पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/६८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
६४
ज्ञानयोग

तुम तो भेड़ नहीं हो, तुम सिंह हो।" मेप-सिंह बोल उठा--"क्या कह रहे हो? मै भेड हूॅ, सिंह कैसे हो सकता हूॅ?" उसे किसी प्रकार विश्वास नहीं हुआ कि वह सिंह है, और वह भेड़ों की भॉति चीत्कार करने लगा। तब सिंह उसे उठा कर एक सरोवर के किनारे ले गया और बोला--"यह देखो अपना प्रतिबिम्ब, यह देखो मेरा प्रतिबिम्ब।" और तब वह इन दोनों की तुलना करने लगा। वह एक बार सिंह की ओर, और एक बार अपने प्रतिबिम्ब की ओर ध्यान से देखने लगा। उस समय क्षण भर मे ही उसका यह ज्ञान जाग गया कि 'सचमुच, मै तो सिंह ही हूॅ।' तब वह सिंहगर्जना करने लगा और उसका भेडों का सा चीत्कार न जाने कहाॅ चला गया! तुम सब सिंह स्वरूप हो, तुम आत्मा हो, शुद्धस्वरूप, अनन्त और पूर्ण। जगत् की महाशक्ति तुम्हारे भीतर है। "हे सखा, क्यो रोदन करते हो? जन्म-मृत्यु तुम्हारा भी नहीं है, मेरा भी नहीं है। क्यों रोते हो? तुम्हे रोग, दुःख कुछ भी नहीं है, तुम अनन्त आकाश स्वरूप हो जिसके ऊपर नाना प्रकार के मेघ आते है और कुछ देर खेल कर न जाने कहाॅ अन्तर्हित हो जाते है; किन्तु आकाश जैसा पहले नीला था वैसा ही नीला रह जाता है।" इसी प्रकार के ज्ञान का अभ्यास करना होगा। हम जगत् मे पाप-ताप क्यों देखते है? कारण, हम स्वय ही असत् है। एक मार्ग मे एक ठूॅठ खड़ा था। एक चोर उधर से जा रहा था, उसने समझा यह कोई पहरेवाला है। नायक ने समझा, वह उसकी नायिका है। एक बच्चे ने जब उसे देखा तो भूत समझ कर चीत्कार करने लगा। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों ने इस प्रकार यद्यपि उसे भिन्न-भिन्न रूपों मे देखा, तथापि वह एक ट ठूॅठ के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं था।