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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/२९

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माया'

अतएव वेदान्त-दर्शन आशावादी अथवा निराशावादी नहीं है। वह तो दोनो ही वादों का प्रचार करता है; सारी घटनाये जिस प्रकार होती है वह उसे उसी रूप में ग्रहण करता है; अर्थात् उसके मत में यह संसार मड्गल और अमड्गल, सुख और दुःख का मिश्रण है; एक को बढ़ाओ, दूसरा भी साथ साथ बढ़ेगा। केवल सुख का संसार अथवा केवल दुःख का संसार होही नहीं सकता। इस प्रकार की धारणा ही स्वतःविरोधी है। किन्तु इस प्रकार का मत व्यक्त करके और इस विश्लेषण के द्वारा वेदान्त ने यही एक- महारहस्य का मर्म निकाला है कि मड्गल और अमड्गल ये दो एक- दम विभिन्न सत्तायें नहीं है। इस संसार में ऐसी एक भी वस्तु नहीं है जिसे एकदम मंगल जनक या एकदम अमड्गल जनक कहा जा सके। एक ही घटना जो आज शुभ जनक मालूम पड़ती है, कल अशुभ मालूम पड़ सकती है। एक ही वस्तु जो एक व्यक्ति को दुःखी करती है दूसरे को सुखी बना सकती है। जो अग्नि बच्चे को जला देती है, वही अनशन से जर्जर व्यक्ति के लिये उत्तम खाद्यान्न भी पका सकती है। जिस स्नायुमण्डल के द्वारा दुःख का ज्ञान हमारे अन्दर प्रवेश करता है, सुख का ज्ञान भी उसी के द्वारा हमे मिलता है। अमड्गल का निवारण करने का एक मात्र उपाय मड्गल का निवारण ही है, अन्य कोई उपाय नहीं है―यह निश्चित है। मृत्यु का निवारण करने के लिये जीवन का निवारण करना पड़ेगा। मृत्युहीन जीवन और असुख-हीन सुख ये बातें अपनी ही विरोधी हैं, इनमे कोई सत्य नहीं है। कारण, दोनो ही एक ही वस्तु का विकास हैं। कल जो शुभदायक लगता था आज वह वैसा नहीं लगता। जब हम विगत जीवन की आलोचना