प्रताप पीयूष/'ब्राह्मण' के उद्देश्य ।

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यदि बेद, बाइबिल, कुरानादि की एक प्रति अग्नि तथा जल में डाल दी जाय तो जलने अथवा गलने से कोई बच न जायगी। फिर एक मतवाला किस शेखी पर अपने को अच्छा और दूसरे को बुरा समझता है ? आप को जिस बात में विश्वास हो उसको मानिये, हम आप की आत्मा के इजारदार नहीं हैं जो यह कहें कि यों नहीं यों कर । यदि आप दृढ़ विश्वासी हैं तो हम अपनी बातों से डिगा नहीं सकते । पर डिगाने की नियत कर चुके फिर कहिये बिश्वास डिगाने की मनसा ही कौन धर्म है, जो आपका विश्वास कच्चा है तो हमारी बातों से आप फिसल जायंगे पर यह कदापि संभव नहीं है पूर्णरूप से अपनी मुद्दत से मानी हुई रीति को छोड़ के सक साथ हमारी भांति हो जाइये । इस दशा में हम और भी घोर पाप करते हैं कि अपनी राह पर तो भली भांति ला नहीं सकते पर आप जिस राह में आनन्द से चले जाते थे उससे फिर गये। भला धर्ममार्ग से फेर देने वाला या फेरने की इच्छा रखने वाला नर्क के बिना कहां जायगा?


'ब्राह्मण' के उद्देश्य ।

प्रस्तावना-हम ब्राह्मण हैं । हमारे पूर्व पुरुष अपने गुणों के कारण किसी समय सब प्रतिष्ठा के पात्र थे। उन्हीं के नाते आज तक हमारे बहुत से भाई काला अक्षर भैंस बराबर होने

पर भी जगत गुरु महा कुकर्म करने पर भी देवता और भीख
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मांगने पर भी महाराज कहलाते हैं। हम गुणी हैं वा औगुणी यह तो आप लोग कुछ दिन में आप ही जान लेंगे, क्योंकि हमारी आपकी आज पहिली भेंट है। पर, यह तो जान रखिये कि भारतवासियों के लिये क्या लौकिक, क्या पारलौकिक मार्ग एक मात्र अगुवा हम और हमारे थोड़े से समाचारपत्र भाई ही बन सकते हैं। हम क्यों आये हैं, यह न पूछिये । कानपुर इतना बड़ा नगर सहस्रावधि मनुष्य की बस्ती, पर नागरी पत्र जो हिन्दी रसिकों को एक मात्र मन-बहलाव, देशोन्नति का सर्वोत्तम उपाय शिक्षक और सभ्यता दर्शक अत्युच्च ध्वजा यहां एक भी नहीं। भला यह हमसे कब देखी जाती है ? हम तो बहुत शीघ्र आप लोगों की सेवा में आते और अपना कर्तव्य पूरा करते।

अस्तु अभी अल्प सामर्थी अल्पवयस्क हैं, इस लिये महीने में एक ही बार आस करते हैं। हमारा आना आप के लिये कुछ हानिकारक न होगा, वरंच कभी न कभी कोई न कोई. लाभ ही पहुंचावेगा। क्योंकि हम वह ब्राह्मण नहीं हैं कि केवल दक्षिणा के लिये निरी ठकुरसुहाती बातें करें। अपने काम से काम । कोई बने वा बिगड़े, प्रसन्न रहे वा अप्रसन्न । अन्तःकरण से वास्तविक भलाई चाहते हुए सदा अपने यजमानों (ग्राहकों) का कल्याण करना ही हमारा मुख्य कर्म होगा। हम निरे मत मतान्तर के झगड़े की बातें कभी न करेंगे कि-एक की प्रशंसा

दूसरे की निन्दा हो । वरंच वह उपदेश करेंगे जो हर प्रकार
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के मनुष्यों को मान्य, सब देश काल में साथ हो, जो किसी के भी विरुद्ध न हो । वह चाल-ढाल व्यवहार बतायेंगे जिनसे धन बल मान प्रतिष्ठा में कोई भी वाधा न हो। कभी राज सम्बन्धी, कभी व्यापार सम्बन्धी विषय भी सुनावेंगे; कभी २ गद्य-पद्य-मय नाटक से भी रिझावेंगे ! इधर-उधर समाचार तो सदा देहींगे। सारांश यह कि आगे की तो परमेश्वर जानता है, पर आज हम आपके दर्शन की खुशी के मारे उमंग रोक नहीं सकते। इससे कहे डालते हैं हमको निरा ब्राह्मण ही न समझियेगा। जिस तरह 'सब जहान में कुछ हैं हम भी अपने गुमान में कुछ हैं। इसके सिवा हमारी दक्षिणा भी बहुत ही न्यून है। फिर यदि निर्वाह मात्र भी होता रहेगा तो हम, चाहे जो हो, अपने वचन निवाहे जायंगे। आश्चर्य है जो इतने पर भी कोई कसर मसर करे-

हां एक बात रही जाती है, कि हम में कुछ औगुण भी हैं सो सुनिये । जन्म हमारा फागुन में हुआ है, और होली की पैदाइश प्रसिद्ध है । कभी कोई हँसी कर बैठें, तो क्षमा कीजियेगा। सभ्यता के विरुद्ध न होने पावेगा। वास्तविक वैर हम को किसी से भी नहीं है पर अपने करम-लेख से लाचार हैं। सच कह देने में हम को कुछ संकोच न होगा। इससे जो महाशय हम पर अप्रसन्न होना चाहें पहिले उन्हें अपनी भूल पर अप्रसन्न होना चाहिये । अच्छा लो जो

हमको कहना था सो कह चुके । आशीर्वाद है। दोहाः-
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"सुखी रहौ शुभ मति गहौ जीवहु कोटि बरीष ।
धन बल की बढ़ती रहै ब्राह्मण देत अशीष ॥"

'ब्राह्मण' की अन्तिम विदा।

"दरो दीवार पै हसरत से नज़र करते हैं ।
. खुश रहो अहले वतन हमतो सफर करते हैं ।।"

परमगूढ़ गुण रूप स्वभावादि सम्पन्न प्रेमदेव के पद पद्म को बारम्बार नमस्कार है कि अनेकानेक विघ्नों की उपस्थिति में भी उनकी दया से ब्राह्मण ने सात वर्ष तक संसार की सैर करली, नहीं तो कानपुर तो वह नगर है जहाँ बड़े बड़े लोग बड़ों बड़ों की सहायता के आछत भी कभी कोई हिन्दी का पत्र छः महीने भी नहीं चला सके। और न आसरा है कि कभी कोई एतद्विषयक कृतकार्यत्व लाभ कर सकेगा, क्योंकि यहाँ के हिन्दू समुदाय में अपनी भाषा और अपने भाव का ममत्व विधाता ने रक्खा ही नहीं। फिर हम क्योंकर मानलें कि यहाँ हिन्दी और उसके भक्त जन कभी सहारा पावैगे ? ऐसे स्थान पर जन्म लेके और खुशामदी तथा हिकमती न बनके ब्राह्मण देवता इतने दिन तक बने रहे सो भी एक स्वेच्छाचारी के द्वारा संचालित होके इस प्रेमदेव की आश्चर्य लीला के सिवा क्या कहा जा सकता है।

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