प्रताप पीयूष/किस पर्व में किसकी बनि आती है।

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पुत्र-पु माने नर्क (संस्कृत) और त माने तुझे,(फारसी,जैसे

जवाबत् चिदिहम-तुझे क्या उत्तर दूं।) और रादाने धातु

है,अर्थात् तुझे नर्क देने वाला।


किस पर्व में किसकी बनि आती है।

श्रीरामनौमी में भक्तों की बनि आती है। व्रत केवल दोपहर तक है, सो यों भी सब लोग दुपहर के इधर-उधर खाते हैं। इससे कष्ट कुछ नहीं, औ आनन्द का कहना ही क्या है। भगवान का जन्म दिन है। अनुभवी को अकथनीय आनन्द है। मतलबी को भी थोड़े से शुभ कर्म में बहुत बड़ी आशा है !!! वैसाख में कोई बड़ा पर्व नहीं होता, तौ भी प्रातस्नातकों को मज़ा रहता है। भोर की ठंढी हवा, सो भी बसन्त ऋतु की। रास्ते में यदि नीम का वृक्ष भी मिल गया, तो सुगन्ध से मस्त. हो गये । जेठ में दशहरा को गंगापुत्रों की चाँदी है। गरमी के दिन ठहरे, बड़ा पर्व ठहरा । नहाने को कौन न आवेगा ? और कहां तक न पसीजेगा । आषाढ़ी को चेला मूंड़ने वाले गोसाइयों के दिन फिरते हैं। गरीब से गरीब कुछ तो भेंट धरेईगा। नाग- पंचमी में लड़कियों की बनि आती है। परमेश्वर उनके माता पिता को बनाये रक्खे । भादों में हलषष्टी को भुरजियों के भाग जगते हैं। जिसे देखो, वही बहुरी बहुरी कर रहा है। हमारे

पाठक कहते होंगे-जन्माष्टमी भूल गये। पर हम जब आधी
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रात तक निर्जल रहने की याद दिला देंगे तब यक़ीन है, कि वे भी सब आमोद-प्रमोद भूल जायंगे। क्योंकि 'भूखे भगति न होय गोपाला'। कुआंर का कहना हो क्या है। प्रोहित जी पित्र पक्षों भर सबके पिता-पितामहादि के ऋप्रिज्यंटेटिव (प्रतिनिधि) बने हुए नित्य शष्कुली खाते और गुलछरें उड़ाते हैं। फिर दुर्गा पूजा में बंगाली माशा पेट भर भर माँस खाते और तोंद फुलाते हैं । कातिक में यों तो सबी को सुख मिलता है, पर हमारे.... अन्टीबाजों की पौ बारह रहती हैं 'न हाकिम का खटका न रैयत का ग़म' । सरे बाजार मतलब गांठना, विशेषतः दिवाली में तो देश का देश ही उनकी 'स्वार्थसाधिनी' सभा का म्यंबर हो जाता है। पीछे से 'आक़वत की खबर खुदा जाने ।' आज तो राजा, बाबू, नवाब, सर (अंगरेज़ी प्रतिष्ठावाचक) हज़रत, श्रीमान सब आप ही तो हैं । अगहन और पूस हिन्दुओं के लिये ( हक़ में) मनहूस महीने हैं। इनमें शायद कोई त्योहार होता हो। पर बड़ा दिन बहुधा इन्हीं में होता है। इससे मेवा फरोशों तथा हमारे गौरांग देवताओं का मुंह मीठा होता है। माघ में स्नानादि अखरते हैं । इससे धर्म-कार्य ही कम होते हैं । परबे कहां से हों। हां बसन्त पंचमी के दिन धोबियों की महिमा बढ़ जाती है। घर घर श्री पार्वती देवी की स्थानाधिकारिणी बनी पुजाती फिरती हैं ( हम नहीं जानते यह चाल कब से चली है और कौन उत्तमता सोच के चलाई गई है। ) फागुन के तो क्या

क्या गुन गाइये। होली है !!! ऐसा कौन है जो खुशी के मारे
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'पागल न हो जाता हो? जब जड़ वृक्ष,आम भी बौराते हैं तब आम-खास सभी को बौराने की की क्या बात है ? पर सबसे अधिक भडुओं का महत्व बढ़ जाता है। बड़े बड़े दरबारों में उनकी पूछ पैठार होती है। बड़े बड़े लोगों को उनकी पदवी मिलती है।


किस पर्व में किस पर

आफ़त आती है

नौरात्र, चैत्र और कुवांर दोनों में बकरों पर । हमारे कनौ- जिया भाई एवं बंगाली भाई उन बिचारे अनबोल जीवों का गला काटने ही में धर्म समझते हैं।

बैसाख, जेठ, असाढ़ बरी हैं, तो भी छोटी मछलियों को आसन-पीड़ा है। जिसे देखो वही गंगा जी को मथ रहा है। सावन में, विशेषतः रक्षा-बंधन के दिन कंजूस महाजनों का मरन होता है, इनका कौड़ी कौड़ी पर जी निकलता है, पर ब्राह्मण-देवता मुसकें बांधने की रस्सी की भांति राखी लिए छाती पर चढ़े, घर में घुसे आते हैं।

भादों में स्त्रियों की मरही होती है। हरतालिका पानी पीने में भी पाप चढ़ाती है ! बहुत सी बुढ़ियां तमाखू की थैली गाले पर धर के पड़ रहती हैं। सभी तो पतित्रता हईं नहीं,

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