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यह गली बिकाऊ नहीं / 33
 


गाती हो ! मैं तो सुनकर अवाक रह गया !"

"गाना ही नहीं, भरत-नाट्यम् भी इसे बहुत अच्छा आता है !" गोपाल ने कहा।

यह सुनकर माधवी कुछ इस तरह झेंप गयी, मानो भरत-नाट्यम् की किसी मुद्रा में खड़ी हो।

मुत्तुकुमरन् उसकी हर अदा पर मंत्र-मुग्ध हो गया । जहाँ वह बिना किसी झिझक के बातें करते हुए सुन्दर लगती थी, शरमाती हुई भी सुन्दर लगी। गाते हुए सुन्दर थी, मौन रहते हुए भी सुन्दर थी। हाँ, हर बात पर वह सुन्दरता की पुतली थी!

"आज आपका भाषण बहुत अच्छा रहा !" माधवी भी उसकी तारीफ़ बाँधने में लगी तो मुत्तुकुमरन् ने गर्व में भरकर कहा, "मेरा भाषण हमेशा अच्छा ही होता है।"

"पर मैंने तो आज ही सुना !"

"तुम्हारे इशारे पर तो जब चाहो मैं भाषण झाड़ने को तैयार बैठा हूँ।"

वह हँसी । उसकी चमकीली दंत-पंक्तियों की आभा देखकर वह अपना आपा खो बैठा। स्त्री-सौंदर्य का ऐसा अनुपम चमत्कार उसने देखा नहीं था, केवल काव्यों के वर्णनों में ही पड़ा था।

गोपाल उसके पास आया और बोला, "नाटक अब सौ फीसदी सफल होकर रहेगा!"

"अभी से कैसे कहा जा सकता है ?"

"माये हुए लोग कह रहे हैं ! मैं कहाँ कहता हूँ ?"

"वह कैसे?"

"अगर आदमी पसंद आ गया तो समझो कि उसका सब कुछ पसंद आ गया !

आदमी पसन्द नहीं आया तो उसकी अच्छी-सी अच्छी चीज़ में भी दोष निकालना इस शहर की पुरानी आदत है उस्ताद !" -गोपाल ने कहा।

मुत्तुकुमरन् को यह बात कुछ अजीब-सी लगी। लेकिन उसपर उसने गोपाल से तर्क करना नहीं चाहा। उसी दिन शाम को गोपाल, मुत्तुकुमरन और माधवी को साथ लेकर एक अंग्रेजी फिल्म देखने गया।

थियेटर वाले को पहले ही फोन कर 'न्यूज़ रील' के लगने के बाद वे अपने लिए आरक्षित बालकनी में जा बैठे और अंतिम दृश्य खत्म होने के पहले ही उठ आये । नहीं तो भीड़ गोपाल को घेरकर खड़ी हो जाती और उसे फ़िल्म देखने ही नहीं देती। गोपाल की इस हालत पर मुत्तुकुमरन् को बड़ा ताज्जुब हुआ । सार्व- जनिक स्थानों में भी आजादी से चलने-फिरने न देनेवाली कीर्ति की यह रोशनी मुत्तुकुमरन् को ज़रा भी स्वीकार नहीं थी। मुत्तुकुमरन् उस कोति से घृणा करता