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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

तुम इसे अपने हाथो में लेकर धीरे धीरे ले जाओ―इसे सर्वांग सुन्दर ज्योतिर्मय देह से सम्पन्न करो―इसे उसी स्थान में ले जाओ जहाँ पितृगण वास करते है, जहाँ दुःख नहीं है, जहाँ मृत्यु नहीं है।" तुम देखोगे कि सभी धर्मो में यही एक भाव विद्यमान है, और इसके साथ ही हम एक और तत्व भी पाते है। आश्चर्य की बात है—सभी धर्म एक स्वर से घोषणा करते है कि मनुष्य पहले निष्पाप और पवित्र था, इस समय उसकी अवनति हो गई है―यही भाव, चाहे वे रूपक की भाषा में, या दर्शन की सुस्पष्ट भाषा में, अथवा कविता की सुन्दर भाषा में लपेट कर प्रकाशित क्यो न करे किन्तु सभी इस एक तत्व की घोषणा करते अवश्य है। सभी शास्त्री और पुराणो में यही एक तत्व पाया जाता है कि मनुष्य जैसा पहले था वैसा अब नहीं है और इस समय वह पहले था वैसा अब नहीं है और इस समय वह पहले से गिरी हुई दशा में है। यहूदियों के शास्त्र बाइबिल के प्राचीन भाग में आदम के पतन की जो कथा है उसमे भी सार यही है। हिन्दू शास्त्रो में इसका बार बार उल्लेख हुआ है। उन्होने सतयुग कहकर जिस युग का वर्णन किया है, जब कि मनुष्य की मृत्यु उसकी इच्छानुसार होती थी, जब मनुष्य जितने दिन चाहे अपने शरीर को धारण कर सकता था, जब मनुष्यों का मन शुद्ध और दृढ़ था, इस सब में भी उसी एक सार्वभौमिक सत्य का इशारा दीखता है। वे कहते है कि उस समय मृत्यु नहीं थी एवं किसी प्रकार का अशुभ और दुख नहीं था, और वर्तमान युग उसी उन्नत अवस्था का अवनत भाव ही तो है। इस वर्णन के साथ साथ हम सभी धर्मों में जलप्लावन अर्थात् जलप्रलय का वर्णन भी पाते है। यह जलप्रलय की कथा ही इस बात को प्रमाणित करती है कि सभी धर्म वर्तमान