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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

के समय एक मुसलमान सिपाही ने एक संन्यासी महात्मा को तलवार से भोंक दिया। हिन्दू विद्रोहियों ने इस मुसलमान को स्वामीजी के पास लाकर कहा―"आप कहे तो इसकी हत्या कर दे हम?" स्वामीजी ने उनकी ओर मुँह फिरा कर कहा―"भाई, तुम्हीं वह हो, तुम्ही वह हो।" यही कहते-कहते उन्होंने शरीर छोड़ दिया। यह भी एक प्रकार की साहसिकता है। यदि तुम सत्य के आदर्श पर समाज का संगठन नहीं कर सकते, यदि तुम इस प्रकार समाज- संगठन नहीं कर सकते कि जिसमे वह सर्वोच्च सत्य-स्थान पा सके तब फिर तुम अपने बाहुबल पर क्या अभिमान करते हो? तब फिर तुम अपनी सारी पाश्चात्य संस्थाओं का क्या अभिमान करते हो? अपनी महानता तथा श्रेष्ठता का तुम क्या गौरव करते हो, यदि तुम दिन-रात यही कहते रहते हो कि, "इसका कार्य में परिणत करना असम्भव है।" पैसा-कौड़ी को छोड़ कर क्या और कुछ भी करने योग्य नहीं है? यदि यही है तो अपने समाज पर इतना अहंकार क्यो करते हो? वही समाज सर्वश्रेष्ठ है जहाँ सर्वोच्च सत्य को कार्य मे परिणत किया जा सकता है―यही मेरा मत है। और यदि समाज इस समय उच्चतम सत्य को स्थान देने में समर्थ नहीं है तो उसे इस योग्य बनाओ। उसको इस योग्य बनाओ और जितनी शीघ्र तुम इस कार्य में सफल होगे उतना ही अच्छा। हे नरनारिगण! आत्मा के सम्बन्ध में जाग्रत होओ, सत्य में विश्वास करने का साहस करो, सत्य के अभ्यास का साहस करो। संसार में कितने ही साहसी नरनारियो की आवश्यकता है। साहसी होना बड़ा कठिन है। शारीरिक साहस में तो व्याघ्र मनुष्य से श्रेष्ठ है, उसके स्वभाव में ही इस प्रकार की साहसिकता है। बल्कि इस