के उपयुक्त ऐसा कोई धर्म नहीं है जो किसी न किसी तरह पौराणिक या रूपक भाव से ही हो अथवा दर्शनो की परिमार्जित स्पष्ट भाषा मे हो, यह भाव प्रकाशित न करता हो कि जीवात्मा जो कुछ भी हो, अथवा ईश्वर के साथ उसका जो भी सम्बन्ध हो, वह स्वरूपतः शुद्ध स्वभाव एव पूर्ण है। पूर्णानन्द और ऐश्वर्य उसके प्रकृतिगत हैं; दुःख या अनैश्वर्य उसकी प्रकृति नहीं है। यही दुख किसी रूप मे उसमे आगया है। सभी अमार्जित मतो मे इस अशुभ के व्यक्तित्व (Personified Evil) की कल्पना कर शैतान या अर्हीमन को इन अशुभो का सृष्टिकर्ता कहकर अशुभो के अस्तित्व की व्याख्या की जा सकती है।

दूसरे मतो के अनुसार एक ही आधार मे ईश्वर और शैतान दोनों का भाव आरोपित किया जा सकता है, एवं किसी प्रकार की

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