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पहेलियाँ


(१) व्यक्तिगत रूप से मुझपर तो युद्ध को जो दहशत सवार हुई है वैसी पहले कभी नहीं हुई थी। आज मैं जितना दिलगीर हूँ उतना पहले कभी नहीं हुआ। लेकिन इससे भी बड़े खौफ़ के कारण आज मैं वैसी स्वेच्छापूर्ण भर्ती करनेवाला सार्जेण्ट नहीं बनूँगा जैसा पिछले महायुद्ध के वक्त में बन गया था। इतने पर भी यह अजीब-सा मालूम पड़ेगा कि मेरी सहानुभूति मित्र-राष्ट्रों के ही साथ है। जो भी हो, यह युद्ध पश्चिम में विकसित प्रजातन्त्र और जिसके प्रतीक हेर हिटलर हैं उस निंरंकुशता के बीच होनेवाले युद्ध का रूप धारण कर रहा है। रूस इसमें जो हिस्सा ले रहा है वह यद्यपि दु:खद है, फिर भी हमें उम्मीद करनी चाहिए कि इस अस्वाभाविक मेल से, चाहे अनजाने ही क्यों न हो, एक ऐसा सुखद हल पैदा होगा जो क्या शक्ल अख्तियार करेगा यह पहिले से कोई नहीं कह सकता। अगर मित्र-राष्ट्रों का उत्साह भंग न हो, जिसका जरा भी आसार नहीं है, तो इस युद्ध से सब युद्धों का अन्त हो सकता है-ऐसे भीषण रूप में तो जरूर ही जैसे में कि हम आज देख रहे हैं। मुझे उम्मीद है कि यद्यपि भारत, अपने आन्तरिक भेदभावों से छिन्न-भिन्न हो रहा है, तो भी वह इस इष्ट उद्देश की पूर्ति तथा अबतक की अपेच्चता शुद्ध प्रजातंत्र के प्रसार में प्रभावशाली भाग लेगा। निस्सन्देह, यह इस बात पर है कि संसार के रंगमंच पर जो सच्चा दु:खद नाटक हो रहा है उसमें कार्य-समिति अन्त में जाकर कैसा भाग लेगी? इस नाटक में हम अभिनेता और दर्शक दोनों ही हैं। मेरा मार्ग तो निश्चित