प्रताप पीयूष/खुशामद

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प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र
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खुशामद।

यद्यपि यह शब्द फ़ारसी का है, पर हमारी भाषा में इतना घुल-मिल गया है कि इसके ठीक भाव का बोधक, कोई हिन्दी का शब्द ढूंढ़ लावें तो हम उसे बड़ा मर्द गिनें ।'मिथ्या प्रशंसा', 'ठकुर सुहाती' इत्यादि शब्द गढ़े हुए हैं । इनमें वह बात ही नहीं पाई जाती जो इस मज़ेदार मोहनीमंत्र में है। कारण इसका यह जान पड़ता है कि हमारे पुराने लोग सीधे, सच्चे, निष्कपट होते रहे हैं। उन्हें इसका काम ही बहुत कम पड़ा था। फिर ऐसे शब्द के व्यवहार का प्रयोजन क्या ? जब से गुलाब का फूल, उर्दू की शीरी ज़बान इत्यादि का प्रचार हुआ तभी से इस करामाती लटके का भी जौहर खुला। आहाहा !! क्या कहना है। हुजूर खुश हो जायं और बंदे की आमद हो । यारों के गुलछरें उड़ें । फिर इसके बराबर सिद्ध और काहे में है। आप चाहे कैसे कड़े मिजाज़ हों, रुक्खण हों, मक्खीचूस हों जहां हम चार दिन कुक झुक के सलाम करेंगे दौड़-दौड़ आपके पास आवेंगे आपकी हां में हां मिलावेंगे, आपको इंद्र, वरुण, हातिम, करण, सूर्य, चंद्र-लैली, शीरी इत्यादि बनावेंगे आप को जमीन पर से उठा के झंडे पर चढ़ावेंगे, फिर बतलाइए तो आप कब तक राह पर न आवेंगे ? हम चाहे जैसे निर्बुद्धि, निकम्मे, अविद्वान् ,अकुलीन क्यों न हों, पर यदि हम लोक- लज्जा, परलोक-भय,सब को तिलांजली देके आप ही को अपना


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पिता, राजा, गुरू, पति, अन्नदाता कहते रहेंगे तो इसमें कुछ मीन-मेष नहीं है कि आप हमें अपनावेंगे और हमारे दुःख. दरिद्र मिटावेंगे।

अजी साहब, आप तो आप ही हैं, हम दीनानाथ, दीनबन्धु, पतित-पावन कह कह के ईश्वर तक को फुसला लेने का दावा रखते हैं। दूसरे किस खेत की मूली हैं, खुशामद वह चीज़ है कि पत्थर को मोम बनाती है, बैल को दुह के दूध निकालती है। विशेषतः दुनियादार स्वार्थपरायण उदरंभर लोगों के लिये तो इससे बढ़ के कोई रसायन ही नहीं है। जिसे यह चतुराक्षरी मंत्र न आया उसकी चतुरता पर छार है, विद्या पर धिक्कार है और गुणों पर फटकार है। यदि कैसा ही सज्जन, सुशील, सहृदय, निर्दोष, न्यायशील, नम्रस्वभाव, उदार, सद- गुणागार, साक्षात सतयुग का औतार क्यों न हो, पर खुशामद न जानता हो तो इस जमाने में तो उसकी मट्टी ख्वार है। मरने के पीछे चाहे भले ही ध्रुव जी के मुकुट का मणि बनाया जाय । और जो खुशामद से रीझता न हो उसे भी हम मनुष्य तो नहीं कह सकते पत्थर का दुकड़ा, सूखे काठ का कुंदा या परमयोगी महाबैरागी कहेंगे। एक कवि का वाक्य है, कि 'वार पचै माछी पचै पाथर हू पचि जाय, जाहि खुशामद पचि गई ताते कछु न बसाय'।

सचसच है खुशामदी लोगों की बातें और घातें ही ऐसी होती हैं कि बड़े बड़ों को लुभा लेती हैं। सब जानते हैं कि यह
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अपने मतलब की कह रहा है, पर लच्छेदार बातों के मायाजाल में फँस बहुधा सभी जाते हैं। क्यों नहीं ? एक लेखे पूछो तो खुशामदी भी एक प्रकार के ऋषि मुनि होते हैं। अभी हम से कोई जरा सा नखरा करे तो हम उरद के आटे की भांति ऐंठ जांय। हमारे एक उजड्ड साथी का कथन ही है कि 'वरं हला-हल पानं सद्यः प्राण हरं विषं! नहिं दुष्ट धनाढ्यस्य भ्रू भृगं कुटिला ननः।' पर हमारे खुशामदाचार्य महानुभाव सब तरह की झिड़की, निन्दा, कुबातें सहने पर भी हाथ ही जोड़ते रहते हैं। भला ऐसे मन के जीतनेवालों के मनोरथ क्यों न फलें। यद्यपि एक न एक रीति से सभी सब की खुशामद करते हैं, यहां तक कि जिन्होंने सब तज हर भज का सहारा करके बनवास अंगीकार किया है, कंद मूल से पेट भरते हैं, भोज पत्रादि से काया ढकते हैं, उन्हें भी गृहस्थाश्रम की प्रशंसा करनी पड़ती है। फिर साधारण लोग किस मुँह से कह सकते हैं कि हम खुशामद नहीं करते। बरंच यह कहना कि हमें खुशामद करनी नहीं आती यह आलादरजे की खुशामद है। जब आप अपने चेले को, नौकर को, पुत्र को, स्त्री को, खुशा- मदी को नाराज़ देखते हैं और उसे राजी न रखने में धन, मान, सुख, प्रतिष्ठादि की हानि देखते हैं तब कहते हैं क्यों? अभी सिर से भूत उतरा है कि नहीं? यह भी उलटे शब्दों में खुशामद है। सारांश यह कि खुशामद से खाली कोई नहीं है। पर खुशामद करने की तमीज़ हर एक को नहीं आती। इतने बड़े हिन्दुस्तान
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भर में केवल चार छः आदमी खुशामद के तत्ववेत्ता हैं। दूसरों की क्या मजाल है कि खुशामदी की पदवी ग्रहण कर सकें। हम अपने पाठकों को सलाह देते हैं कि यदि अपनी उन्नति चाहते हों तो नित्य थोड़ा थोड़ा खुशामद का अभ्यास करते रहें। देशोन्नति फेशोन्नति के पागलपन में न पड़ें नहीं तो हमारी ही तरह भकुआ बने रहेंगे।


धोखा ।

इन दो अक्षरों में भी न जाने कितनी शक्ति है कि इनकी लपेट से बचना यदि निरा असम्भव न हो तो भी महा कठिन तो अवश्य है। जब कि भगवान रामचंद्र ने मारीच राक्षस को सुवर्ण मृग समझ लिया था तो हमारी आपकी क्या सामर्थ्य है जो धोखा न खाय? बरंच ऐसी ऐसी कथाओं से विदित होता है कि स्वयं ईश्वर भी केवल निराकार निर्विकार ही रहने की दशा में इससे पृथक् रहता है, सो भी एक रीति से नहीं ही रहता, क्योंकि उसके मुख्य कामों में से एक काम सृष्टि का उत्पादन करना है, उसके लिए उसे अपनी माया का आश्रय लेना पड़ता है, और माया, भ्रम, छल इत्यादि धोखे ही के पर्याय हैं, इस रीति से यदि हम कहें कि ईश्वर भी धोखे से अलग नहीं है तो अयुक्त न होगा, क्योंकि ऐसी दशा में यदि वह धोखा खाता नहीं तो धोखे से काम अवश्य लेता है, जिसे दूसरे शब्दों में कह

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