प्राचीन चिह्न/यलोरा के गुफा-मन्दिर

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२——यलोरा के गुफा-मन्दिर

इस लेख में हम यलोरा की गुफाओं का संक्षिप्त वर्णन लिखते हैं। विस्तृत वर्णन अन्यत्र, और पुस्तको मे, देखना चाहिए। ये गुफायें बहुत बडी-बड़ो हैं, और अनेक हैं। अतएव उन सबका सविस्तर वर्णन करने के लिए बहुत स्थान और बहुत समय दर- कार है। फिर, गुफाओ के साथ उनके चित्र और उनके भीतर की सैकड़ो मूर्तियो का वर्णन, पूरे तौर से, एक छोटे से लेख में करना, अधिक कठिन काम है। एक बात और भी है। वह यह कि अजण्टा में तो केवल बौद्धों की गुफायें हैं; परन्तु, यलोरा मे बौद्ध, जैन और हिन्दू, इन तीनों की, हैं। “भारत- वर्ष के गुफा-मन्दिर" ( Cave temples of India) नाम की अँगरेजो पुस्तक में इन मन्दिरों का वर्णन पढ़ने और उनके चित्रो के दर्शन करने पर, इस देश के प्राचीन कला-कौशल- सम्बन्धी भावों का हृदय मे जो उन्मेष होता है वह बड़ा ही आतङ्क-जनक और साथ ही बड़ा ही आलादकारक भी है। इन मन्दिरों के विषय मे पुरातत्त्ववेत्ताओ ने अनेक प्रशंसापूर्ण लेख लिखे हैं। हम, यहाँ पर, उन्ही का सारांश प्रकाशित करते हैं।

जबलपुर से बम्बई को जो रेलवे-लाइन जाती है उसका नाम ग्रेट इंडियन पेनिन्शुला रेलवे है। इस लाइन पर मन्माड़ नाम का एक स्टेशन है। यह स्टेशन बम्बई से १६१
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मील, इलाहाबाद से ६८० मील और नागपुर के रास्ते होकर कलकत्ते से १०६० मील है। मन्माड़ से निज़ाम के हैदराबाद को एक दूसरी रेलवे लाइन जाती है। इस लाइन का नाम “हैदराबाद गोदावरी वैला रेलवे" है। इस लाइन पर, मन्माड़ से ७१ मील दूर, औरङ्गजेब की याद दिलानेवाला औरगाबाद स्टेशन है। यलोरा के मन्दिरो को देखने के लिए इसी स्टेशन पर उतरना पड़ता है। यहाँ से यलोरा नाम का गॉव १४ मील है। इसे एलापुर, यलुरु और वेरुल भी कहते हैं। यह निज़ाम के राज्य मे है। किसी-किसी का मत है कि यलिचपुर के राजा यदु ने यलोरा को आठवे शतक मे बसाया था। यहाँ से ये गुफा-मन्दिर कोई । मील दूरvहैं और वराबर सवा मील तक चले गये हैं।

यलोरा की गुफा़ओ का उल्लेख, सबसे पहले, अरब के भूगोल वेत्ता महसूदी ने दशवे शतक मे किया। परन्तु उसने उनके शिल्प-सौन्दर्य के विषय मे कुछ न कहकर केवल उनको एक प्रसिद्ध तीर्थस्थान बतलाया। १३०६ ईसवी में, गुजरात की राज-कन्या कमला-देवी इन्ही गुफाओ में छिपी थी। अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफ़ूर ने उसे यही से । हूँढ़कर देहली भेजा था। इन गुफाओं में मुसलमानों का प्रथम-प्रवेश इसी समय हुआ जान पड़ता है।

एकान्त-सेवन के लिए, निर्जन पर्वतों के बीच, ऐसी-ऐसी गुफाओ का निर्माण बौद्ध लोगो के समय से आरम्भ
[ १७ ]हुआ। वर्षा-ऋतु मे बौद्ध भिक्षु इन्हों गुफाओं मे रहकर परमार्थ-चिन्तन करते थे। बौद्धो की देखा-देखी जैनों ने भी रमणीक पार्वतीय स्थानों मे गुफा-मन्दिर बनवाये । और कहीं- कहीं बौद्धों और जैनों की स्पर्धा सी करने के लिए हिन्दुओं ने भी वही अपने मन्दिर खड़े कर दिये। यलोरा एक ऐसा स्थान है जहाँ इस देश के इन तीनों धर्मों के अनुयायियों द्वारा निर्माण किये गये, भिन्न-भिन्न तीन प्रकार के, गुफा-मन्दिर एक दूसरे के बाद, पास ही पास, बने हुए हैं। भारतवर्ष में यलोरा किसी समय प्रख्यात तीर्थ गिना जाता था, और अपने- अपने समय मे दूर-दूर से आये हुए, लाखो बौद्ध, जैन और हिन्दू यात्री यहाँ इकट्ठे होते थे। वह समय यद्यपि अब नहीं रहा, परन्तु यलोरा की गुफायें और मन्दिर अभी तक बने हुए हैं और अपने प्राचीन वैभव की गवाही दे रहे हैं। • इन' मन्दिरों मे जो नाना प्रकार के चित्र और मूर्तियाँ हैं, उनको देखकर उस समय की सामाजिक अवस्था का पता भली भॉवि लगता है। उस समय के जीव-जन्तु, उस समय के वस्त्रा- लङ्कार, उस समय के अस्त्र-शस्त्र और उस समय के आमोद- प्रमोद की प्रणाली के भी ये चित्र सच्चे सूचक हैं। धर्म से सम्बन्ध रखनेवाली बातों के तो ये प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।

यलोरा की गुफायें एक ढालू पहाड़ी के बाहरी भाग को काटकर उसके भीतर बनाई गई हैं और उत्तर-दक्षिण कोई मील सवा मील तक चली गई हैं। जहाँ पर ये बनी हुई है
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वहाँ की पर्वत-श्रेणी के ढालू होने, और मैदान की ओरवाले भाग के भीतर उनके बनाये जाने के कारण इन गुफाओं मे. प्रायः सभी के सामने सहन हैं। इन गुफाओं के भीतर बने हुए मन्दिरों के कारुकर्म को देखकर बड़े-बड़े यञ्जिनियर और बड़े-बड़े शिल्प-निपुण कारीगरों की बुद्धि चक्कर खाने लगती है। इनके रङ्गीन चित्र, रङ्गीन बेल-बूटे, भाव-भरी मूर्तियाँ और भॉति-भॉति की जालियाँ देखकर देखनेवालों की चित्तवृत्ति स्थगित और स्तम्भित हो जाती है। मूर्तिद्रोही, अन्य धर्मावलम्बी, अन्य देशवासी लोगो के भी मुख से इन मन्दिरों की स्तुति सुनकर हृदय मे एक अपूर्व भक्ति-भाव का उदय हो उठता है। फर्गुसन, बयंस और बाड्रिलर्ट ने तो इनके स्तुतिपाठ से भरी हुई पुस्तके लिख डाली हैं। एक साहब लिखते हैं कि “यलोरा के ये प्राचीन मन्दिर, इस समय, दैवात् उजाड़ अवस्था मे पड़े रहने पर भी मनुष्य की कल्पना को व्याकुल कर देते हैं। वह यही नहीं स्थिर कर सकती कि किस प्रकार ये मन्दिर मनुष्य से बनाये गये होगे। इन मन्दिरों के सामने खड़े होकर यदि कोई कुछ लिखना चाहे तो कलम पकड़ने के लिए हाथ ही नही उठता। इन विस्मयोत्पादक और भव्य मन्दिरो को देखने से प्राचीन भारतवासियो के शिल्पकौशल और धर्म-प्रवणता का मूर्तिमान् चित्र नेत्रों के सम्मुख उपस्थित हो जाता है। महा मनोहारिणी चित्रकारी और शिल्प कर्म के सुक्ष्म से
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सूक्ष्म अनन्त भेदों ने इन मन्दिरों की भव्यता को बहुत ही अधिक बढ़ा दिया है।

जिस समय हिन्दूधर्म की सबसे अधिक उन्नति इस देश में थी उस समय के बने हुए विशाल हिन्दू-मन्दिरो ने यलोरा की गुफाओं को और भी विशेष प्रधानता प्रदान की है। इन मन्दिरों में, मूर्तियों और चित्रों के द्वारा, अनेक पौराणिक प्रकरण प्रत्यक्ष देख पड़ते हैं । यहाँ, कैलास नामक जो मन्दिर है वह अद्वितीय है। पहाड़ काटकर जितने मन्दिर इस देश में बनाये गये हैं, कोई इसकी बराबरी नही कर सकता । यलोरा में यदि अकेला एक यही मन्दिर होता तो भी यह स्थान उतनी ही प्रसिद्धि प्राप्त करता जितनी प्रसिद्धि कि इसने और अनेक मन्दिरो के होते हुए प्राप्त की है।

यलोरा में दक्षिण से उत्तर तक सब ३४ गुफाये और मन्दिर हैं। वौद्धो के गुफा-मन्दिर दक्षिण में हैं। उनकी संख्या १२ है। जैनो के उत्तर मे हैं। उनकी संख्या ५ है। और, हिन्दुओं के मन्दिर बीच में है। उनकी संख्या सबसे अधिक, अर्थात् १७, है। इन मन्दिरों मे, प्रत्येक समूह के, प्रसिद्ध-प्रसिद्ध मन्दिर का संक्षिप्त विवरण, यथाक्रम, यहाँ पर, दिया जाता है।

बौद्धों के गुफा-मन्दिरो का नाम, १ से ४ तक का ढेड़- वाड़ा है और ५ से तक का महारवाड़ा। दसवे का नाम विश्वकमी अथवा सुतार का झोपड़ा; ग्यारहवे का दोन-थाल
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और बारहवे का तीन-थाल है। १ से लेकर ९ पर्यन्त की गुफाओं में, ढेड़ और महार शब्द मराठी-भाषा में नीच जाति के सूचक हैं। ये नाम पीछे से वहाँ के रहनेवालों ने रख लिये हैं। ये मन्दिर ६५० ईसवी के पहले के बने हुए हैं। इनमे से कुछ इससे भी पुराने हैं। वे ४५० ईसवी के लगभग बने हुए जान पड़ते हैं। ढेडवाड़ा नाम का मन्दिरसमूह सबसे अधिक पुराना है; और विश्वकर्मा सबसे अधिक विशाल और अवलोकनीय है। दोन-थाल का अर्थ दो खण्ड और तीन-थाल का अर्थ तीन खण्ड ( का मन्दिर ) है।

ये गुफा-मन्दिर पर्वत काटकर उसी की पार्वतीय चट्टानों में, भीतर ही भीतर, गढे गये हैं। इनको बनाने मे बाहर से ईट, पत्थर लाकर नहीं लगाया गया। पहाड़ों में से एक छोटी सी पटिया काटकर निकालने मे कितना भगीरथ प्रयत्न करना पड़ता है; फिर उसको काटकर उसके भीतर मन्दिर खड़ा कर देना कितने कौशल, कितने यत्न और कितने श्रम का काम है, यह कहने की आवश्यकता नहीं।

१ से लेकर ९ नम्बर तक के वौद्ध मन्दिरों मे अनेक मनोहर-मनोहर मूर्तियाँ हैं। कही अवलोकितेश्वर बुद्ध की प्रतिमा है, कही पद्मपाणि की, कही अक्षोभ्य की, और कहीं अमिताभ की। तारा, सरस्वती और मञ्जु श्री आदि शक्तियों की मूर्तियाँ भी ठौर-ठौर पर हैं, उनकी सेवा विद्याधर कर रहे हैं। इन मूर्तियों की बनावट इतनी अच्छी और इतनी निर्दोष है कि
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किसी-किसी को, इस समय भी, इन्हें देखकर इनके सजीव होने की शङ्का होती है। एक हाथ में माला, दूसरे मे कमल- पुष्प, कन्धे में मृग-चर्म लिये हुए अभय और धर्म-चक्र-मुद्रा में ध्यानस्थ बुद्ध की मूर्तियों को देखकर मन मे अपूर्व श्रद्धा और भक्ति का उन्मेष होता है।

बौद्धो के गुफा-मन्दिरों में विश्वका सबसे अधिक प्रसिद्ध और विशाल स्तूप है। यह बौद्धों का चैत्य है। इसके आगे खुला हुआ सहन है और चारों ओर बरामदे हैं। मन्दिर का भीतरी भाग ८५ फुट १० इञ्च लम्बा और ४३ फुट २ इञ्च चौड़ा है। इसमे जो खम्भे हैं वे १४ फुट ऊँचे हैं; उनके नीचे बहुत ही अच्छा काम किया हुआ है। इस मन्दिर में बौद्ध साम्प्रदायिक मूर्तियों की बहुत अधिकता है। अनेक धार्मिक विषय, मूर्तियों द्वारा, दिखलाये गये हैं। मूर्तियों के वस्त्र और आभूषण आदि देखकर उस समय की सामाजिक अवस्था का बहुत कुछ ज्ञान होता है। यहाँ पर बौनों की कुछ ऐसी मूर्तियाँ हैं जिनको देखकर मन मे बड़ा कुतूहल उत्पन्न होता है। इन मूर्तियों का ऊपरी भाग बहुत ही स्थूल है। ये खर्वकार मनुष्य बुद्ध की सेवा मे तत्पर हैं। वज्रपाणि आदि अनेक बोधिसत्वों की भी मूर्तियाँ इस चैत्य मे हैं।

दोन-थाल में पहले दो ही खण्ड थे। इसलिए उसका नाम दोन-थाल पड़ा। परन्तु उसका एक खण्ड नीचे जमीन में दब गया था। वह १८७६ ईसवी में खोदकर बाहर निकाला
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गया। अतएव अब इसे भी तीन-थाल कहना चाहिए: क्योंकि तीन-थाल के जैसे इसमे भी तीन खण्ड हैं। दोन-थाल और तीन थाल मन्दिर, भव्यता में, यद्यपि विश्वकर्मा मन्दिर की बराबरी नही कर सकते, परन्तु लम्बाई-चौडाई में वे विश्वकर्मा से बड़े हैं। इनका कोई-कोई दीवानखाना ११८ फुट तक लम्बा है। इनमे अनेक छोटे-छोटे कमरे हैं। इनके प्रकाण्ड खम्भो को देखकर बुद्धि काम नहीं करती। वे बड़ी ही सुघराई से काटे गये है। वे चौकोर हैं और उन पर बड़ी कारीगरी की गई है। उग्रा, रत्ना, विश्वा, ब्रजधातेश्वरी, लक्ष्मी और सरस्वती आदि की मूर्तियाँ ठौर-ठौर पर बनी हुई हैं। बुद्ध और बोधिसत्व भी प्रायः प्रत्येक कमरे में विराजमान हैं। इनमे से कोई भूमि-स्पर्श-मुद्रा में हैं, कोई ललितासन-मुद्रा में, कोई पद्मासन-मुद्रा में और कोई ज्ञान-मुद्रा में। अनेक विद्याधर और अनेक देवी-देवता, इन मन्दिरो में बने हुए दिखलाई देते हैं। इस समय पत्थर का एक पुतला बनवाने के लिए हम लोगो को विलायत की शरण जाना पड़ता है। इस बात का विचार करके और डेढ़ हज़ार वर्ष के पुराने इन मन्दिरो की महामनोहर मूर्तियों को देखकर प्राचीन कारीगरों के शिल्प- कौशल की सहस्र मुख से प्रशंसा करने को जी चाहता है। इन मन्दिरो में किसी-किसी बुद्ध के सामने, और दाहने-बायें, स्त्रियों की मूर्तियाँ हैं। ये स्त्रियाँ प्रायः पद्मासन-मुद्रा में बैठी हैं; किसी-किसी के हाथ में माला और फूल है।
[ २३ ]यलोरा में जैन मन्दिरों का समुदाय उत्तर की ओर है। उसमे कुल ५ मन्दिर हैं। वे पूरे नहीं बनने पाये; असम्पूर्ण ही स्थिति में छोड़ दिये गये हैं। परन्तु दो मन्दिर बहुत बड़े हैं। एक मन्दिर का नाम छोटा कैलाश है। छोटा उसे इसलिए कहते हैं, क्योंकि हिन्दुओं के मन्दिर-समूह में कैलाश नाम का एक बहुत बड़ा मन्दिर है। जैनों के और मन्दिरों के विषय में अधिक न कहकर, इन्द्र-सभा और जगन्नाथ-सभा नाम के जो दो प्रसिद्ध मन्दिर हैं उन्हीं के विषय में हम दो- चार बातें, यहाँ पर, कहना चाहते हैं।

हिन्दुओ के कैलाश (जिसका उल्लेख आगे आवेगा) और बौद्धो के विश्वकर्मा मन्दिर को छोड़कर, जैनों के इन्द्र-सभा-मन्दिर की समता यलोरा का और कोई मन्दिर नहीं कर सकता। यह मन्दिर बौद्धो और हिन्दुओं के मन्दिरसमूह के पीछे बना है। मध्य भारत में राष्ट्रकूट-वंशीय राजों का राज्य नवे शतक में बहुत ही निर्वल हो गया था। उस समय यलोरा के आस-पास का देश जैनो ने अपने अधिकार में कर लिया था। जान पड़ता है, उन्होंने बौद्धों और हिन्दुओं की देखा-देखी अपने प्रभुत्व और शासन की यादगार में ये मन्दिर बनवाये हैं। इन्द्र-सभा में कई बरामदे, कई प्राङ्गण और कई देवगृह हैं। उसकी छत की चित्र-विचित्र बनावट, उसके खम्भों की तराश और उन पर का काम, और उसकी मूर्तियों की सुन्दरता अपूर्व है। कहीं महावीर की मूर्ति है; उसके
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दोनों ओर दो चामरधारिणी दासियाँ खड़ी हैं; सिर पर मनो- हर छत्र है; पीछे की ओर पत्तों का स्तबक है। कहीं पार्श्व- नाथ की प्रतिमा विराजमान है; उस पर स्त्रियाँ छत्र धारण किये हुए हैं; सर्पराज सिर के ऊपर अपना फण फैलाये हैं; पैरों को नाग-कन्यायें स्पर्श कर रही हैं; चारों ओर दैत्यों का समुदाय तपोभङ्ग करने के प्रयत्न में है। कही इन्द्र, ऐरा- वत पर, आसन लगाये हैं; इन्द्राणो सिंह पर सवार हैं; दास- दासियाँ उनकी सेवा में निमग्न हैं। जगह-जगह पर जिन- तीर्थड्कर अपने-अपने शासन-देवो और देवियों के सहित मन्दिर की शोभा बढ़ा रहे हैं। नेमिनाथ, गोमटेश्वर और महावीर की अनेक मूर्तियाँ हैं; जितनी हैं सब अवलोकनीय हैं; और प्रायः अच्छी दशा में हैं। शची ( इन्द्राणी ), अम्बिका और सरस्वती की भी कितनी ही चित्तग्राहिणी प्रतिमाये हैं। दिग- म्बर-जैनों के परम-श्रद्धाभाजन गोमटेश्वर के पूरे आकार के कई दिग्वस्त्रधारी स्वरूप हैं। इन मूर्तियों के अड्ग-प्रत्यङ्ग सब ऐसे अच्छे हैं कि आजकल के कुशल से भी कुशल कारीगर उनमे कोई दोष नहीं दिखला सकते। मूर्तियों के पास, कही- कहीं, उनके वाहन——सिह, गज, हरिण और कुत्ते भी हैं। किसी-किसी तीर्थङ्कर पर पुष्पवर्षा हो रही है और गन्धर्व अपने गान से उन्हें प्रसन्न कर रहे हैं। इस मन्दिर के जितने दृश्य हैं सब मनोहर हैं; और उनके निर्माण करनेवालों की शिल्पकुशलता के स्वरूपवान् प्रमाण हैं ।
[ २५ ]जैनों का दूसरा प्रसिद्ध मन्दिर जगन्नाथ-सभा नामक है। वह इन्द्र-सभा से मिला हुआ है; परन्तु उससे छोटा है। उसकी कुछ मूर्तियाँ छिन्न-भिन्न भी हो गई हैं। इससे उसकी शोभा में क्षीणता आ गई है। उसकी बनावट, भीतर और बाहर, इन्द्रसभा से प्राय: मिलती-जुलती है। उसका शिल्पकार्य और उसकी मूर्तियाँ भी बहुत करके इन्द्र-सभा से मिलती हैं। अतएव उसके विषय में विशेष रूप से कुछ कहने की आवश्यकता नहीं।

यलोरा में हिन्दू-मन्दिरों की संख्या औरों की अपेक्षा अधिक है। जैसा, पहले, एक जाह कहा गया है वे सब १७ हैं। वे बौद्ध और जैन-मन्दिरों के बीच में हैं। उनमें से ये मुख्य हैं, यथा—


१ रावण की खाई
२ देववाड़ा
३ दशावतार
४ कैलास अथवा रङ्ग-महल


५ लङ्केश्वर
६ रामेश्वर
७ नीलकण्ठ
८ धुमारलेन अथवा सीता की चावड़ी

रावण की खाई मे अनेक मूर्तियाँ हैं।

दशावतार मे विष्णु के दस अवतारों की मूर्तियों के सिवा शिव की भी कितनी ही मूर्तियाँ हैं। अतएव यह गुफा-मन्दिर शैव और वैष्णव, दोनों प्रकार के, मन्दिरों का मिश्रण है। इसका मण्डप ३१ फ़ुट चौड़ा, २६ फ़ुट गहरा और १० १/२ फ़ुट ऊँचा है। इसमे एक खण्डित शिलालेख है। इस लेख में [ २६ ]
राष्ट्रकूट-वंशीय ६ राजो के नाम पाये जाते हैं। राष्ट्रकूटों ने ६०० से लेकर १००० ईसवी तक दक्षिण में राज्य किया। इस लेख मे जिन नरेशो के नाम हैं वे ये हैं-


१ दान्तिवर्मा
२ इन्द्रराज, प्रथम
३ गोविन्दराज, प्रथम (६५०-६७५ ई० )
४ कर्कराज, प्रथम
५ इन्द्रराज, द्वितीय
६ दान्तिदुर्ग


(६००—६३० ई०)
(६३०—६५० ई०)
(६५०—६७५ ई०)
(६७५—७०० ई०)
(७००—७३० ई०)
(७५३ ईं०)

इस लेख मे कई श्लोक पूरे हैं, और भली भांति पढे जा सकते हैं। इन्द्रराज की प्रशंसा मे एक श्लोक यह है-

विकासि यस्य क्षणदास्वविक्षतं शशाङ्कधामव्यपदेशकारि ।
करोति सम्प्रत्यपि निर्मलं जगत् प्रसन्नदिड मण्डलमण्डन यशः ॥

यह बहुत ललित और कोमलावृत्ति-वलित पद्य है। इन्द्र- राज के पुत्र गोविन्दराज के वर्णन मे एक श्लोक यह है-

दुर्वारोदारचक्र पृथुतरकटकः क्षमाभृदुन्मूलनेन
ख्यात. शङ्खाङ्कपाणिर्वलिविजयमहाविक्रमावाप्तलक्ष्मी ।
क्षोणीभारावतारी विपममहिपतेस्तस्य सूनुन पोऽभूत्
मान्यो गोविन्दराजो हरिरिव हरिणाक्षीजनप्रार्थनीयः ॥

इन राजो मे दान्तिदुर्ग बड़ा प्रतापो हुआ। उसने अनेक राजोपर विजय पाई । चालुक्य राज वल्लभ तक को उसने परास्त

करके अपना करद बनाया। उसकी प्रशंसा में लिखा है[ २७ ]

दण्डेनैव जिगाय वल्लभबल यः सिन्धुदेशाधिप
काचीशं सकलिङ्गकोशलपति श्रीशैलदेशेश्वरम् ।
शेषान् मालव-लाट-गुर्जरपतीनन्यांश्च नीत्वा वश
यः श्रीवल्लभतामवाप चरणं न्यस्य द्विषा मस्तके ॥

अर्थात् सिन्धु, काञ्चो, कलिङ्ग, कोशल, शैल, मालव, लाट, गुर्जर और चालुक्य आदि सब देशाधिपों के मस्तक पर चरण रखकर वह लक्ष्मी का प्यारा हुआ। दान्तिदुर्ग के अनन्तर उसका चचा कृष्णगज नरराज हुआ। इस कृष्णराज का नाम इसी राष्ट्रकूट-वंशीय कर्कराज राजा के दानपत्र मे आया है। यह दानपत्र इंडियन ऐटिक्वेरी की बारहवों जिल्द मे छपा है। वहाँ पर ये तीन श्लोक यलोरा के विषय मे हैं——

एलापुराचलगतादभुतसन्निवेश
यद्वीक्ष्य विस्मितविमानचरामरेन्द्राः। ।
एतत्स्वयम्भु शिवधाम न कृत्रिमे श्री-
दृष्टेदृशीति सततं बहु चर्चयन्ति ॥
भूयस्तथाविधकृतौ व्यवसायहानि-
रेतन्मया कथमहो कृतमित्यकस्मात् ।
कर्तापि यस्य खलु विस्मयमाप शिल्पी
तन्नामकीर्तनमकार्यत येन राज्ञा ॥
गङ्गाप्रवाह-हिमदीधिति-कालकूटै-
रत्यद्धताभरणकैः कृतमण्डनोऽपि।

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माणिक्य-काञ्चनपुर सरसर्पभूत्या
तत्र स्थितः पुनरभूप्यत येन शम्भुः ॥

भावार्थ——एलापुर के पर्वत पर जो मन्दिर है उसको देख- कर देवों को भी विस्मय होता है। वे उसे स्वयम्भू शिवस्थान समझकर उसकी पूजा करते हैं। क्योंकि कृत्रिम स्थान को ऐसी शोभा कभी नहीं प्राप्त हो सकती ॥ १ ॥ इस प्रकार का मन्दिर फिर बनाने में व्यवसाय की हानिमात्र है, मैं खुद नही जान सकता कि ऐसी अदभुत इमारत मैंने कैसे बनाई ?'——इस प्रकार, जिस मन्दिर के बनानेवाले कारीगर को भी आश्चर्य हुआ उसका नाम-कीर्तन उस (कृष्णराज) राजा ने कराया।।२।। गङ्गा, चन्द्रमा और कालकूट-रूपी अद्भुत आभूषां से आभूपित होने पर भी, उस मन्दिर में प्रतिष्ठित शम्भु को उस राजा ने माणिक्य और सुवर्ण आदि के विभूषणो से पुनर्वार विभूषित किया ॥३॥

यह एलापुर यलोरा ही है। इसके पास एक प्राचीन नगर के चिह्न अब तक पाये जाते हैं। वह पुराना नगर नष्ट हो गया। इस समय का यलोरा ग्राम यद्यपि पुराने नाम का अपभ्रंश है, तथापि वह एलापुर नहीं है।

दशावतार मे कोई लेख ऐसा नहीं है जिससे इसका पता लगे कि कब और किसने उसे बनाया। यह मन्दिर आठवी शताब्दी के आरम्भ का बना हुआ जान पड़ता है, और, सम्भव है, दान्तिदुर्ग ही ने इसे भी निर्माण कराया हो। क्योंकि
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उसी के अनन्तर होनेवाले कृष्णराज ने उसमे प्रतिष्ठित शिव- मूर्ति को फिर से अलङ्कत किया। पूर्वोक्त श्लोकों मे जो शिवमन्दिर की प्रशंसा है वह कैलाश नामक मन्दिर के लिए अधिक उपयुक्त है, दशावतार के लिए नहीं, क्योंकि कैलाश ही सबसे बड़ा मन्दिर है। नही मालूम, यह शिलालेख दशावतार पर कैसे आया।

दशावतार की मूर्तियाँ अवलोकनीय हैं। इस मन्दिर का एक भाग केवल विष्णु के अवतारों के लिए रक्खा गया है। उसमे पहले कृष्ण की मूर्ति है। उसके छः हाथ हैं, उन पर गोवर्द्धन रक्खा है; नीचे गो, गोप और गोपियाँ खड़ी हैं। फिर शेष पर नारायण की मूर्ति है। उसके आगे गरुड़ पर विष्णु, पृथ्वी को लिये हुए वराह, याचक के वेष में वामन; हिरण्यकशिपु को हनन करते हुए नृसिह है। द्वार पर विशाल-काय द्वारपाल हैं। मन्दिर के दूसरे भाग में शिव का साम्राज्य है। वहाँ पर, कही काली के ऊपर खड़े हुए भैरव दर्शकों को भयभीत कर रहे हैं; कही अपने विकटाकार गणों को लिये हुए अष्टभुज त्रिलोचन ताण्डव मे निमग्न हैं; कही शान्तिमूर्ति शिव पार्वती के साथ चौपड़ खेल रहे हैं; कहीं कैलाश-समेत शिव और पार्वती को उठा ले जाने के लिए लड्के- 'श्वर रावण को यत्न करते देख नन्दी, भृङ्गी आदि गण उसका उपहास कर रहे हैं; और कहीं सदाशिवजी मार्कण्डेय पर अपना वरद हस्त रखकर यमराज को त्रिशूल की नोक दिखा
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रहे हैं। तीसरी तरफ़ लक्ष्मी की एक मूर्ति है; उस पर चार हाथी जलाभिषेक कर रहे हैं। चार पुतलियों के ऊपर कमलासन है; उसी पर लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित है। चार शरीर-रक्षक प्रतिमा के सामने खड़े हैं। वे सब शस्त्रो से सज्जित हैं; और कलश, शङ्ख, चक्र और कमल भी लिये हुए हैं। पास ही विष्णु की एक मूर्ति है, त्रिशूल और कमल हाथ मे है; एक विशाल पक्षी मूर्ति के दाहिने हाथ से कुछ खा रहा है; वाई तरफ़ एक खर्वाकार बौना खड़ा है। चौथी तरफ़, फिर शिव की एक मूर्ति है, जिसके दोनों ओर से ज्वाला निकल रही हैं। पास ही विष्णु हैं, वे शिव की पूजा कर रहे हैं । ब्रह्मा भी वही हैं; वे ऊपर उडकर शिव के शीश का पता लगाने का यन कर रहे हैं। वराह भी वही हैं। वे मूर्ति के नीचे पृथ्वी खोदकर उसके निचले भाग का पता लगाना चाहते हैं। यह दृश्य एक पौरा- णिक प्रसङ्ग का सूचक है। महिम्न के “तवैश्वर्य यत्नाद्यदुपरि विरिञ्चो हरिरधः" इस श्लोक मे इसी दृश्य का उल्लेख है।

दशावतार भी पहाड़ को काटकर उसके भीतर बनाया गया है। उसकी छत और खम्भो पर आश्चर्यकारक काम है। खम्भे बहुत बड़े और मोटे हैं, उन पर बारीक बेल-बूटे कढ़े हुए हैं; और अनेक छोटी-बड़ी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं। उनको चित्र में देखकर ही चित्त विस्मित होता है, प्रत्यक्ष देखने पर देखनेवालों के मन मे क्या भाव उदित होगा, यह देखने ही से जाना जा सकता है।
[ ३१ ]यलोरा में जितने गुफा-मन्दिर हैं-बौद्ध, जैन और हिन्दू— सबमे कैलाश प्रधान है। दक्षिण मे पट्टदकल नामक एक प्राचीन स्थान है। उसमे "विरूपाक्ष' नाम का एक पुराना मन्दिर है। यह मन्दिर चालुक्य-वंशोय दूसरे विक्रमादित्य राजा की रानी ने, ७३० ईसवी के लगभग, बनवाया था। कैलाश मन्दिर विरूपाक्ष से बहुत कुछ मिलता है। इस बात से, तथा कैलाश में जो एक शिलालेख का टूटा हुआ टुकड़ा मिला है उससे, यह अनुमान किया जाता है कि ७३०-७५५ ईसवी में, यह मन्दिर राष्ट्रकूट ( राठोड़ ) वंशीय राजा दान्ति- दुर्ग के राज्यकाल मे बना था। सम्भव है, दान्तिदुर्ग ह यह मन्दिर अपनी प्रकाण्डता और अपने प्रकाण्डता और अपने अद्भुत शिल्प-कर्म के लिए, भरतखण्ड भर मे, सब प्राचीन इमारतो में प्रधान है। इसका केवल भीतरी भाग ही पर्वत काटकर नहीं बनाया गया, किन्तु बाहरी भाग भी। पर्वतीय चट्टान का एक प्रचण्ड भाग काटकर पहले अलग कर दिया गया है। फिर उस अलग किये गये प्रस्तर-समूह को भीतर और बाहर तराशकर उसी का मन्दिर बनाया गया है। पहाड़ से एक हाथ भर का सुडौल टुकड़ा काटने में कितना श्रम और कितनी कुशलता दरकार होती है, फिर मण्डप- मण्डित और अनेक शिखरधारी एक विशाल मन्दिर को, पत्थर तराशकर, खड़ा कर देना कितने श्रम, कितने व्यय और कितनी कारीगरी का काम है, यह विचार करने पर
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आतङ्क से चित्त की अजब हालत होती है। कैलाश का भीतरी भाग नाना प्रकार के रङ्गीन चित्रों से चित्रित है, बाहर भी कही-कही वैसे ही चित्र हैं। ये चित्र यद्यपि अब बुरी अवस्था मे हैं, तथापि अभी तक वे ऐसे हैं कि उनको देखकर भारत की चित्रविद्या का थोड़ा-बहुत सजीव चित्र देखने को मिलता है। पत्थर मे खुदाई का काम तो, इसमे, सभी कहीं है,——भीतर भो और बाहर भी——और ऐसा उत्तम है कि उसे देखकर बड़े-बड़े विलायती कारीगरो की अक्ल काम नही करती। जिस प्राङ्गण मे कैलाश का मन्दिर बना है उसकी लम्बाई २७६ फुट और चौड़ाई १५४ फुट है।

कैलाश के चार खण्ड हैं। मन्दिर मे कई लम्बे-लम्बे कमरे हैं, जिनमे अनगिनत मूर्तियाँ हैं। इसके शिखर एक के ऊपर एक, दूर तक, चले गये हैं। छत और खिड़कियों मे ऐसा काम किया हुआ है कि देखते ही बनता है; उसका यथार्थ वर्णन सर्वथा असम्भव है। इसके प्रकाण्ड स्तम्भ ऐसे मनोमोहक बेल-बूटों से सुसज्जित हैं कि उन्हे देखकर उनके मनुष्यकृत होने मे शङ्का होती है। गोपुर के ऊपर शिला- निर्मित महाभयानक सिह अपने बनानेवाले शिल्पियों के शिल्पचातुर्य की पराकाष्ठा प्रकट करते हैं।

इस मन्दिर मे पौराणिक दृश्यों की बहुत ही अधिकता है। उनके शतांश का भी वर्णन इस छोटे से लेख मे नहीं आ सकता। प्रायः कोई भी पौराणिक दृश्य ऐसा नहीं जिसका
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चित्र इसमे न हो। दुर्गा, काली, लक्ष्मी, सरस्वती, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, देव, दैत्य, ऋषि, गन्धर्व, अप्सराये सभी कुछ इसमे है। मन्दिर के एक भाग मे, एक जगह, सिहवाहिनी चण्डिका महिषासुर का मर्दन कर रही है। पास ही नन्दी पर आरूढ़ महादेव हैं; ऊपर दिग्पाल, देवता और गन्धर्व आनन्द-पुलकित होकर पुष्पवर्षा कर रहे हैं। दूसरी जगह चतुर्भुज कृष्ण कालीय की फणा पर पैर रक्खे हुए, उसकी पूंछ को पकड़कर खींच रहे हैं। तीसरी जगह नागराज को पैर से दबाये हुए शङ्ख, चक्र प्रादि आयुधधारी वराह पृथ्वी को उठा रहे हैं। कहीं त्रिविक्रम हैं; कही नृसिह हैं, कही शेष- शायी विष्णु हैं। मन्दिर के दूसरे भाग मे शिव की कोई २० प्रकार की मूर्तियाँ भिन्न-भिन्न दृश्यों की व्यजक हैं। कहीं त्रिशूलधारी काल-भैरव पार्वती को लिये हुए खड़े हैं; कहीं षड्भुज सदाशिव त्रिपुरासुर से युद्ध की तैयारी कर रहे हैं; कही धूर्जटि हर, जटा फटकारे, डमरू, त्रिशूल और भिक्षा-पान लिये हुए, सम्मुख अम्बिका की ओर देख रहे हैं; कहों अर्द्ध- नारीश्वर नर-नारियों को दर्शन दे रहे हैं। नन्दी की अनेक प्रतिमायें हैं; कितनी ही शिव-मूर्तियों के पास नन्दीजी विराज- मान हैं। परन्तु मन्दिर के सामने नन्दि-मण्डप के भीतर जो नन्दी की मूर्ति है वह सबसे अच्छी और सबसे बड़ी है। कही-कहीं भृङ्गो आदि और भी गण हैं। ब्रह्मा और वीरभद्र की कई प्रतिमायें हैं।
[ ३४ ]इस मन्दिर के शिखरों पर और बाहर भी अनेक मनो-मोहिनी मूर्तियाँ हैं। किसी-किसी जगह के मूर्ति-समुदाय का दृश्य बहुत ही चित्ताकर्पक है। इसमे युद्ध के भी दृश्य हैं। उनमे से कुछ इतने अच्छे हैं कि उनका फोटोग्राफ लेकर लोगों ने अपने पास रक्खा है। जीव-जन्तुओ की भी मूर्तियाँ कैलाश मे बहुत हैं। कितने ही सिंह और हाथी भारत की १२०० वर्ष की पुरानी शिल्पकला के उत्कर्ष का स्मरण करा रहे हैं। मन्दिर के गोपुर के ऊपर जो खर्वाकार बैानों की मूर्तियाँ, शङ्ख बजाते हुए, बनाई गई हैं वे बड़ी ही कौतुकावह हैं।

कैलाश के पास ही लकेश्वर नामक मन्दिर है। बर्व्यस साहब ने इसके खम्भों की बड़ी बड़ाई की है। वे उनको बहुत सुन्दर और बहुत मज़बूत बतलाते हैं। उनके चित्र से भी यह बात साबित होती है। इस मन्दिर की कोई-कोई मूर्तियाँ कैलाश की मूर्तियों की भी अपेक्षा अधिक सुन्दर हैं। उनके गढ़ने मे शिल्पियों ने अपने कौशल की सीमा का अन्त कर दिया है। बड़ी सूक्ष्मता और सफ़ाई के साथ वे निर्मित हुई हैं। शङ्कर का ताण्डव-नृत्य, वराह का पृथ्वी-उत्तोलन, पुत्र और पत्नी-युग्म के साथ सूर्य का उदय——ये सब दृश्य बहुत ही अवलोकनीय हैं । उमा और गङ्गा, तथा ब्रह्मा और विष्णु आदि की भी बहुत सी मूर्तियाँ इसमे हैं। खेद है, मुसलमानो ने इस मन्दिर को कई जगह छिन्न-भिन्न कर डाला है।
[ ३५ ]रामेश्वर नामक गुफा-मन्दिर इसलिए प्रसिद्ध है कि उसके अग्र-भाग में बहुत बड़ी कारीगरी की गई है। वहाँ पर जो काम है, यलोरा के समग्र मन्दिर-समुदाय से अच्छा है। इसके चारों ओर अनेक प्रकार के पशुओं की जो मूर्तियाँ हैं उनमे हाथियों की प्रधानता है। चामुण्डा, इन्द्राणो, वाराही, लक्ष्मी, कौमारी, माहेश्वरी और ब्राह्मी इन सप्त मातृकाप्रो की मूर्तियाँ इस मन्दिर में देखने लायक हैं। इनके सिवाय कार्ति- केय, गणेश और महाकाल आदि की भी प्रतिमाओं ने रामे- श्वर की शोभा बढाई है।

रामेश्वर के पास ही नीलकण्ठ का मन्दिर है। सप्तमातृका, गणपति, शिव और गङ्गा की मूर्तियाँ इसमे प्रधान हैं। इसका नन्दि-मण्डप कुछ उजाड़ दशा में है।

सूरेश्वर-मन्दिर का दूसरा नाम कुम्हार-वाड़ा है। यह मन्दिर बड़ा है। इसमे कई दालाने हैं। इसमे रथारूढ़ सूर्य की एक विशाल मूर्ति है। इसी से इसका नाम सूरेश्वर है। सूर्य का एक नाम सूर भी है। इसके खम्भों मे ब्रैकेट भी हैं। इन ब्रैकेटों के सामने एक पुरुष और एक स्त्री की उड़ती हुई प्रतिमायें हैं।

धुमार लेन अथवा सीता की चावड़ी यलोरा के हिन्दू- मन्दिरों में सबसे अन्तिम मन्दिर है। इसके भीतर विशाल खम्भों को देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। उत्तर की ओर यह छोर मे है। यलिफंटा टापू, जो बम्बई के पास है, वहाँ
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भी एक गुफा-मन्दिर ऐसा ही है। जान पड़ता है, यह उसकी नकल है। यह बहुत बड़ा मन्दिर है। यह १४८ फुट चौड़ा और १४९ फुट गहरा है। इसमे और-और पौराणिक दृश्यों के सिवा शिव-पार्वती के विवाह का दृश्य विशेष वर्णनीय है। उमा और महेश्वर बाये हाथ मे कमल-पुष्प लिये हुए विवाहमण्डप में बैठे हैं। कुछ नीचे, दाहिनी तरफ, घुटना टेके हुए त्रिशिरा ब्रह्मा, अग्नि के पास, पुरोहित का काम कर रहे हैं। फूल और नारियल लिये हुए, बाई तरफ़, मेना और हिमवान् कन्या- दान के लिए प्रस्तुत हैं। ऊपर की ओर देवी और देवता मण्डप को सुशोभित कर रहे हैं। विष्णु गरुड पर हैं, यम भैंसे पर हैं; वायु हिरन पर हैं, अग्नि बकरे पर हैं। दाहिनी तरफ़ ऐरावत पर इन्द्र और मकर पर निऋति हैं।

इस मन्दिर में वीरभद्र की एक मूर्ति बहुत ही विशाल और भयावनी है।

[जनवरी-फरवरी १९०४


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