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ज्ञानयोग

के शब्दों में यही प्रकृति है। किन्तु चाहे देवोपासना के द्वारा हो, चाहे मूर्तिपूजा द्वारा, चाहे दार्शनिक विचारों के अवलम्बन से आचरित हो, अथवा देव चरित्र, पिशाच चरित्र, प्रेत चरित्र, साधु चरित्र, ऋषि चरित्र, महात्मा चरित्र अथवा अवतार चरित्र की सहायता से अनुष्ठित हो, सभी धर्मों का, चाहे वे उन्नत धर्म हो चाहे अपरिणत, सभी का उद्देश्य एक ही है। सभी धर्म इस प्रकृति के बन्धन को तोड़ने की थोड़ी बहुत चेष्टा कर रहे है। सक्षेप में सभी धर्म स्वाधीनता की ओर अग्रसर होने की कठोर चेष्टा कर रहे हैं। जाने या अनजाने मनुष्य समझ गये है कि वे बन्दी हैं। वे जो बनने की इच्छा करते है सो नहीं है। जिस समय, जिस मुहूर्त में उन्होने अपने चारों ओर दृष्टिपात किया उसी मुहूर्त में वे समझ गये कि वे बन्दी है। उसी क्षण उन्हे अनुभूति हो गई कि वे बन्दी है। वे यह भी समझे कि इस सीमा से जकडा हुआ जो कोई भी उनके भीतर रह रहा है वह देह से भी अगम्य स्थान को उड़ जाना चाहता है। संसार के उन निम्नतम धर्मों में भी जहाँ दुर्दान्त, नृशंस, आत्मीयों के घरो में लुक छिप कर फिरने वाले, हत्या तथा सुराप्रिय मृत पितर या भूत-प्रेतों की पूजा की जाती है उनमे भी स्वाधीनता का यह भाव हम पाते हैं। जो लोग देवताओं की उपासना करते है वे उन्ही सब देवताओ को अपनी अपेक्षा अधिक स्वाधीन देखते है―द्वार बन्द होने पर भी देवता लोग घर की दीवारों को पार करके आ सकते है; दीवार उनके मार्ग में बाधक नहीं होती, ऐसा भक्त का विश्वास होता है। यही स्वाधीनता का भाव क्रमशः बढ़ते बढ़ते अन्त में सगुण ईश्वर के आदर्श में परिणत होता है। इस आदर्श का केन्द्रीय भाव है―ईश्वर माया से अतीत है। मुझे मानों ऐसा लगता है कि मैं दूर से आता हुआ एक शब्द सुन रहा हूँ और देखता हूँ कि