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90/यह गली बिकाऊ नहीं
 

माधवी ने मुत्तुकुमरन् को यों देखा, मानो उसकी सलाह चाह रही हो। मुत्तकुमरन् ने उसे अनदेखा कर और कहीं देखा।

"तुम ही कहो उस्ताद ! माधवी मुझपर नाहक नाराज हो रही है । तुम्हीं समझाकर घर भेजो"-गोपाल ने मुत्तुकुमरन् से विनती की।

मुनुकुमरन ने उसकी बातों पर भी कान नहीं दिया। होंठों पर हंसी लाकर चुप रह गया। लेकिन वह इस तरह खड़ा था कि आज माधवी के चित्त की टोह लेकर ही रहेगा।

एकाएक गोपाल ने एक काम किया। इशारे से ड्राइवर को उसकी सीट से उतारकर बोला, "आओ ! मैं ही तुम्हें 'डाप' कर आऊँ ।"

माधवी 'न' •••'नहीं कह सकी। हिचकते-हिचकते मुत्तकुमरन की ओर देखती हुई कार की अगली 'सीट' का द्वार खोलकर वैठ गयी।

गोपाल ने कार 'स्टार्ट' की तो माधवी ने मुत्तुकुमरन् से विदा लेने की मुद्रा में हाथ हिलाया । पर उसने बदले में हाथ नहीं हिलाया । इतने में कार बंगले का फाटक पार कर सड़क पर हो गयी। वह समझ गयी कि मुत्तुकुमरन उसके इस व्यवहार से असंतुष्ट अवश्य हुआ होगा। घर पहुँचने तक वह गोपाल से कुछ नहीं बोली; गोपाल ने भी उसकी उस समय की मनोदशा का अनुमान करके उससे बात करने की कोशिश नहीं की । लाइडस रोड तक आकर उसे उसके घर छोड़ कर गोपाल लौट गया। घर के अंदर जाते ही माधवी ने धड़कते दिल से मुत्तुकुमरन्. को फोन किया।

"आप बुरा तो नहीं मान गए ! उनकी इस गिड़गिड़ाहट पर मैं इनकार नहीं पायी!"

"हाँ, पहले से भी अच्छा साथी मिल कार तो इनकार कैसे कर पाओगी?" एक-एक शब्द पर जोर देते हुए मुत्तुकुमरन् ने पूछा । आवाज़ में दबा हुआ क्रोध गुंज उठा!

"आपकी बात समझ में नहीं आती। लगता है कि आप गुस्से में बोल रहे हैं।"

"हाँ, ऐसा ही समझ लो !" कडे स्वर में जवाब देकर मुत्तुकुमरन ने चोंगा पटक दिया। माधवी के दिल पर ऐसी करारी चोट पड़ी कि वह किंकर्तव्य विमुढ़ होकर फोन हाथ में लिये खड़ी रही। फिर फोन रखकर बिस्तर पर जा पड़ी और सुबक-सुबक कर रोने लगी। उसे लगा कि उसकी बदकिस्मती से ही मुत्तुकुमरन् भी उसे गलत-सलत समझ रहा है। साथ ही, उसके मन में यह बात भी आयी कि इसमें मेरा ही दोष बड़ा है। उसके पास जाकर रोयी-धोयी। फिर साथ चलने को मना लायी और आधे रास्ते में ही उसे छोड़कर गोपाल की कार में चली आयी ! इस हालत में हर कोई बुरा ही मानेगा।