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मनुष्य का यथार्थ स्वरूप

हम स्वयं जैसे होते है जगत् को वैसा ही देखते है। एक मेज़ पर एक मोहर की थैली रख दो और सोचो कि यहाॅ पर एक बच्चा बैठा है। एक चोर ने आकर उस थैली को ले लिया। क्या बच्चा समझेगा कि चोरी हो गई ? हमारे भीतर जो है वही हम बाहर भी देखते हैं। बच्चे के मन में चोर नहीं था, अतएव उसने चोर को नहीं देखा। सब प्रकार के ज्ञान के सम्बन्ध मे ऐसा ही होता है। जगत् के पाप, अत्याचार की बात मत कहना। किन्तु तुम्हे जगत् मे अब भी जो पाप देखना पड़ता है उसके लिये रोदन करो। अपने लिये रोओ कि तुम्हें अब भी सर्वत्र पाप देखना पड़ता है। और यदि तुम जगत् का उपकार करना चाहते हो तो जगत् के ऊपर दोषारोपण करना छोड़ दो। उसे और भी दुर्बल मत करो। यह सब पाप, दुःख आदि क्या हैं? यह सव तो दुर्बलता का ही फल है। लोग बचपन से ही शिक्षा पाते है कि वे दुर्बल है, वे पापी है। इस प्रकार की शिक्षा से जगत् दिन पर दिन दुर्बल होता जा रहा है। उनको सिखाओ कि वे सब उसी अमृत की सन्तान हैं--और तो क्या, जिसके भीतर आत्मा का प्रकाश अति क्षीण है उसे भी यही सिखाओ। वाल्य-काल से ही उनके मस्तिष्क में इस प्रकार की चिन्ताएँ प्रविष्ट कर दो जिनसे कि उनकी यथार्थ सहायता हो सके, जो उनको सबल बनाये, जिनसे उनका कुछ यथार्थ हित हो, जिससे दुर्बलता तथा अवसादकारक चिन्ता उनके मस्तिष्क मे प्रवेश ही न करे। सच्चिन्ता के स्रोत मे शरीर को डुबा दो, अपने मन से सर्वदा कहो--'मै ही वह हूॅ, मै ही वह हूॅ।' तुम्हारे मन में दिन रात यह बात संगीत की भाॅति बजती रहे, और मृत्यु के समय भी 'सोऽहम्, सोऽहम्' बोलते हुए मरो। यही सत्य है--जगत् की अनन्त शक्ति