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युद्ध और अहिंसा

 कुछ भी मदद नहीं मिलती।

मेरे पिछले लेख का पत्र-लेखक ने जो हवाला दिया है उसमें और कांग्रेस की माँग के साथ मेरे एकरस होजाने में विरोध दिखायी दे, तो कोई अचरज की बात नहीं है। मगर विरोध जैसी चीज़ असल में है नहीं। उस वक्त क्या, मैं तो अब भी अहिंसा का बलिदान करके आजादी नही लूँ। आलोचक यह ताना दे सकता है कि ब्रिटिश सरकार से जो घोषणा चाही जाती है वह करदे तो आप मित्र-राष्ट्रों की मदद करने लगेंगे और इस तरह हिंसा के भागीदार बन जायेंगे! यह ताना वाजिब होता, अगर बात यह न होती कि कांग्रेस की सहायता तो शुद्ध नैतिक सहायता होगी। कांग्रेस न धन देगी, न जन। उसके नैतिक प्रभाव का उपयोग भी शांति के लिए किया जायगा। मैं इस अखबार में पहले ही कह चुका हूँ कि मेरी अहिंसा बचाव और हमला करनेवाली अलग-अलग क़िस्म की हिंसाओं को मानती है। यह सही है कि अन्त में यह भेद मिट जाता है, मगर आरम्भ में तो उसका मूल्य है ही। मौका पड़ने पर अहिंसावादी व्यक्ति के लिए यह कहना धर्म हो जाता है कि न्याय किस तरफ़ है। इसीलिए मैंने अबीसीनिया, स्पेन, चेकोस्लावाकिया, चीन और पोलैण्ड के निवासियों की सफलता चाही थी, हालाँकि मैंने हर सूरत में यह चाहा था कि वे लोग अहिंसात्मक मुकाबिला करते। मौजूदा मामले मे अगर चेम्बरलेन साहब ने जो ऊँची बातें कहीं हैं उनपर अमल करके ब्रिटेन अपना दावा कांग्रेस के सामने सच्चा साबित करदे और हिन्दुस्तान