भी समाज के अनुसार अपना गठन नहीं करेगा। यदि निःस्वार्थपरता के समान महान सत्य समाज में कार्य रूप में परिणत नहीं किया जा सकता तो ऐसे समाज को छोड़ कर वन में जाकर बसना ही अच्छा है। इसीका नाम साहस है। साहस दो प्रकार का होता है। एक साहस होता है तोप के मुँह में दौड़ पड़ना। यदि यही वास्तविक साहस होता तो सिंह आदि मनुष्य से श्रेष्ठ होते। किन्तु एक और साहस होता है जिसे सात्त्विक साहस कह कर पुकार सकते है। एक बार एक दिग्विजयी सम्राट भारतवर्ष में आया। उसके गुरु ने उसे भारतीय साधुओं से साक्षात्कार करने का आदेश दिया था। बहुत खोज करने के बाद उसने देखा कि एक वृद्ध साधु एक पत्थर के ऊपर बैठे है। सम्राट को उनके साथ कुछ देर बातचीत करने से बड़ा सन्तोष हुआ। अतएव उसने साधु को अपने साथ देश ले जाने की इच्छा प्रकट की। साधु ने इसे स्वीकार नहीं किया और कहा—"मैं इसी वन में बड़े आनन्द में हूँ।" सम्राट बोला―"मैं समस्त पृथिवी का सम्राट हूँ। मैं आपको असीम ऐश्वर्य तथा उच्च पद- मर्यादा दूँगा।" साधु बोले―"ऐश्वर्य, पदमर्यादा, किसी में भी मेरी आकांक्षा नहीं है।" तब सम्राट ने कहा―"आप यदि मेरे साथ नहीं जायेगे तो मैं आपका विनाश कर दूँगा।" इस पर साधु बहुत हँसे और बोले―"महाराज, तुमने जितनी बाते कही, उनमे यही सब से अधिक अज्ञानपूर्ण मालूम होती है। क्या तुम मेरा संहार कर सकते हो? सूर्य मुझे सुखा नहीं सकता, अग्नि मुझे जला नहीं सकती, कोई यंत्र भी मेरा संहार नहीं कर सकता, कारण कि मैं जन्म रहित अविनाशी, नित्यविद्यमान, सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान आत्मा हूँ।" यह एक अन्य प्रकार की साहसिकता है। सन १८५७ ई. में सिपाही-विद्रोह
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