पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/७७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
७३
मनुष्य का यथार्थ स्वरूप


जाकर हमारी विपयानुभूति स्थापित, श्रेणीबद्ध और एकत्रीभूत होती है, इसी को मनुष्य की आत्मा कहते हैं।

तो, हमने देखा कि समष्टि मन या महत्, आकाश और प्राण इन दो भागो मे विभक्त रहता है। और मन के पीछे आत्मा रहता है। समष्टि मन के पीछे जो आत्मा है उसको ईश्वर कहते है। व्यष्टि मे यह मनुष्य की आत्मा मात्र है। जिस प्रकार समष्टि मन आकाश और प्राण के रूप मे परिणत हो गया है उसी प्रकार समष्टि आत्मा भी मन के रूप में परिणत हो गया है। अब प्रश्न उठता है -- क्या इसी प्रकार व्यष्टि मनुष्य के सम्बन्ध मे भी समझना होगा? मनुष्य का मन भी क्या उसके शरीर का स्रष्टा है और क्या उसका आत्मा उसके मन का स्रष्टा है? अर्थात् मनुष्य का शरीर, मन और आत्मा--ये तीन विभिन्न वस्तुये है, अथवा ये एक के भीतर ही तीन है, अथवा ये सब एक पदार्थ की ही तीन विभिन्न अवस्थाऍ मात्र है? हम क्रमशः इसी प्रश्न का उत्तर देने की चेष्टा करेगे। जो भी हो, हमने अब तक यही देखा कि पहले तो यह स्थूल देह है, उसके बाद इन्द्रियाॅ, मन, बुद्धि और बुद्धि के भी बाद आत्मा। तो पहली बात यह हुई कि आत्मा शरीर से पृथक तथा मन से भी पृथक वस्तु है। यहीं से धर्म जगत् मे मतभेद देखा जाता है। द्वैतवादी कहते है कि आत्मा सगुण है अर्थात् भोग, सुख, दुःख–-सभी यथार्थ में आत्मा के धर्म है; अद्वैतवादी कहते है कि वह निर्गुण है।

हम पहले द्वैतवादियों के मत का--आत्मा और उसकी गति के सम्बन्ध मे उनके मत का वर्णन करके उसके बाद जो मत इसका सम्पूर्ण रूप से खण्डन करता है उसका वर्णन करेगे। अन्त मे