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प्रताप पीयूष/मुक्ति के भागी।

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प्रताप पीयूष  (१९३३) 
द्वारा प्रतापनारायण मिश्र

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दूसरे के मानों अंग प्रत्यंग हैं। एक के बिना दूसरा निर्बल है,और उन्हीं के एका का फल है कि कलिदेव राज करते हैं । यह परिचयस्तोत्र पाठकों की श्रद्धा बढ़ाने मात्र को दिया है।


मुक्ति के भागी।

एक तो छः घर के कनवजिये, क्योंकि वैराग्य इनमें परले सिरे का होता है । सब जानते हैं कि स्त्री का नाम अर्धाङ्गी है । बेपढ़े लिखे लोग तक आपस में पूछते हैं “कहौ घर का क्या हाल है ?" इससे सिद्ध हुआ कि घर स्त्री ही का नामांतर है। उस स्त्री को यह महा तुच्छ समझते हैं। यहां तक कि 'हे: मेहरिया तौ आय पायें कै पनहीं', बरंच पनहीं के खो जाने से तो रुपया-वेली का सोच भी होता है, परन्तु स्त्री का बहुतेरे. मरना मनाते हैं। अब कहिये, जिसने अपने आधे शरीर एवं ग्रह-देवता को भी तृणवत् समझा उस परम त्यागी वैरागी की मुक्ति क्यों न होगी?

दूसरे अढ़तिए, क्योंकि प्रेतत्व जीते ही जी भुगत लेते हैं। न मानो कानपुर आके देख लो, बाजे बाजों को आधी रात तक दतून करने की नौबत नहीं पहुंचती। दिन रात बैपारियों की हाव २ में यह भी नहीं जानते कि सूरज कहां निकलता है। भला जिसे जगत्-गति व्यापती ही नहीं, जिसे क्षुधा-तृषा

लगती ही नहीं है, उस जितेंद्री महापुरुष को मुक्ति न होगी,

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तो किसे होगी?

तीसरे उपदंश रोगवाले, क्योंकि बड़े २ वैद्यों ने सिद्ध किया है कि इस रोग में हड्डियों तक में छिद्र हो जाते हैं तो कपाल में भी हड्डी ही है, शरीर को भीतर ही भीतर फूंक देती है। अब समझने की बात है कि जिसके प्राण ब्रह्माण्ड (शिर) फोड़ के निकलें तथा पंचाग्नि की परदादी प्रति लोमाग्नि का सेवन करे वह परम योगी शरभंग ऋषि के समान तपस्वी क्यों न मोक्ष पावेगा ?

हमारे पाठक कहते होंगे, कहां की खुराफात बकते हैं। खैर, तो अब सांची २ सुना चलें।

स्वर्ग, नर्क, मुक्ति कहीं कुछ चीज़ नहीं है। बुद्धिमानों ने बुराई से बचने के लिए एक हौवा बना दिया है, उसीका नाम नर्क है, और स्वर्ग वा मुक्ति भलाई की तरफ झुकाने के लिए एक तरह की चाट है। अथवा जो यह मान लो कि जिसमें महादुःख की सामग्री हो वह नर्क और परम सुख स्वर्ग है तो सुनिए, नर्की जीव हम गिना चुके, उन्हीं के भाई बंद और भी हैं। रहे स्वर्ग के सच्चे पात्र, वह यह हैं-किसी हिन्दी-समा- चारपत्र के सहायक, बशर्तेकि वार्षिक मूल्य में धुकुर पुकुर न करते हों, और पढ़ भी लेते हों, उनको जीते ही जी स्वर्ग न हो तो हम ज़िम्मेदार। दूसरे देशोपकारी कामों में एक पैसा तथा एक मिनट भी लगावैंगे वे निस्सन्देह बैकुंठ पावेंगे, इसमें

पाव रत्ती का फरक न पड़ेगा हमसे तथा बड़े २ विद्वानों से

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तांबे के पत्र पर लिखा लीजिए। तीसरे गोरक्षा के लिए तन, मन, धन से उद्योग करनेवाले । अन्न, धन, दूध, पूत सब कुछ न पावें, तथा शरीर-मोक्ष का मज़ा. न उठावें तो वेद, शास्त्र, पुराण और हम सबको झूठा समझ लेना । चौथे परमेश्वर के प्रेमानन्द में मस्त रहने वाले तथा भारत-भूमि को सच्चे चित्त से प्यार करनेवाले एक ऐसा अलौकिक अपरिमित एवं अकथ आनन्द लूटेंगे कि उसके आगे भुक्ति और मुक्ति तृण से भी तुच्छ हैं। हमारे वचन को 'ब्रह्मवाक्य सदा सत्यम्' न समझेगा वह सब नास्तिकों का गुरू है।


होली है

तुम्हारा सिर है ! यहां दरिद्र की आग के मारे होला (अथवा होरा भुना हुवा हरा चना) हो रहे हैं इन्हें होली है, हे !

अरे कैसे मनहूस हो ? बरस २ का तिवहार है, उसमें भी वही रोनी सूरत ! एक बार तो प्रसन्न हो कर बोलो, होरी है !

अरे भाई हम पुराने समय के बंगाली भी तो नहीं हैं कि तुम ऐसे मित्रों की जबरदस्ती से होरी (हरि) बोलके शांत हो जाते। हम तो बीसवीं शताब्दी के अभागे हिन्दुस्तानी हैं, जिन्हें कृषि, वाणिज्य शिल्प सेवादि किसी में भी कुछ तंत नहीं है। खेतों की उपज अतिवृष्टि, अनावृष्टि, जंगलों का कट जाना रेलों और नहरों की वृद्धि इत्यादि ने मट्टी करदी है। जो कुछ

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