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यह गली बिकाऊ नहीं / 147
 
बीस
 

आवाज से लगा कि गोपाल ने खब पी हुई है।

"माधवी वहाँ है या घर चली गयी?"―लड़खड़ाते स्वर में गोपाल ने पूछा। उसके सवाल का, बिना जवाब दिये, मुत्तुकुमरन् ने चोंगा माधवी के कानो में लगाया। वहीं प्रश्न वैसे ही स्वर में दुबारा उसके कानो में भी पड़ा। मुत्तुकुमरन् ने उसके चेहरे पर उग आए भावों को पड़ने का प्रयत्न किया कि उसके मन में वह पुराना भय अब भी घर किये हुए है या नहीं? उसने आँखें गड़ाकर देखते हुए पूछा, "क्या जवाब दूं? पहले भी जब हम दोनों समुद्र तट पर घूमने गये थे, तब तुमने कहा था कि इन बातों का उन्हें पता न होने पाए! उस समय तुम्हें गोपाल का डर था। क्या अब भी वह चर तुममें है या..."

"बात-बात पर पुराने जख्मों को कुरेदना छोड़िये। आज मैं किसी से किसी भी बात के लिए नहीं डरती। आप इन्हें जो भी जवाब देना चाहें, दीजिये! मुझसे न पूछिये।"

उसकी आवाज में जो निश्चय-भरा धैर्य था, वह इसे पहचान गया।

फ़ोन पर लगातार गोपाल उसी एक सवाल को रटे जा रहा था, मानो कोई मंत्र-जाप कर रहा हो। मुत्तुकुमरन् ने साफ़ और गंभीर स्वर में कहा, "हाँ! यहीं हैं!"

दूसरे छोर से झट से चोंगा नीचे पटकने की ध्वनि आयी।

"इसीलिए मैंने यह कहा था कि आप जगह दें, तभी मैं यहाँ ठहर सकती हूं।"

"जब दिल में ही जगह दे दी, तो यहाँँ देने में क्या हर्जं है? और वह भी तुमने पा ही लिया।"

सिंगापुर में शॉपिंग करते हुए माधवी ने कुछ इत्र खरीदा था। साज-सिंगार कर वह जब हवाई अड्डे के लिए चली थी, वही इत्र लगाकर चली थी। अँधेरे में किसी एक वनदेवी की भाँति सुरभि बिखेरती वह उसके सामने खड़ी हुई। मुत्तुकुमरन ने टकटकी लगाकर उसे यों देखा, मानो अभी-अभी पहली बार देख रहा हो।

"लीजिए, तकिया!"

"नहीं! मुझे बहुत मुलायम तकिया चाहिए!" मुत्तुकुमरन् ने उसका सुनहरा कंधा छूते हुए ढीठ हँसी हँसा।

"हे भगवान्! मैं यह समझ रही थी कि इस घर में, कम-से-कम इस कमरे में मुझे सुरक्षा मिलेगी! पर यहाँ की हालत तो और भी बुरी है!" उसने झूठा गुस्सा