प्रताप पीयूष/खड़ी बोली का गद्य

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प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र
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तौ जो कुछ है सो हम दिखला ही चुके। इनसे जो कुछ होता है सो यदि समझ में आगया हो तो आज ही से अपने कर्तव्य पर ध्यान दो नहीं तौ इस दांत-किटाकिट को जाने दो।


खड़ी बोली का पद्य ।

इस नाम की बाबू अयोध्या प्रसाद जी खत्री मुजफ्फर- वासी कृत पुरतक के दो भाग हमें हमारे सुहृद्वर श्रीधर पाठक द्वारा प्राप्त हुए हैं। लेखक महाशय की मनोगति तो सराहना-योग्य है, पर साथ ही असम्भव भी है। सिवाय फारसी छंद और दो तीन चाल की लावनियों के और कोई छंद उस में बनाया भी है तो ऐसा है जैसे किसी कोमलाँगी सुन्दरी को कोट बूट पहिनाना। हम आधुनिक कवियों के शिरोमणि भारतेन्दुजी से बढ़के हिन्दी-भाषा का आग्रही दूसरा न होगा। जब उन्हीं से यह न हो सका तो दूसरों का यत्न निष्फल है। बांस के चूसने में यदि रस का स्वाद मिल सके तो ईख बनाने का परमेश्वर को क्या काम था। हां उरदू शब्द अधिक न भरके उरदू के ढंग का सा मजा हम पा सकते हैं, और उरदू कविताभिमानियों से हम साहंकार कह सकते हैं कि हमारे यहां का काव्य भी कुछ कम नहीं है। यद्यपि कविता के लिए उरदू बुरी नहीं है, कवित्व-रसिकों को वह भी वारललना

के हावभाव का मजा दे जाती है, पर कवि होते हैं निरंकुश,
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उनकी बोली भी स्वच्छंद ही रहने से अपना पूरा बल दिखा सकती है। जो लालित्य, जो माधुर्य, जो लावण्य कवियों की उस स्वतंत्र भाषा में है जो ब्रज-भाषा बुंदेलखंडी, बैसवारी और अपने ढंग पर लाई गई संस्कृत व फारसी से बन गई है, जिसे चन्द्र से लेके हरिश्चन्द्र तक प्रायः सब कवियों ने आदर दिया है, उसका सा अमृतमय चित्तचालक रस खड़ी और बैठी बोलियों में ला सके, यह किसी कवि के बाप की मजाल नहीं। छोटे मोटे कवि हम भी हैं, और नागरी का कुछ दावा भी रखते हैं, पर जो बात हो ही नहीं सकती, उसे क्या करें। बहुतेरे यह कहते हैं कि ब्रजभाषा की कविता हर एक समझ नहीं सकता । पर उन्हें यह समझना चाहिए कि आपकी खड़ी बोली ही कौन समझे लेता है।

फिर, यदि सबको समझाना मात्र प्रयोजन है तो सीधी २ गद्य लिखिए । कविता के कर्ता और रसिक होना हर एक का काम नहीं है। उन बिचारों की चलती गाड़ी में पत्थर अटकाना, जो कविता जानते हैं, कभी अच्छा न कहेंगे। ब्रजभाषा भी नागरी-देवी की सगी बहिन है, उसका निज स्वत्व दूसरी बहिन को सौंपना सहृदयता के गले पर छुरी फेरना है ! हमारा गौरव जितना इसमें है कि गद्य की भाषा और रक्खें, पद्य की और, उतना एक को बिलकुल त्याग देने में कदापि नहीं। कोई किसी की इच्छा को रोक नहीं सकता। इस न्याय से जो कविता नहीं

जानते वे अपनी बोली चाहे खड़ी रक्खें चाहे कुदावें, पर कवि [ ११० ]

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लोग अपनी प्यार की हुई बोली पर हुक्म चलाके उसकी स्वतन्त्र मनोहरता का नाश नहीं करने के। जो कविता के समझने की शक्ति नहीं रखते वे सीखने का उद्योग करें। कवियों को क्याः पड़ी है कि किसी के समझाने को अपनी बोली बिगाड़ें।


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सामयिक तथा परिहासपूर्ण

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