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प्रसाद वाङ्मय द्वितीय खण्ड/ध्रुवस्वामिनी- तृतीय अंक

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प्रसाद वाङ्मय
जयशंकर प्रसाद, संपादक रत्नशंकर प्रसाद

वाराणसी: प्रसाद मंदिर, पृष्ठ ७३१ से – ७४१ तक

 

तृतीय अंक

[शक-दुर्ग के भीतर का एक प्रकोष्ठ / तीन मंचो में दो खाली और एक पर ध्रुवस्वामिनी पादपीठ के ऊपर बायें पैर दाहिना पैर रख कर अधरों से उँगली लगाये चिन्ता में निमग्न बैठी है /बाहर कुछ कोलाहल होता है]

सैनिक––(प्रवेश करके) महादेवी की जय हो!

ध्रुवस्वामिनी––(चौंककर) क्या?

सैनिक––विजय का समाचार सुनकर राजाधिराज भी दुर्ग में आ गये हैं। अभी तो वे सैनिकों से बातें कर रहे हैं। उन्होंने पूछा है, महादेवी कहाँ है। आपकी जैसी आज्ञा हो, क्योंकि कुमार ने कहा है....।

ध्रुवस्वामिनी––क्या कहा है? यही न कि मुझसे पूछ कर राजा यहाँ आने पावे? ठीक है, अभी मैं बहुत थकी हूँ। (सैनिक जाने लगता है उसे रोक कर) और सुनो तो! तुमने यह नहीं बताया कि कुमार के घाव अब कैसे हैं?

सैनिक––घाव चिन्ताजनक नहीं है, उन पर पट्टियाँ बँध चुकी हैं। कुमार प्रधान-मण्डप में विश्राम कर रहे हैं।

ध्रुवस्वामिनी––अच्छा जाओ। (सैनिक का प्रस्थान) मन्दाकिनी––(सहसा प्रवेश करके) भाभी! बधाई है। (जैसे भूल कर गयी हो) नहीं, नहीं! महादेवी, क्षमा कीजिए।

ध्रुवस्वामिनी––मन्दा! भूल से ही तुमने आज एक प्यारी बात कह दी। उसे क्या लोटा लेना चाहती हो? आह! यदि वह सत्य होती?

[पुरोहित का प्रवेश]

मन्दाकिनी––क्या इसमें भी सन्देह है?

ध्रुवस्वामिनी––मुझे तो सन्देह का इन्द्रजाल ही दिखलाई पड़ रहा है। मैं न तो महादेवी हूँ और न तुम्हारी भाभी.... ‌ (पुरोहित को देखकर चुप रह जाती है)

पुरोहित––(आश्चर्य से इधर-उधर देखता हुआ) तब मैं क्या करूँ?

मन्दाकिनी––क्यों, आपको कुछ कहना है क्या?

पुरोहित––ऐसे उपद्रवों के बाद शान्तिकर्म होना आवश्यक है। इसीलिए मैं स्वस्त्ययन करने आया था; किन्तु आप तो कहती हैं कि मैं महादेवी ही नहीं हूँ।

ध्रुवस्वामिनी––(तीखे स्वर में) पुरोहित जी! मैं राजनीति नहीं जानती; किन्तु इतना समझती हूँ कि जो रानी शत्रु के लिए उपहार में भेज दी जाती है, वह महादेवी की उच्च पदवी से पहले ही वंचित हो गयी होगी।

मन्दाकिनी––किन्तु आप तो भाभी होना भी अस्वीकार करती हैं।

ध्रुवस्वामिनी––भाभी कहने का तुम्हें रोग हो तो कह लो। क्योंकि इन्हीं पुरोहित जी ने उस दिन कुछ मन्त्रों को पढ़ा था। उस दिन के बाद मुझे कभी राजा से सरल सम्भाषण करने का अवसर ही न मिला। हाँ, न जाने मेरे किस अपराध पर सन्दिग्ध-चित्त होकर उन्होंने जब मुझे निर्वासित किया, तभी मैंने उनसे अपने स्त्री होने के अधिकार की रक्षा की भीख माँगी थी। वह भी न मिली और मैं बलि-पशु की तरह, अकरुण आज्ञा की डोरी में बँधी हुई शक-दुर्ग में भेज दी गयी। तब भी तुम मुझे भाभी कहना चाहती हो?

मन्दाकिनी––(सिर झुका कर) यह गर्हित और ग्लानि-जनक प्रसंग है।

पुरोहित––यह मैं क्या सुन रहा हूँ? मुझे तो यह जान कर प्रसन्नता हुई थी कि वीर रमणी की तरह, अपने साहस बल पर महादेवी ने इस दुर्ग पर अधिकार किया है।

ध्रुवस्वामिनी––आप झूठ बोलते हैं।

पुरोहित––(आश्चर्य से) मैं और झूठ!

ध्रुवस्वामिनी––हाँ, आप और झूठ, नही स्वयं आप ही मिथ्या हैं।

पुरोहित––(हँस कर) क्या आप वेदान्त की बात कहती हैं? तब तो संसार मिथ्या है ही।

ध्रुवस्वामिनी––(क्रोध से) संसार मिथ्या है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती, परन्तु आप, आपका कर्मकाण्ड और आपके शास्त्र क्या सत्य हैं, जो सदैव रक्षणीया स्त्री की यह दुर्दशा हो रही है?

पुरोहित––(मन्दाकिनी से) बेटी! तुम्हीं बताओ, यह मेरा भ्रम है या महादेवी का रोष?

ध्रुवस्वामिनी––रोष है, हाँ मैं रोष से जली जा रही हूँ। इतना बड़ा उपहास––धर्म के नाम पर स्त्री की आज्ञाकारिता की यह पैशाचिक परीक्षा, मुझसे बलपूर्वक ली गयी है। पुरोहित! तुमने जो मेरा राक्षस-विवाह कराया है, उसका उत्सव भी कितना सुन्दर है! यह जन-संहार देखो, अभी उस प्रकोष्ठ में रक्त से सनी हुई शकराज की लोथ पड़ी होगी। कितने ही सैनिक दम तोड़ते होंगे, और इस रक्तधारा में तिरती हुई मैं राक्षसी-सी साँस ले रही हूँ। तुम्हारा स्वस्त्ययन मुझे शान्ति देगा?

मन्दाकिनी––आर्य! आप बोलते क्यों नहीं? आप धर्म के नियामक हैं। जिन स्त्रियों को धर्म-बन्धन में बाँधकर, उनकी सम्मति के बिना आप उनका सब अधिकार छीन लेते हैं, तब क्या धर्म के पास कोई प्रतिकार––कोई संरक्षण नहीं रख छोड़ते, जिससे वे स्त्रियाँ अपनी आपत्ति में अवलम्ब माँग सकें? क्या भविष्य के सहयोग की कोरी कल्पना से उन्हें आप सन्तुष्ट रहने की आज्ञा देकर विश्राम ले लेते हैं?

पुरोहित––नहीं, स्त्री और पुरुष का परस्पर विश्वासपूर्वक अधिकार-रक्षा और सहयोग ही तो विवाह कहा जाता है। यदि ऐसा न हो तो धर्म और विवाह खेल है।

ध्रुवस्वामिनी––खेल हो या न हो, किन्तु एक क्लीव पति के द्वारा परित्यक्ता नारी का मृत्यु-मुख में जाना ही मंगल है। उसे स्वस्त्ययन और शान्ति की आवश्यकता नहीं।

पुरोहित––(आश्चर्य से)यह मैं क्या सुन रहा हूँ? विश्वास नहीं होता। यदि ये बातें सत्य हैं, तब तो मुझे फिर से एक बार धर्मशास्त्र को देखना पड़ेगा। (प्रस्थान)

[मिहिरदेव के साथ कोमा का प्रवेश]

ध्रुवस्वामिनी––तुम लोग कौन हो?

कोमा––मैं पराजित शक-जाति की एक बालिका हूँ।

ध्रुवस्वामिनी––और?

कोमा––और मैंने प्रेम किया था।

ध्रुवस्वामिनी––इस घोर अपराध का तुम्हें क्या दण्ड मिला?

कोमा––वही, जो स्त्रियों को प्रायः मिला करता है––निराशा! निष्पीड़न! और उपहास! रानी, मैं तुमसे भीख माँगने आयी हूँ। ध्रुवस्वामिनी––शत्रुओं के लिए मेरे पास कुछ नही है। अधिक हठ करने पर दण्ड मिलना भी असम्भव नहीं।

मिहिरदेव––(दीर्घ निःश्वास लेकर) पागल लड़की, हो चुका न? अब भी तू न चलेगी?

[कोमा सिर झुका लेती है]

मन्दाकिनी––तुम चाहती क्या हो?

कोमा––रानी, तुम भी स्त्री हो। क्या स्त्री की व्यथा न समझोगी? आज तुम्हारी विजय का अन्धकार चाहे तुम्हारे शाश्वत स्त्रीत्व को ढँक ले, किन्तु सब के जीवन में एक बार प्रेम की दीपावली जलती है। जली होगी अवश्य। तुम्हारे भी जीवन में वह आलोक का महोत्सव आया होगा, जिसमें हृदय हृदय को पहचानने का प्रयत्न करता है, उदार बनता है और सर्वस्व दान करने का उत्साह रखता है। मुझे शकराज का शव चाहिए।

ध्रुवस्वामिनी––(सोच कर) जलो, प्रेम के नाम पर जलना चाहती हो तो तुम उस शव को ले जाकर जलो। जीवित रहने पर मालूम होता है कि तुम्हें अधिक शीतलता मिल चुकी है। अवश्य तुम्हारा जीवन धन्य है। (सैनिक से) इसे ले जाने दो।

[कोमा का प्रस्थान]

मन्दाकिनी––स्त्रियों के इस बलिदान का भी कोई मूल्य नही। कितनी असहाय दशा है। अपने निर्बल और अवलम्ब खोजने वाले हाथो से यह पुरुषो के चरणो को पकड़ती है और वह सदैव ही इनको तिरस्कार, घृणा और दुर्दशा की भिक्षा से उपकृत करता है। तब भी यह बावली मानती है?

ध्रुवस्वामिनी––भूल है––भ्रम है। (ठहर कर) किन्तु उसका कारण भी है। पराधीनता की एक परम्परा-सी उनकी नस-नस में––उनकी चेतना में न जाने किस युग से घुस गयी है। उन्हे समझ कर भी भूल करनी पडती है। क्या वह मेरी भूल न थी––जब मुझे निर्वासित किया गया, तब मैं अपनी आत्म-मर्यादा के लिए कितनी तड़प रही थी और राजाधिराज रामगुप्त के चरणों में रक्षा के लिए गिरी; पर कोई उपाय चला? नहीं। पुरुषो की प्रभुता का जाल मुझे अपने निर्दिष्ट पथ पर ले ही आया। मन्दा! दुर्ग की विजय मेरी सफलता है या मेरा दुर्भाग्य, इसे मैं नही समझ सकी हूँ। राजा से मैं सामना करना नही चाहती। पृथ्वी-तल से जैसे एक साकार घृणा निकल कर मुझे अपने पीछे लौट चलने का संकेत कर रही है। क्यों, क्या यह मेरे मन का कलुष है? क्या मैं मानसिक पाप कर रही हूँ?

[उन्मत्त भाव से प्रस्थान]

मन्दाकिनी––नारी-हृदय, जिसके मध्य-बिन्दु से हट कर, शास्त्र का एक मंत्र, कील की तरह गड़ गया है और उसे अपने सरल प्रवर्त्तन-चक्र में धूमने से रोक रहा है। निश्चय ही वह कुमार चन्द्रगुप्त की अनुरागिनी है।

चन्द्रगुप्त––(सहसा प्रवेश करके) कौन?––मन्दा!

मन्दाकिनी––अरे कुमार! अभी थोड़ा विश्राम करते।

चन्द्रगुप्त––(बैठते हुए) विश्राम! मुझे कहाँ विश्राम? मैं अभी यहाँ से प्रस्थान करने वाला हूँ। मेरा कर्तव्य पूर्ण हो चुका। यहाँ मेरा ठहरना अच्छा नही।

मन्दाकिनी––किन्तु, भाभी की जो बुरी दवा है।

चन्द्रगुप्त––क्यो उन्हे क्या हुआ? (मन्दाकिनी चुप रहती है) बोलो, मुझे अवकाश नही! राजाधिराज का सामना होते ही क्या हो जायगा––मैं नही कह सकता। क्योकि अब यह राजनीतिक छल-प्रपंच मैं नही सह सकता।

मन्दाकिनी––किन्तु, उन्हे इस असहाय अवस्था में छोडकर आपका जाना क्या उचित होगा? और...(चुप रह जाती है)

चन्द्रगुप्त––और क्या? वही क्यो नहीं कहती हो?

मन्दाकिनी––तो क्या उसे भी कहना होगा? महादेवी बनने के पहले ध्रुवस्वामिनी का जो मनोभाव था, वह क्या आपसे छिपा है?

चन्द्रगुप्त––किन्तु मन्दाकिनी! उसकी चर्चा करने से क्या लाभ?

मन्दाकिनी––हृदय में नैतिक साहस––वास्तविक प्रेरणा और पौरुष की पुकार एकत्र करके सोचिए तो कुमार, कि अब आपको क्या करना चाहिए? (चन्द्रगुप्त चिन्तित भाव से टहलने लगता है / नेपथ्य में कुछ लोगों के आने-जाने का शब्द और कोलाहल) देखूँ तो यह क्या है? और महादेवी कहाँ गयी? (प्रस्थान)

चन्द्रगुप्त––विधान की स्याही का एक बिन्दु गिरकर भाग्य-लिपि पर कालिमा चढ़ा देता है। मैं आज यह स्वीकार करने में भी संकुचित हो रहा हूँ कि ध्रुवदेवी मेरी है। (ठहरकर) हाँ, वह मेरी है, उमे मैने आरम्भ से ही अपनी सम्पूर्ण भावना से प्यार किया है। मेरे हृदय के गहन अन्तस्तल से निकली हुई यह मूक स्वीकृति आज बोल रही है। में पुरुष हूँ नही, मैं अपनी आँखो से अपना वैभव और अधिकार दूसरो को अन्याय से छीनते देख रहा हूँ और मेरी वाग्दत्ता पत्नी मेरे ही अनुत्साह से आज मेरी नही रही। नही, यह शील का कपट, मोह और प्रवञ्चना है। मैं जो हूँ, वही तो नही स्पष्ट रूप से प्रक्ट कर सका। यह कैसी विडंबना है! विनय के आवरण मे मेरी कायरता अपने को कब तक छिपा सकेंगे?

[एक ओर से मन्दाकिनी का प्रवेश]

मन्दाकिनी––शकराज का शव लेकर जाते हुए आचार्य और उसकी कन्या का राजाधिराज के साथी सैनिको ने बध कर डाला! ध्रुवस्वामिनी––(दूसरी ओर से प्रवेश करके) ऐं!

[सामन्त-कुमारों का प्रवेश]

सामन्त-कुमार––(सब एक साथ ही) स्वामिनी! आपकी आज्ञा के विरुद्ध राजाधिराज ने निरीह शकों का संहार करवा दिया है।

ध्रुवस्वामिनी––फिर आप लोग इतने चंचल क्यों है? राजा को आज्ञा देनी चाहिए और प्रजा को नत-मस्तक होकर उसे मानना होगा।

सामन्त-कुमार––किन्तु अब वह असह्य है। राजसत्ता के अस्तित्व की घोषणा के लिए इतना भयंकर प्रदर्शन। मैं तो कहूँगा, इस दुर्ग में, आपकी आज्ञा के बिना राजा का आना अन्याय है।

ध्रुवस्वामिनी––मेरे वीर सहायकों! मैं तो स्वयं एक परित्यक्ता और हतभागिनी स्त्री हूँ। मुझे तो अपनी स्थिति की कल्पना से भी क्षोभ हो रहा है। मैं क्या कहूँ?

सामन्त-कुमार––मैं सच कहता हूँ, रामगुप्त––जैसे राजपद को कलुषित करने वाले के लिए मेरे हृदय में तनिक भी श्रद्धा नही। विजय का उत्साह दिखाने यहाँ वे किस मुँह से आएँ, जो हिंसक, पाखण्डी, क्षीव और क्लीव हैं।

रामगुप्त––(सहसा शिखरस्वामी के साथ प्रवेश करके) क्या कहा? फिर से तो कहना!

सामन्त-कुमार––गुप्त-कुल के गौरव को कलंक-कालिमा के सागर में निमज्जित करनेवाले!

शिखरस्वामी––(उसे बीच ही में रोककर) चुप रहो! क्या तुम लोग किसी के बहकाने से आवेश में आ गये हो? (चन्द्रगुप्त की ओर देखकर)कुमार! यह क्या हो रहा है?

[चन्द्रगुप्त उत्तर देने की चेष्टा करके चुप रह जाता है]

रामगुप्त––दुर्विनीत, पाखण्डी, पामरो! तुम्हें इस धृष्टता का क्रूर दण्ड भोगना पड़ेगा। (नेपथ्य की ओर देखकर) इन विद्रोहियों को बन्दी करो।

[रामगुप्त के सैनिक आकर सामन्त-कुमारों को बन्दी बनाते हैं / रामगुप्त का संकेत पाकर सैनिक लोग चन्द्रगुप्त की ओर भी बढ़ते हैं और चन्द्रगुप्त शृंखला में बंध जाता है]

ध्रुवस्वामिनी––कुमार! मैं कहती हूँ कि तुम प्रतिवाद करो। किस अपराध के लिए यह दण्ड ग्रहण कर रहे हो?

[चन्द्रगुप्त एक दीर्घ निःश्वास लेकर चुप रह जाता है]

रामगुप्त––(हँसकर) कुचक्र करने वाले क्या बोलेंगे?

ध्रुवस्वामिनी––और जो लोग बोल सकते हैं, जो अपनी पवित्रता की दुन्दुभी बजाते हैं, वे सबके-सब साधु होते है न? (चन्द्रगुप्त से) कुमार! तुम्हारी जिह्वा पर कोई बन्धन नही। कहते क्यों नही कि मेरा यही अपराध है कि मैंने कोई अपराध नहीं किया?

रामगुप्त––महादेवी!

ध्रुवस्वामिनी––(उसे न सुनते हुए चन्द्रगुप्त से) झटक दो इन लौह-शृंखलाओं को! यह मिथ्या ढोंग कोई नही सहेगा। तुम्हारा क्रुद्ध दुर्दैव भी नही।

रामगुप्त––(डाँट कर) महादेवी! चुप रहो!

ध्रुवस्वामिनी––(तेजस्विता से) कौन महादेवी! राजा, क्या अब भी मैं महादेवी ही हूँ? जो शकराज की शय्या के लिए क्रीतदासी की तरह भेजी गयी हो, वह भी महादेवी! आश्चर्य!

शिखरस्वामी––देवि, इस राजनीतिक चातुरी में जो सफलता....।

ध्रुवस्वामिनी––(पैर पटक कर) चुप रहो! प्रवञ्चना के पुतले! स्वार्थ के घणित प्रपंच! चुप रहो!

रामगुप्त––तो तुम महादेवी नही हो न?

ध्रुवस्वामिनी––नही। मनुष्य की दी हुई उपाधि मैं लौटा देती हूँ।

रामगुप्त––और मेरी सहधर्मिणी?

ध्रुवस्वामिनी––धर्म ही इसका निर्णय करेगा।

रामगुप्त––ऐ, क्या इसमे भी सन्देह!

ध्रुवस्वामिनी––उसे अपने हृदय से पूछिए कि क्या मैं वास्तव में सहधर्मिणी हूँ?

[पुरोहित का प्रवेश / सामने सबको देखकर चौंक उठता है / शिखर-स्वामी उसे चले जाने का संकेत करता है]

पुरोहित––नही, मैं नही जाऊँगा। प्राणि-मात्र के अन्तस्तल में जाग्रत रहने वाले महान् विचारक धर्म की आज्ञा, मैं न टाल सकूँगा। अभी जो प्रश्न अपनी गम्भीरता में भीषण होकर आप लोगो को विचलित कर रहा है, मैं ही उसका उत्तर देने का अधिकारी हूँ। विवाह का धर्मशास्त्र से घनिष्ठ सम्बन्ध है।

ध्रुवस्वामिनी––आप सत्यवादी ब्राह्मण हैं। कृपा करके बतलाइए....।

शिखरस्वामी––(विनय से उसे रोककर) मैं समझता हूँ कि यह विवाद अधिक बढ़ाने से कोई लाभ नहीं!

ध्रुवस्वामिनी––नही, मेरी इच्छा इस विवाद का अन्त करने की है। आज यह निर्णय हो जाना चाहिए कि मैं कौन है।

रामगुप्त––ध्रुवस्वामिनी, निर्लज्जता की भी एक सीमा होती है।

ध्रुवस्वामिनी––मेरी निर्लज्जता का दायित्व क्लीव कापुरुष पर है। स्त्री की लज्जा लूटने वाले उस दस्यु के लिए मैं...।

रामगुप्त––(रोक कर) चुप रहो! तुम्हारा पर-पुरुष में अनुरक्त हृदय अत्यन्त कलुषित हो गया है। तुम काल-सर्पिणी-सी स्त्री! ओह, तुम्हे धर्म का तनिक भी भय नहीं। शिखर! इसे भी बन्दी करो।

पुरोहित––ठहरिए! महाराज, ठहरिए! धर्म की ही बात मैं सोच रहा था।

शिखरस्वामी––(क्रोध से) मैं कहता हूँ कि तुम चुप न रहोगे, तो तुम्हारी भी यही दशा होगी।

[सैनिक आगे बढ़ता है]

मन्दाकिनी––(उसे रोक कर) महाराज, पुरुषार्थ का इतना बड़ा प्रहसन! अबला पर ऐसा अत्याचार! यह गुप्त-सम्राट् के लिए शोभा नही देता।

रामगुप्त––(सैनिक से) क्या देखते हो जी।

[सैनिक आगे बढ़ता है और चन्द्रगुप्त आवेश में आकर लौह-शृंखला तोड़ डालता है / सब आश्चर्य और भय से देखते हैं]

चन्द्रगुप्त––मैं भी आर्य समुद्रगुप्त का पुत्र हूँ। और शिखरस्वामी, तुम यह अच्छी तरह जानते हो कि मैं ही उनके द्वारा निर्वाचित युवराज भी हूँ। तुम्हारी नीचता अब असह्य है। तुम अपने राजा को लेकर इस दुर्ग से सकुशल बाहर चले जाओ। यहाँ अब मैं ही शकराज के समस्त अधिकारों का स्वामी हूँ।

रामगुप्त––(भयभीत होकर चारों ओर देखता हुआ) क्या?

ध्रुवस्वामिनी––(चन्द्रगुप्त से) यही तो कुमार!

चन्द्रगुप्त––(सैनिकों से डपट कर) इन सामन्त-कुमारों को मुक्त करो!

[सैनिक वैसा ही करते हैं और शिखरस्वामी के संकेत से रामगुप्त धीरे-धीरे भय से पीछे हटता हुआ बाहर चला जाता है]

शिखरस्वामी––कुमार! इस कलह को मिटाने के लिए हम लोगो को परिषद् का निर्णय माननीय होना चाहिए। मुझे आपके आधिपत्य से कोई विरोध नहीं है, किन्तु सब काम विधान के अनुकूल होना चाहिए। मैं कुल-वृद्धों को और सामन्तों को, जो यहाँ उपस्थित हैं, लिवा लाने जाता हूँ। (प्रस्थान)

[सैनिक लोग और भी मच ले आते हैं और सामन्त-कुमार अपने खड्गों को खींचकर चन्द्रगुप्त के पीछे खड़े हो जाते हैं / ध्रुवस्वामिनी और चन्द्रगुप्त परस्पर एक दूसरे को देखते हुए खड़े रहते हैं / परिषद् के साथ रामगुप्त का प्रवेश / सब लोग मंच पर बैठते हैं]

पुरोहित––कुमार! आसन ग्रहण कीजिए।

चन्द्रगुप्त––मैं अभियुक्त हूँ।

शिखरस्वामी––बीती हुई बातों को भूल जाने में ही भलाई है। भाई-भाई की तरह गले से लग कर गुप्त-कुल का गौरव बढ़ाइए।

चन्द्रगुप्त––अमात्य, तुम गौरव किसको कहते हो? वह है कही? रोग-जर्जर शरीर पर अलंकारों की सजावट, मलिनता और कलुष की ढेरी पर बाहरी कुंकुम-केसर का लेप गौरव नही बढाता। कुटिलता की प्रतिमूर्ति, बोलो। मेरी वाग्दत्ता पत्नी और पिता-द्वारा दिये हुए मेरे सिहासन का अपहरण किसके संकेत से हुआ? और छल से....।

रामगुप्त––यह उन्मत्त प्रलाप बन्द करो। चन्द्रगुप्त! तुम मेरे भाई ही हो न! मैं तुमको क्षमा करता हूँ।

चन्द्रगुप्त––मै उसे माँगता नही और क्षमा देने का अधिकार भी तुम्हारा नही रहा। आज तुम राजा नही हो। तुम्हारे पाप प्रायश्चित्त की पुकार कर रहे है। न्यायपूर्ण निर्णय के लिए प्रतीक्षा करो और अभियुक्त बनकर अपने अपराधों को सुनो।

मन्दाकिनी––(ध्रुवस्वामिनी को आगे खींच कर) यह है गुप्तकुल की वधू।

रामगुप्त–– मन्दा!

मन्दाकिनी––राजा भय, मन्दा का गला नही घोट सकता। तुम लोगों को यदि कुछ भी बुद्धि होती, तो इम अपनी कुल-मर्यादा, नारी को, शत्रु के दुर्ग में यों न भेजते। भगवान् ने स्त्रियो को उत्पन्न करके ही अधिकारो से वंचित नही किया है। किन्तु तुम लोगों की दस्यु-वृत्ति ने उन्हे लूटा है। इस परिषद् मे मेरी प्रार्थना है कि आर्य समुद्रगुप्त का विधान तोड कर जिन लोगो ने राज-किल्विष किया हो उन्हे दण्ड मिलना चाहिए।

शिखरस्वामी––तुम क्या कह रही हो?

मन्दाकिनी––मैं तुम लोगों की नीचता की गाथा सुना रही हूँ। अनार्य! सुन नही सकते? तुम्हारी प्रवञ्चनाओं ने जिस नरक की सृष्टि की है उसका अन्त समीप है। यह साम्राज्य किसका है? आर्य समुद्रगुप्त ने किसे युवराज बनाया था? चन्द्रगुप्त को या इस क्लीव रामगुप्त को? जिसने छल और बल से विवाह करके भी इस नारी को अन्य पुरुष की अनुरागिनी बताकर दण्ड देने के लिए आज्ञा दी है। वही, रामगुप्त,जिसने कापुरुषों की तरह इस स्त्री को शत्रु के दुर्ग मे बिना विरोध किये भेज दिया था, तुम्हारे गुप्त-साम्राज्य का सम्राट् है! और यह ध्रुवस्वामिनी! जिसे कुछ दिनों तक तुम लोगों ने महादेवी कह कर सम्बोधित किया है, वह क्या है? कौन है? और उसका कैसा अस्तित्व है? कही धर्मशास्त्र हो तो उसका मुँह खुलना चाहिए।

पुरोहित––शिखर, मुझे अब भी बोलने दोगे या नहीं। मैं राज्य के सम्बन्ध में कुछ नहीं कहना चाहता। वह तुम्हारी राजनीति जाने। किन्तु इस विवाह के सम्बन्ध में तो मुझे कुछ कहना ही चाहिए।

गुप्तकुल का एक वृद्ध––कहिए देव, आप ही तो धर्मशास्त्र के मुख हैं।

पुरोहित––विवाह की विधि ने देवी ध्रुवस्वामिनी और रामगुप्त को एक भ्रान्तिपूर्ण बन्धन में बाँध दिया है। धर्म का उद्देश्य इस तरह पददलित नहीं किया जा सकता। माता और पिता के प्रमाण के कारण से धर्म-विवाह केवल परस्पर द्वेष से टूट नही सकते; परन्तु यह सम्बन्ध उन प्रमाणों से भी विहीन है। और भी (रामगुप्त को देखकर) यह रामगुप्त मृत और प्रव्रजित तो नहीं; पर गौरव से नष्ट, आचरण से पतित और कर्मों से राजकिल्विषी क्लीव हैं। ऐसी अवस्था में रामगुप्त ध्रुवस्वामिनी पर कोई अधिकार नहीं।

रामगुप्त––(खड़ा होकर क्रोध से) मूर्ख! तुमको मृत्यु का भय नहीं!

पुरोहित––तनिक भी नहीं। ब्राह्मण केवल धर्म से भयभीत है। अन्य किसी भी शक्ति को वह तुच्छ समझता है। तुम्हारे बधिक मुझे धार्मिक सत्य कहने से रोक नहीं सकते। उन्हें बुलाओ, मैं प्रस्तुत हूँ।

मन्दाकिनी––धन्य हो ब्रह्मदेव!

शिखरस्वामी––किन्तु निर्भीक पुरोहित, तुम क्लीव शब्द का प्रयोग कर रहे हो!

पुरोहित––(हँस कर) राजनीतिक दस्यु! तुम शास्त्रार्थ न करो। क्लीव! श्रीकृष्ण ने अर्जुन को क्लीव किस लिए कहा था? जिसे अपनी स्त्री को दूसरे की अंकगामिनी बनने के लिए भेजने में कुछ संकोच नही, वह क्लीव नहीं तो और क्या है? मैं स्पष्ट कहता हूँ कि धर्म-शास्त्र रामगुप्त से ध्रुवस्वामिनी के मोक्ष की आज्ञा देता है।

परिषद् के सब लोग––अनार्य, पतित और क्लीव रामगुप्त, गुप्तसाम्राज्य के पवित्र राज-सिंहासन पर बैठने का अधिकारी नहीं।

रामगुप्त––(सशंक और भयभीत-सा इधर-उधर देखकर) तुम सब पाखण्डी हो, विद्रोही हो। मैं अपने न्यायपूर्ण अधिकार को तुम्हारे-जैसे कुत्तों के भौंकने पर न छोड़ दूँगा।

शिखरस्वामी––किन्तु परिषद् का विचार तो मानना ही होगा।

रामगुप्त––(रोने के स्वर में) शिखर! तुम भी ऐसा कहते हो? नहीं, मैं यह न मानूँगा।

ध्रुवस्वामिनी––रामगृप्त! तुम अभी इस दुर्ग के बाहर जाओ।

रामगुप्त––ऐं! यह परिवर्तन? तो मैं सचमुच क्लीव हूँ क्या?

[रामगुप्त धीरे-धीरे हटता हुआ चन्द्रगुप्त के पीछे पहुँचकर कटार निकाल कर उसे मारना चाहता है/चन्द्रगुप्त को विपन्न देखकर कुछ लोग चिल्ला उठते हैं/जब तक चन्द्रगुप्त घूमता है तब तक एक सामन्त-कुमार रामगुप्त पर प्रहार करके चन्द्रगुप्त की रक्षा कर लेता है/रामगुप्त गिर पड़ता है]

सामन्त-कुमार––राजाधिराल चन्द्रगुप्त की जय!

परिषद्––महादेवी ध्रुवस्वामिनी की जय!

य व नि का