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ज्ञानयोग

करते है, विभिन्न युगो के समस्त आदर्शों की आलोचना करते है, तभी इस बात की सत्यता दिखाई पड़ती है। एक समय था जब कि सुन्दर तेजस्वी घोड़ो की जोड़ी को हॉक कर चलाना ही मेरा आदर्श था, अब वह भावना नहीं होती। बचपन में सोचता था कि अमुक मिठाई प्रस्तुत कर लेने पर मैं पूर्ण सुखी होऊँगा। कभी सोचता था, स्त्री-पुत्र से युक्त तथा प्रचुर धनसम्पन्न होने पर सुखी होऊँगा। अब वे सब लड़कपन की बाते सोच कर हँसी आती है। वेदान्त कहता है कि जिन समस्त आदर्शों का अबलम्बन करते हुए, अपने शारीरिक व्यक्तित्व का परिहार करने में, हममे भय का सञ्चार होता है, समय आने पर उन्ही आदर्शों को देखकर हम हँसेंगे। सभी अपनी अपनी देह की रक्षा करने में व्यग्र है। कोई भी इसका परित्याग करने की इच्छा नहीं करता। इस देह की ययेच्छ समय तक रक्षा कर लेने पर हम अत्यन्त सुखी होगे, हम सब इसी रूप में सोचते है। किन्तु समय आने पर यह बात भी याद करके हम हँसेगे। अतएव, यदि हमारी वर्तमान अवस्था सत् भी नहीं है, असत् भी नहीं है―किन्तु दोनो का संमिश्रण है, असुख भी नहीं है, सुख भी नहीं है―किन्तु दोनो का ही संमिश्रण है, इस प्रकार का विषम विरुद्ध भाव जब उत्पन्न हुआ तब वेदान्त की आवश्यकता क्या है? अन्यान्य दर्शनशास्त्र तथा धर्ममतादिको की भी क्या आवश्यकता है? विशेषतः शुभ कर्म आदि करने का ही क्या प्रयोजन है? यही प्रश्न मन में उठता है, कारण, लोग यही पूछेगे कि यदि शुभ कर्म करने का यत्न करने पर अमंगल रहता ही है एव सुखोत्पादन का यत्न करने पर पर्वत के समान असुख की राशि उपस्थित हो जाती है तब फिर इस यत्न की आवश्यकता ही