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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

और जब यह छिद्र सम्पूर्ण पर्दे को व्याप्त कर लेता है तब मैं तुम सब को स्पष्ट देख पाता हूँ। यहाँ पर तुम्हारे अन्दर कोई परिवर्तन नहीं हुआ; तुम जो थे, वही हो। केवल छिद्र का क्रमविकास होता रहा, और उसके साथ साथ तुम्हारा प्रकाश होता रहा। आत्मा के सम्बन्ध में भी यही बात है। तुम मुक्त स्वभाव और पूर्ण ही हो। इसके लिये चेष्टा करनी नहीं होगी। धर्म, ईश्वर या परकाल, यह सब धारणा कहाँ से आई? मनुष्य 'ईश्वर, ईश्वर' करता क्यो घूमता फिरता है? सभी जातियों, सभी समाजो में मनुष्य क्यों पूर्ण आदर्श का अन्वेषण करता फिरता है चाहे वह आदर्श मनुष्य में हो या ईश्वर में या अन्य किसी वस्तु में? इसका कारण यह है कि वह तुम्हारे भीतर ही वर्तमान है। तुम्हारा अपना ही हृदय धक-धक करता है, तुम सोचते हो, बाहर कोई वस्तु यह शब्द कर रही है। तुम्हारी आत्मा के अन्दर बैठा ईश्वर ही तुम्हे अपना अनुसन्धान करने को―अपनी उपलब्धि करने को प्रेरित कर रहा है।

यहाँ, वहाँ, मन्दिर में, गिरजाघर में, स्वर्ग-मर्त्य में, नाना स्थानो में नाना उपायो से अन्वेषण करने के बाद अन्त में हमने जहाँ से आरम्भ किया था―अर्थात् हमारी आत्मा में ही हम वृत्ताकार घूम कर वापस आते है और देखते हैं कि जिसकी हम समस्त जगत् में खोज करते थे, जिसके लिये हमने मन्दिरों, गिरजाओ में जाकर कातर होकर प्रार्थनाये की, आँसू बहाये, जिसको हम सुदूर आकाश में मेघराशि के पीछे छिपा हुआ अव्यक्त रहस्यमय समझते रहे, वह हमारे निकट से भी निकट है, प्राण का प्राण है, वही हमारा शरीर है, वही हमारा आत्मा है―तुम ही 'मैं' हो, मैं ही 'तुम' हूँ। यही तुम्हारा स्वरूप