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ज्ञानयोग

हैं निर्माता की इच्छाशक्ति अब उसमें किस रूप में विद्यमान है? संहतिशक्ति (Adhesion) के रूप में।

यह शक्ति न रहने पर इसका परमाणु अलग अलग हो जाता। तो कार्य क्या हुआ? वह कारण के साथ अभेद है, केवल उसने एक दूसरा रूप धारण कर लिया है। जिस समय कारण निर्दिष्ट समय के लिये अथवा निर्दिष्ट स्थान के अन्दर परिणत, घनीभूत और सीमाबद्ध भाव से रहता है उस समय वही कारण कार्य कहलाता है। इस बात को हमें ध्यान में रखना चाहिये। इसी तत्त्व को हमारी जीवनसम्बन्धी जो धारणा है उसमें प्रयुक्त करने पर हम देखते हैं कि जीवाणु से लेकर पूर्णतम मानव पर्यन्त सभी श्रेणियाँ अवश्य ही उसी विश्वव्यापिनी प्राणशक्ति के साथ अभिन्न हैं। किन्तु अमृतत्व के सम्बन्ध में जो प्रश्न था वह अभी मिटा नहीं। हमने क्या देखा? पूर्वोक्त विचार द्वारा हमने इतना ही देखा कि जगत् का कोई पदार्थ ध्वस्त नहीं होता। नूतन कुछ भी नहीं है, होगा भी नहीं। वही एक ही प्रकार की वस्तुयें पहिये के समान बार बार उपस्थित हो रही हैं। जगत् में जितनी गति है वह सभी तरंग के आकार में एक बार उठती है, फिर गिरती है। कोटि कोटि ब्रह्माण्ड सूक्ष्मतर रूप से प्रसूत हो रहे हैं—स्थूल रूप धारण कर रहे हैं। फिर लय होकर सूक्ष्म भाव धारण कर रहे हैं। फिर इसी सूक्ष्मभाव से उनका स्थूल भाव में आना—कुछ दिनों तक उसी अवस्था में रहना और फिर धीरे धीरे उसी कारण में आना। जाता क्या है? केवल रूप, आकृति। वह रूप नष्ट हो जाता है किन्तु फिर आता है। एक हिसाब से समझा जाय तो यह शरीर तक अविनाशी है। एक हिसाब से सभी शरीर