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पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/३७

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माया

इस रहस्य की कोई मीमांसा नहीं है; वेदान्त की भाषा में कहेगे कि इस मायापाश से मुक्ति नहीं है। अतएव सन्तुष्ट होकर सब उपभोग करो। किन्तु यहाँ भी एक अति असंगत महाभ्रम रह जाता है। और वह यह है। तुम जिस जीवन से चारो ओर से घिरे हुए हो उस जीवन के विषय में तुम्हारा ज्ञान किस प्रकार का है? क्या जीवन शब्द से तुम केवल पाँच इन्द्रियो से आबद्ध जो जीवन है उसे ही लेते हो? इन्द्रियात्म ज्ञान में तो हम पशुओं से अधिक भिन्न नहीं है। किन्तु मुझे विश्वास है कि यहाँ बैठे हुए लोगो में से एक भी ऐसा नहीं है जिसकी आत्मा सम्पूर्ण भाव से केवल इन्द्रियो में आबद्ध हों। अतएव हमारे वर्तमान जीवन का अर्थ इन्द्रि- यात्म ज्ञान की अपेक्षा और भी कुछ है। सुखदुःख का अनुभव कराने वाली हमारी मनोवृत्ति और चिन्ता-शक्ति भी तो हमारे जीवन का प्रधान अंग है। और उस महान आदर्श अर्थात् पूर्णता की ओर अग्र- सर होने की कठोर चेष्टा भी क्या हमारे जीवन का उपादान नहीं है? अज्ञेयवादियो के (Spencer's Agnosticism) मत में वर्तमान जीवन की रक्षा करना हमारा कर्तव्य है। किन्तु जीवन कहने से हमारे सामान्य सुखदुःख के साथ माथ हमारे जीवन के अस्थि मज्जा स्वरूप, अर्थात् सारभूत इस आदर्श के अन्वेषण की, इस पूर्णता की ओर अग्र- सर होने की चेष्टा का भी तात्पर्य है। हमे इसी को प्राप्त करना होगा। अतएव हम अज्ञेयवादी नहीं हो सकते और अज्ञेयवादी के प्रत्यक्ष संसार को लेकर नहीं चल सकते। अज्ञेयवादी तो जीवन के उप- युक्त उपादान को छोड़कर अवशिष्ट अंश को सर्वस्त्र मानते है। वे इस आदर्श को ज्ञान का अगोचर कह कर इसके अन्वेषण का परित्याग कर देते है। यही स्वभाव, यही जगत्, इसे ही माया कहते है। वेदान्त