प्रताप पीयूष/परीक्षा

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प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र
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परीक्षा।

यह तीन अक्षर का शब्द ऐसा भयानक है कि त्रैलोक्य की बुरी बला इसी में भरी है। परमेश्वर न करे कि इसका सामना किसी का पड़े ! महात्मा मसीह ने अपने निज शिष्यों को एक प्रार्थना सिखाई थी, जिसको आज भी सब क्रिस्तान पढ़ते हैं, उसमें एक यह भी भाव है कि “हमें परीक्षा में न डाल, बरंच बुराई से बचा" । परमेश्वर करे सब की मुंदी भलमंसी चली जाय, नहीं तो उत्तम से उत्तम सोना भी जब परीक्षार्थ अग्नि पर रक्खा जाता है तो पहिले कांप उठता है, फिर उसके यावत् परमाणु, सब छितर बितर हो जाते हैं। यदि कहीं कुछ खोट हुई तो जल ही जाता है, घट जाता है। जब जड़ पदार्थों की यह दशा है तब चैतन्यों का क्या कहना है ! हमारे पाठकों में कदाचित् ऐसा कोई न होगा जिसने बाल्यावस्था में कहीं पढ़ा न हो । महाशय उन दिनों का स्मरण कीजिए, जब इम्तहान के थोड़े दिन रह जाते थे। क्या सोते जागते, उठते बैठते हर घड़ी एक चिन्ता चित्त पर न चढ़ी रहती थी। पहिले से अधिक परिश्रम करते थे तो भी दिनरात देवी-देवता मनाते बीतता था। देखिए, क्या हो, परमेश्वर कुशल करे। सच है, यह अवसर ही ऐसा है। परीक्षा में ठीक उतरना हर किसी के भाग्य में नहीं है !

जिन्हें हम आज बड़ा पंडित, धनी, बड़ा बली, महा देश-
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हितैषी, महा सत्यसंध, महा निष्कपट मित्र समझे बैठे हैं, यदि उनकी ठीक ठीक परीक्षा करने लगें तो कदाचित् फ्री सैकड़ा दोही चार ऐसे निकलें जो सचमुच जैसे बनते हैं वैसे ही बने रहें ?वेश्याओं के यहां यदि दो चार मास आपकी बैठक रही हो तो देखा होगा, कैसे २ प्रतिष्ठित, कैसे २ सभ्य, कैसे कैसे धर्मध्वजी वहां जाकर क्या क्या लीला करते हैं ! यदि महाजनों से कभी काम पड़ा हो तो आपको निश्चय होगा कि प्रगट में जो धर्म, जो ईमानदारी, जो भलमंसी दीख पड़ती है वह गुप्तरूपेण के जनों में कहां तक है ! जिन्हें यह विश्वास हो कि ईश्वर हमारे कामों की परीक्षा करता है, अथवा संसार में हमें परीक्षार्थ भेजा है उनके अन्तःकरण की गति पर हमें दया आती है। हमने तो निश्चय कर लिया है कि परीक्षा वरीक्षा का क्या काम है, हम जो कुछ हैं उस सर्वज्ञ सर्वांतरयामी से छिपा नहीं है। हम पापात्मा, पापसंभव, भला उसके आगे परीक्षा में कै पल ठहरेंगे ?

संसार में संसारी जीव निस्सन्देह एक दूसरे को परीक्षा न करें तो काम न चले, पर उस काम के चलने में कठिनाई यह है कि मनुष्य की बुद्धि अल्प है, अतः प्रत्येक विषय का पूर्ण निश्चय संभव नहीं। न्याय यदि कोई वस्तु है, और यह बात यदि निस्सन्देह सत्य है कि निर्दोष अकेला ईश्वर है तो हम यह भी कह सकते हैं कि जिसकी परीक्षा १०० बार कर लीजिए

उसकी ओर से भी सन्देह बना रहना कुछ आश्चर्य नहीं है ! [ ८३ ]

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फिर इस बात को कौन कहेगा कि परीक्षा उल्झन का विषय नहीं है । कपटी ही लोग बहुधा मिष्टभाषी और शिष्टाचारी होते हैं, थोड़े ही मूल्य की धातु में अधिक ठनठनाहट होती है, थोड़ी ही योग्यता में अधिक आडम्बर होता है, फिर यदि परीक्षक धोखा खा जाय तो क्या अचंभा है। सब गुणों में पूरा अकेला परमात्मा है, अतः ठीक परीक्षा पर जिसकी कलई न खुल जाय उसी के धन्य भाग ! हमने भी स्वयं अनुभव किया है कि बरसों जिनके साथ बदनाम रहे, बीसियों हानियां सहीं, कई बार अपना सिर फुड़वाने को और प्राण देने या कारागार जाने को उद्यत हो गये, उनके दोष अपने ऊपर ले लिए, और वे भी सदा हमारी बात २ पर अपना चुल्लू भर लोहू सुखाते रहे, सदा कहते रहे, जहां तेरा पसीना गिरेगा वहां हमारा मृत शरीर पहिले गिर लेगा, पर जब समय आया, कि गैरों के सामने हमारी इज्जत न रहे, तो उन्हीं महाशयों ने कटी उङ्गली पर न मूता!

यदि कोई कहे कि तुम कौन बड़े बुद्धिमान हो जो तुम्हारे तजरबे (अनुभव) पर हम निश्चय कर लें, तो हम मान लेंगे; पर यह कहने का हमें ठौर बना है कि मुद्दत तक राजा शिव- प्रसादजी को सहस्रों ने क्या समझा, और अन्त में क्या निकले ! सैयदअहमद साहब को पहिले बहुतेरों ने निश्चय किया कि देशमात्र के हितैषी हैं, पीछे से यह खुला कि केवल निज सह- धर्मियों के शुभचिंतक हैं। यह भी अच्छा था; पर नेशनल कांग्रेस

में यह सिद्ध होगया कि “योसिसोसि तव चरण नमामी" । [ ८४ ]

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"हिन्दी-प्रदीप" से ज्ञात हुआ कि दिहाती भाई भी सैयद बाबा पर मधुर बानी की शीरीनी चढ़ाते हैं। हम भी मानते हैं कि कांग्रेस अभी ३ बरस की बच्ची है, उस पर रक्षा का हाथ रखना ही उन्हें योग्य है, क्योंकि यह हिन्दू-मुसलमान दोनों की हितै- षिणी है, ऐसे २ बहुत से दृष्टान्त अनुमान है कि, सभी को मिला करते होंगे जिनसे सिद्ध है कि परीक्षा का नाम बुरा ! राम न करे कि इसकी प्रचंड आंच से किसी की कलई खुले ! एक आय कवि का अनुभूत वाक्य है-

'परत साबिका साबुनहि देत खीस सी काढ़ि'

एक उर्दू कवि का यह वचन कितना हृदयग्राही है-
'इस शर्त पर जो लीजे तो हाज़िर है दिल अभी,

रंजिश न हो, फरेब न हो, इम्तिहां न हो।'

कहांतक कहें, परीक्षा सब को खलती है ! क्या ही अच्छा होता जो सब से सब बातों में सच्चे होते, और जगत् में परीक्षा का काम न पड़ा करता ! वह बड़भागी धन्य है जो अपना भरमाला लिये हुए जीवन-यात्रा को समाप्त कर दे ।


दांत

इस दो अक्षर के शब्द तथा इन थोड़ी सी छोटी २ हड्डियोंमें भी उस चतुर कारीगर ने यह कौशल दिखलाया है कि किस के मुंह में दांत हैं जो पूरा २ वर्णन कर सके। मुख की सारी

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