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युद्ध और अहिंसा


अब एक मित्र ने अपने पत्र में जो दलीलें पेश की हैं, उनको लेता हूँ:

“दो अंग्रेज मित्र जो आपके प्रति बहुत आदर-भाव रखते हैं, कहते हैं कि आपके हरेक अंग्रेज के प्रति लिखे निवेदन का आज कोई असर नहीं हो सकता। आम जनता से यह आशा नहीं रखी जा सकती, कि वह एकदम अपना रुख बदल ले, और समझ के साथ ऐसा करे। सच तो यह है कि जबतक अहिंसा में हार्दिक विश्वास न हो, बुद्धि से इस चीज़ को समझना अशक्य है। जगत् को आपके ढाँचे में ढालने का वक्त तो युद्ध के बाद आयेगा। वे समझते हैं कि आपका रास्ता सही रास्ता है, मगर कहते हैं कि उसके लिए बेहद तैयारी की, शित्ता की और भारी नेतत्व की ज़रूरत है, और उनके पास आज इनमें में ऐसी एक भी चीज़ नहीं है। हिन्दुस्तान के बारे में वह कहते हैं कि सरकार का ढंग शोचनीय है। जिस तरह कैनाडा आजाद है, उसी तरह हिन्दुस्तान को भी बहुत अरसे पहले आजाद कर देना चाहिए था, और हिन्दुस्तान के लोगों को अपना विधान खुद बनाने देना चाहिए। मगर जो बात उनकी समझ में नहीं आती वह है हिन्दुस्तान की आज तुरन्त पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग। दूसरा कदम यह होगा कि ब्रिटेन को लड़ाई में मदद न देना, जर्मनी के सामने झुकना, और फिर अहिंसक तरीके से उसका सामना करना। इस ग़लतफह्लमी को दूर करने के लिए आपको अपना अर्थ ज्यादा तफसील से समझाना होगा। यह एक सच्चे आदमी के दिल पर हुआ असर है।”