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ज्ञानयोग

समाप्त हो जाता है, और कोई कहते हैं कि, नहीं, उसका अस्तित्व फिर भी रहता है, इन दोनों बातों में कौन सी सत्य है? (येयं प्रेते विचिकित्सा मनुष्ये, अस्तीत्येके नायमस्तीति चकै)।" जगत् में इस सम्बन्ध में अनेक प्रकार के उत्तर मिलते है। जितने प्रकार के दर्शन या धर्म संसार में है वे सब वास्तव में इसी प्रश्न के विभिन्न रूप के उत्तरो से परिपूर्ण है। अनेक तो ऐसे है जिन्होंने इस प्रश्न को ही― प्राणों की इस महती आकांक्षा को―संसार से अतीत परमार्थ सत्ता के इस अन्वेषण को―व्यर्थ कह कर उड़ा देने की चेष्टा की है। किन्तु जब तक मृत्यु नाम की कोई वस्तु जगत् में है तब तक इस प्रश्न को यो ही उड़ा देने की सारी चेष्टायें विफल रहगी। यह कहना सरल है कि हम जगत् के अतीत की सत्ता का अन्वेषण नहीं करेगे वर्तमान क्षण में ही हम अपनी समस्त आशा, आकांक्षा को सीमित रक्खेगे; हम इसके लिये भरपूर चेष्टा कर सकते हैं और बहिर्जगत् की सब वस्तुये ही हमे इन्द्रियो की सीमा के भीतर बन्द करके रख सकती है, सारा संसार मिलकर वर्तमान की क्षुद्र सीमा के बाहर दृष्टि प्रसारित करने से हमें रोक सकता है; किन्तु जितने दिन जगत् में मृत्यु रहेगी उतने दिन यह प्रश्न बार बार उठेगा― हम जो इन सब वस्तुओं को सत्य का सत्य, सार का भी सार समझ कर इनमे भयानक रूप से आसक्त है, क्या मृत्यु ही इस सब का अन्तिम परिणाम है? जगत् एक क्षण में ही ध्वंस होकर न जाने कहाँ चला जाता है। ऊँचे गगनस्पर्शी पर्वत के नीचे की गम्भीर गुफा मानो मुँह फैलाये जीवो को निगलने को आरही है। इस भीषण पर्वत के पास खड़े होकर, कितना ही कठोर अन्तःकरण क्यो न हो, निश्चय ही सिहर उठेगा और पूछेगा―यह सब क्या सत्य