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प्राचीन चिह्न/ईसापुर के यूप-स्तम्भ

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प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ३७ से – ४४ तक

 

सन् १६१०-११ की आरकियोलाजिकल सर्वे रिपोर्ट में दो यूप-स्तम्भों का वर्णन है। ये यूप मथुरा के पास ईसापुर मे मिले हैं। यह जगह मथुरा में, यमुना के बायें तट पर, विश्रान्त-घाट के ठीक सामने है। गरमियों मे यमुना की धारा बहुत पतली हो जाती है; पानी कम रह जाता है। १६१० ईसवी के जून महीने मे राय बहादुर पण्डित राधाकृष्ण को पत्थर के दो खम्भों का कुछ अंश, उथले जल मे झलकता हुआ, दिखाई दिया। उन्होने उन खम्भो को निकालना चाहा । बड़ी कठिनता से किसी तरह उन्होंने उनको वहाँ से खोद निकाला। निकालकर उन दोनों को उन्होंने मथुरा के अजायबघर में रक्खा। इस अजायबघर मे और भी अनेक पुरानी वस्तुओं का संग्रह है। इन दो खम्भो में से एक पर संस्कृत में एक लेख खुदा हुआ है। उससे मालूम हुआ कि ये दोनों पुराने यूप-स्तम्भ हैं।

जिस खम्भे पर लेख है वह कोई २० फुट ऊँचा है । नीचे से लेकर कोई ८३ फुट ऊपर तक वह चौकोन है। उसके आगे वह अष्टकोणाकृति है। चौड़ाई १ फुट १ इञ्च और मुटाई १ फुट है। चौकोन अंश के ५ इञ्च ऊपर रस्से की प्राकृति खुदी हुई है। रस्सा दुहरा लपेटा हुआ है। दोनों

छोर मिलाकर गॉठ दी हुई है। गाँठ के नीचे एक छोर लम्बा लटक रहा है। उसमे फन्दा बना हुआ है। यह यज्ञीय पशु बाँधने का रस्सा है। इसी रस्से से कुछ दूर नीचे, चौकोन अंश पर, लेख खुदा है। ऊपर, सिरे से, एक माला लटकी हुई दिखाई गई है। अपनी गति को पहुँचाये जाने के पहले शायद यज्ञीय पशु के गले से यह माला निकालकर यूप पर लटका दी जाती रही है।

दूसरा स्तम्भ २० फुट २ इञ्च ऊँचा है। वह भी अनेकाश में पहले ही स्तम्भ के समान है। पर उस पर कोई लेख नहीं।

पहले स्तम्भ का लेख स्तम्भ की १२३ इञ्च चौड़ी जगह में खुदा हुआ है। उसमे ७ पंत्तियाँ हैं। अक्षरों की उँचाई से १३ इञ्च तक है। लेख की नकल नीचे दी जाती है——

(१) सिद्धम् ॥ महाराज्यस्य राजातिराज्यस्य देवपु-

(२) त्रस्य शाहेर्वाशिष्कस्य राज्यसंवत्सरे च-

(३) तुर्विशे २४ ग्रीष्म-मासे चतुर्थे दिवसे

(४) त्रिंशे ३० अस्यां पूर्वायां रूदिलपुत्रेण द्रोण-

(५) लेन ब्राह्मणेन भारद्वाज-सगोत्रेण मा-

(६) ण-च्छन्दोगेन इष्ट्वा सत्रेण द्वादशरात्रेण

(७) यूप. प्रतिष्ठापित. प्रियन्तां-अग्नय ॥

अर्थात्——महाराजाधिराज देवपुत्र शाह वाशिष्क के चौबीसवे राज्य-वर्ष में, ग्रीष्म-ऋतु के चौथे महीने के तीसवे

दिन, भारद्वाज-गोत्रीय, माण ( ? ) वेदपाठी ब्राह्मण रूद्रिल के पुत्र द्रोणल ने द्वादशरात्रि-पर्यन्त यज्ञ करके इस यूप की स्थापना की। अग्निदेव (गार्हपत्य, दक्षिणाग्नि और आहवनीय ) प्रसन्न हों।

इस लेख का “माण" शब्द ठीक-ठीक नहीं पढ़ा गया । इस लेख को पुरातत्त्ववेत्ता बड़े महत्त्व का समझते है। कुशान- वंशीय राजा कनिष्क और हुविष्क के बीच मे एक और भी राजा हो गया है। उसका ऐतिहासिक प्रमाण अब तक ठीक- ठीक उनको न मिला था। इस लेख से वह मिल गया और मालूम हो गया कि उस राजा का नाम वाशिष्क था। इसी राजा के राज्यकाल में द्रोणल ने, मथुरा मे, १२ रात्रि-पर्यन्त यज्ञ करके, पूर्वोक्त यूप की प्रतिष्ठा की थी। उस ज़माने मे ऐसी यूप-स्थापना की चाल थी। ये यूप एक प्रकार की याद- गार समझे जाते थे। जो यज्ञ करता था वह उसकी याद बनी रखने के लिए यूप अवश्य गाड़ देता था। इसी से कालि- दास ने रघुवंश मे लिखा है——

(१) ग्रामेष्वात्मविसृष्टेषु यूपचिह्न षु यज्वनाम्—— सर्ग १

(२) अष्टादशद्वीपनिखातयूप——सर्ग ६

(३) वेदिप्रतिष्ठान्वितताध्वराणां

यूपानपश्यच्छतशो रघूणाम्-सर्ग १६

इसी वाशिष्क राजा के राज्यकाल का एक खण्डित शिलालेख साँची में भी मिला है। वह अब तक ठोक-ठीक न

पढ़ा जोता था। पर ईसापुर के इस यूप-लेख की सहायता से उसका भी उद्धार हो गया और यह स्पष्ट विदित हो गया कि कनिष्क के सदृश वाशिष्क भी प्रतापी राजा था और उसका राज्य सॉची तक फैला हुआ था।

भाषा की दृष्टि से भी ईसापुर का यूप-लेख बड़े महत्त्व का है। वह कोई अठारह-उन्नीस सौ वर्ष का पुराना है। उसकी भाषा विशुद्ध संस्कृत है। उसमे जो दो एक छोटी-छोटी अशुद्धियाँ हैं वे, सम्भव है, खोदनेवाले की असावधानता से हो गई हों। कुशानवंशीय नरेशो के शासन-समय के अन्तर्गत पूर्व-कालीन शिलालेख प्राकृत मिली हुई संस्कृत भाषा में और उत्तर-कालीन शिलालेख संस्कृत मिली हुई प्राकृत भाषा ही में अब तक मिले हैं। अर्थात् पहले प्रकार के लेखो में संस्कृत अधिक है, प्राकृत कम, और दूसरे प्रकार के लेखो में प्राकृत अधिक है, संस्कृत कम । मतलब यह कि उस ज़माने में प्राकृत का प्राबल्य हो रहा था और संस्कृत का नैर्बल्य । मौर्य और शुगवंशीय राजों के राजत्व-काल में तो प्राकृत ही का सार्व- देशिक प्रचार हो गया था। इस कारण उस समय के प्रायः सभी शिलालेख प्राकृत ही में मिले हैं। संस्कृत का प्रचारा- धिक्य तो गुप्तवंश के राजो के समय मे हुआ। इसी से उत्तरी भारत में उस समय के जितने लेख मिले हैं सब संस्कृत में हैं। इस दशा में ईसापुर के यूप-स्तम्भ का भी लेख प्राकृत मिली संस्कृत में होना चाहिए था। पर है वह प्रायः विशुद्ध संस्कृत

में। इस तरह की संस्कृत मे खुदा हुआ जो सबसे पुसना शिला-लेख अब तक मिला है वह १५० ईसवी के आस-पास का है। वह क्षत्रप रुद्रदामा के समय का है और गिरनार की एक पर्वत-शिला पर खुदा हुआ है। ईसापुर का प्रस्तुत लेख उससे भी सौ-पचास वर्ष पुराना है। अतएव सिद्ध है कि उस समय, अर्थात् सन् ईसवी के कुछ समय आगे-पीछे, संस्कृत का यहाँ अच्छा प्रचार था। उस समय के शिलालेख जो प्राकृत या प्राकृतमिश्रित संस्कृत ही में मिले हैं, इसका कारण यह मालूम होता है कि वे प्रायः सब के सब बौद्धो और जैनों के हैं। ये लोग उस ज़माने में प्राकृत के पक्षपाती और संस्कृत के प्रचार के विपक्षी थे। इसी से इनके शिलालेखों में संस्कृत की अवहेलना हुई है। ब्राह्मण लोग आज से दो हज़ार वर्ष पहले भी संस्कृत ही का विशेष आदर करते थे और उसी मे शिलालेख खुदवाते और ग्रन्थ-रचना करते थे। ईसापुर मे यज्ञ करनेवाला द्रोणल ब्राह्मण ही था। इसी से उसके खुदवाये हुए लेख मे संस्कृत ही का प्रयोग हुआ है। विशुद्ध संस्कृत मे प्राप्त हुआ यही अब तक सबसे पुराना शिला- लेख है। सम्भव है, और भी ऐसे ही शिलालेख पृथ्वी के पेट मे दबे पड़े हों और कालान्तर मे पाये जायें।

यूपों का वर्णन शतपथ ब्राह्मण मे विस्तारपूर्वक है। यूप बहुत करके खदिर ( कत्थे ) के वृक्ष का होता था। “था" इसलिए कि इस समय एक-आध भूले-भटके याज्ञिक को छोड़-

कर शायद ही और कोई इस क्रिया-काण्ड के द्वारा स्वर्ग-प्राप्ति की इच्छा रखता हुआ यज्ञीय पशु बाँधने के लिए यूप काम में लाता हो। जिस काम के लिए यूप गाड़े जाते थे वह लकड़ी ही के यूप से अच्छी तरह हो जाता था। पशु बाँधने के लिए पत्थर तराशने की ज़रूरत नहीं पड़ती। ईसापुर के यूप उस यज्ञीय स्तूप की केवल यादगार हैं। वे पत्थर के इसलिए बनाये गये हैं कि बहुत समय तक बने रहे और यज्ञकर्ता के यज्ञ की याद दिलाते रहे। लकड़ी के स्तूप गाड़ने से वर्ष ही दो वर्ष मे सड़कर वे नष्ट हो सकते है।

अच्छा, ये यूप हैं क्या चीज ? शतपथ ब्राह्मण से तो यही मालूम होता है कि ये पशु बाँधने के लिए यज्ञशाला में गाड़े जाते थे। इनको अपनी वर्तमान भाषा हिन्दी में क्या कहना चाहिए। खूटा तो कही नही सकते, क्योंकि वेदवेत्ता ब्राह्मण विद्वानों की राय है कि खूटा कहने से यूपों की अप्रतिष्ठा होती है। इसी डर से हमने इस लेख मे वैसा नही किया। अब वही कृपा करके बतावे कि ये “यूप" हिन्दी में भी यूप ही रहे या इनके लिए वे और कोई प्रतिष्ठासूचक नाम चुन देगे। इन यूपो से जो पशु बाँधे जाते थे उनके लिए “वध" शब्द का प्रयोग भी वेदज्ञ विद्वान् अनादरसूचक समझते हैं। “गवालम्भ"-वाला आलम्भ शब्द शायद उन्हे ऐसे पशु के लिए विशेष प्रतिष्ठाजनक ज्ञात हो। इस प्रतिष्ठीजनक शब्द-प्रयोग से शायद उस पशु का कुछ हित,

हो सकता हो। लोक में तो जेल को ससुराल कहने से भी कैदियों का कुछ भी उपकार नहीं होता।

ये यूप किस तरह काटे जाते थे ? किस तरह गढ़े जाते थे ? कब, किस जगह और किस तरह गाड़े जाते थे ? उनकी संख्या कितनी होती थी ? उन्हे काटने, गढ़ने, गाड़ने और उनकी पूजा करने में कौन-कौन किन-किन मन्त्रों का उच्चारण करता था ? पशु को कौन और किस तरह बॉधता तथा पूजता था ? यूप से बाँधे हुए पशु का वहीं अालम्भ होता था या खोलकर दूसरी जगह ? किसी शस्त्र से काम लिया जाता था या पाश से ? ये सब बातें शास्त्रज्ञ पण्डितों के “म्लेच्छो" ने अन्य भाषाओं में लिख डाली हैं। पर उनके कथन का अनुवाद करने का साहस नहीं होता। डर लगता है कि कहीं कोई भूल न हो जाय । शतपथ ब्राह्मण में ये सब बाते विधिपूर्वक लिखी हुई हैं। सायण, हरिस्वामी और द्विवेद- गङ्ग ने अपनी टीकाओं मे इन बातों को और भी विशद रीति से समझा दिया है। पर हम वेदज्ञ और ब्राह्मणज्ञ होने का दावा नहीं कर सकते। इस कारण हम उनके आधार पर भी किसी तरह कुछ लिखकर वेद-वेत्ताओ का जी नही दुखाना चाहते। भूले हो जाने का उसमें भी डर है। आशा है, वेदवेत्ता विद्वान अपनी क्रिया-शीलता के कुछ अंश का प्रयोग इधर भी करके केवल हिन्दी जाननेवालों की अवगति के लिए इन बातों को सविस्तर प्रकाशित करने की कृपा करेगे। न

करने से वेद-ब्राह्मणां की अप्रतिष्टा नीर अनादर होने की सम्भावना है। कारण यह कि इस विषय के मर्मज्ञ महाशय यदि कुछ न लिखेंगे तो अन्य साधना के सहारे लोग अपनी जिज्ञासा- तृप्ति करने लगेंगे। इस दशा में यदि वे यूप को खूटा और आलम्भ को वध कहने लगे तो कोई आश्चर्य नही। यदि ऐसा ही होने लगे तो इस भ्रमोत्पादन के अांशिक दोषी हमारे वेदव्रत विद्वान भी अवश्य ही समझे जायँगे।

[ सितम्बर १९१५


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