पृष्ठ:Vivekananda - Jnana Yoga, Hindi.djvu/८

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ज्ञानयोग

उसके आश्रय में बैठी संसार-मोहिनी माया
देखा करती है अपने मादक स्वप्नों की छाया;
साक्षी स्वरूप माया का आत्मा सदैव है सुविदित,
जीवात्मा और प्रकृति के रूपों में वही प्रकाशित;
'तत् त्वमसि' वही तो तुम हो, समझो हे संन्यासीवर,
उच्च स्वर में यह गाओ, यह तान अलापो सुन्दर―

ॐ तत् सत् ॐ


हे बन्धु, मुक्ति पाने को तुम फिरते कहाँ भटकते?
इस जग या लोकान्तर में तुम मुक्ति नहीं पा सकते;
अन्वेषण व्यर्थ तुम्हारा शास्त्रो, मन्दिर मन्दर में;
जो तुमको खींचा करती वह रज्जु तुम्हारे कर में।
दुख शोक त्याग दो सारा, तुम वीतशोक बस हो लो,
वह रज्जु हाथ से छोड़ो, बोलो संन्यासी, बोलो―

ॐ तत् सत् ॐ


दो अभय-दान सबको तुम―'हों सभी शान्तिमय सुखमय,
है प्राणिमात्र को मुझसे कुछ भी न कहीं कोई भय,
पृथ्वी पाताल गगन में मैं ही आत्मा चिर-सस्थित,
आशा भय स्वर्ग नरक को मैंने तज दिया अशंकित।'
काटो काटो काटो तुम इस विधि माया के बन्धन,
निःशंक प्राणपण से तुम गाओ गाओ यह गायन,―

ॐ तत् सत् ॐ


चिन्ता मत करो तनिक भी नश्वर शरीर की गति पर,
यह देह रहे या जाए, छोड़ो तुम इसे नियति पर;