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ज्ञानयोग

विषय में तो चींटी अन्य जन्तुओ से श्रेष्ठ है। परन्तु इस शारीरिक साहसिकता की बात क्यो करते हो? उसी साहस का अभ्यास करो जो मृत्यु के समक्ष भयभीत नहीं होता, जो मृत्यु का स्वागत कर सकता है, जिस मनुष्य जान सके―कि वह आत्मा है, और सरल जगत् में कोई भी अस्त्र ऐसा नहीं जो उसे संहार कर सके, सारे बज्र मिल कर भी उसका संहार नहीं कर सकते, जगत् की समस्त अग्नि भी उसे दग्ध नहीं कर सकती—जो साहसिकता सत्य को जानने का साहस करती है और जीवन में उस सत्य को दिखा सकती है, ऐसी साहसिकता जिसमे है वही व्यक्ति मुक्त पुरुष है, वही व्यक्ति वास्तव में आत्मस्वरूप हो गया। यह इसी समाज में― प्रत्येक समाज में―अभ्यास करना होगा। 'आत्मा के सम्बन्ध में पहले श्रवण, फिर मनन, उसके बाद निदिध्यासन करना होगा।'

आज कल के समाज में एक बात देखी जाती है―कार्य करने ने अधिक ज़ोर लगाना और सब प्रकार के मनन, ध्यान, धारणा आदि पर बिल्कुल ध्यान न देना। अवश्य ही कार्य अच्छा हो सकता है किन्तु वह भी तो चिन्ता से ही उत्पन्न होता है। मन के भीतर जो छोटी-छोटी शक्तियो का विकास होता रहता है वही जब शरीर द्वारा अनुष्टित होता है तब उसी को कार्य कहते हैं। बिना चिन्ता के कोई कार्य नहीं हो सकता। मस्तिष्क को ऊँची-ऊँची चिन्ताओ, ऊँचे- ऊँचे आदर्शों से भर लो, उन्हीं को दिन-रात मन के सम्मुख स्थापित करके रक्खो; ऐसा होने पर इन्हीं विचारो से बड़े-बड़े कार्य होगे। अपवित्रता के सम्बन्ध में कोई बात मत कहो किन्तु मन से कहो कि मैं शुद्ध पवित्र स्वरूप हूँ। हम क्षुद्र हैं, हमने जन्म लिया, हम मरेंगे,