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प्राचीन चिह्न/क़ुतुब-मीनार

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प्रयाग: इंडियन प्रेस लिमिटेड, पृष्ठ ९६ से – १०३ तक

 
१०——क़ुतुब-मीनार

देहली का प्रसिद्ध कुतुब-मीनार पृथ्वीराज का बनाया हुआ है या कुतुबुद्दीन ऐबक का, इसके निश्चय की आवश्य- कता है। देहली मे हमने इस मीनार को स्वयं देखा है और जिन लोगो ने इसके विषय मे लिखा है उनके लेख भी, जहाँ तक हमको मिल सके, हमने पढे हैं।

सर सैयद अहमद खॉ ने आसारुस्सनादीद नाम की एक किताब लिखी है। उसमे उन्होने देहली की प्राचीन इमारतों और वहाँ के प्राचीन शिलालेखो का वर्णन किया है। सैयद साहब का मत है कि यह मीनार आदि मे हिन्दुओ का था। इस विषय में एशियाटिक सोसाइटी के जरनल मे भी कई विद्वानों ने कई लेख लिखे हैं। परन्तु पुरातत्त्व के सम्बन्ध मे जनरल कनिहम की सम्मति बहुत प्रामाण्य मानी जाती है। उन्होंने “आरकिओलाजिकल रिपोर्ट सू” के पहले भाग में कुतुब-मीनार से हिन्दुओं का कोई सम्बन्ध न बतलाकर उसे खालिस मुसलमानी इमारत बतलाई है। इसके सिवा यडवर्ड टामस ने अपनी “पठान किगज़ माफ़ देहली" नाम की किताब में जनरल कनिहम के मत को पुष्ट किया है। टामस साहब बंगाल, लंदन और पेरिस की एशियाटिक सोसाइटी के सभासद थे। उन्होने पुरातत्व-सम्बन्धी सैकड़ों निबन्ध इन सोसाइटियों

के जरनलो मे प्रकाशित किये हैं। कई पुस्तकें भी इन विषयों पर उन्होंने लिखी हैं। देहली के पठान बादशाहों पर जो किताब उन्होंने लिखी है वह ऐतिहासिक तत्वों से भरी हुई है। टामस साहब की विद्वत्ता, गवेषणा और श्रम का विचार करके आश्चर्य होता है। कुतुब मीनार के विषय मे उन्होंने जो मत प्रकाशित किया है उसे हम थोडे मे यहाँ पर लिखते हैं।

पृथ्वीराज का पराभव करनेवाले और उसके साथ ही हिन्दू- साम्राज्य का सर्वदा के लिए अन्त करनेवाले मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम के नाम से पाठक अवश्य ही परिचित होंगे। वह गोर देश से यहाँ आया था। इसलिए यहाँ वह मुहम्मद गोरी के नाम से अधिक प्रसिद्ध है। कुतुब मीनार के नीचे के खण्ड में कई लेख हैं जिनमे उसका नाम है। उनमे से एक यह है——

raulou donlaedij sauthaaediateluJi Jale unblushothlaw asawludisplay prus plan or dosto yoladhai orat Laadline _allosbiado MNJal

अक्षरान्तर——

अस्सुल्तानुल्मुअज्जम, शहनशाहउलाजम, मालिके रका- वुल-उमम, मौलाये मलूकुल अरब व उल-अजम, सुल्तानुस्सला- तीन फ़िल आलम, गयासुदुनिया व दोन x x x x अवुल्मुजफ्फर मुहम्मद विन साम कसीम अमीरुल्मोमनीन खुल्द अल्लाह मुल्कहू।
इस अवतरण मे जहाँ पर हमने तारकाकार चिह्न दिये हैं वहाँ की कई पंक्तियाँ हमने छोड़ दी हैं मुहम्मद बिन साम की प्रशंसा मे अपूर्व-अपूर्व विशेषणवाली वैसी ही उपाधियाँ हैं जैसी कि इन पक्तियों में हैं। "आप इस समय दुनिया भर के सुल्तानो के सुल्तान हैं; आप दीन और दुनिया दोनो के दीपक हैं, आप अरब और अजम के भी मालिक हैं। इसी प्रकार की तारीफ़ उनमे भरी है। मुहम्मद बिन साम के नाम और उसकी प्रशंसा को छोड़कर उसमे यह नहीं लिखा कि क्यों और किस प्रकार यह मीनार बनाया गया।

कुतुब मीनार के पास ही कुतुबुद्दीन की जो मसजिद है उसके पूर्वो दरवाज़े के नीचे जो लेख है उसकी दूसरी पंक्ति देखिए-

ادن حصار را سم کرد و اس سکن حامع راد ساحت تیار دح تی سور سم سبح و سمادین و خععسنانت امبر اسعه سالار احل کمتر یس لد راندتن اش الامرا اسک سلطایسن اعدالاه 1 و دست و ققت ن سعاده_ که در هر بیکاده ده بار هرار دلموال صرت سدة دوث فردی‌مسکن دکار دسبه سدهة است حد‌ای عروحل د دران تندهة رحمت کباد هر که در دیت دابی حبر دعادهد ادمان اتید

— سج»چه

अक्षरान्तर——

ई हिसार रा फ़तेह कर्द व ई मसजिद जामै रा बिसाख्त ब-तारीख़ फी शहूर सन सबाआ व समानीन व खमसमायत
अमीर असफेहसालार अजल कबीर कुतुबुद्दौला व दीन अमीरुल्उ मरा ऐबके सुल्तानी आजुल्ला इन्सारहू। व विस्त व हफ्त आलते बुतखाना के दर हर बुतख़ाना दो बार हज़ार दिलेवाल सर्फ शुदा बूद दरी मसजिद बकार वस्ता शुदा अस्त । खोदाये अज़ व जल बरॉ बन्दा रहमत कुनाद हरके बरनीयते बानी खैरदोआये ईमान गोयद ।

भावार्थ——

दीन और दौलत के केन्द्र, अमीरो के अमीर, सुल्तान ऐबक ने, ५८७ हिजरी ( ११९१ ई०) में इस किले को जीता और इस जामे मसजिद को बनवाया। इस मसजिद की इमा- रत मे २७ मन्दिर तोड़कर उनका माल-मसाला काम मे लाया गया है। इन मन्दिरो में एक-एक मन्दिर के बनवाने मे बीस- बीस लाख दिलेवाल ( एक प्रकार का सिक्का ) खर्च हुए थे। जिसने इसकी नीव डाली है, अर्थात् जिसने इसे बनवाया है, उसे जो आशीर्वाद देगा उसका ईश्वर कल्याण करेगा।

मुहम्मद बिन साम ने पृथ्वीराज से पहले हार खाई थी। जब उसने पृथ्वीराज पर विजय प्राप्ति की और उससे देहली का सिहासन छीन लिया तब उसे परमावधि का आनन्द हुआ। इस विजय के उपलक्ष्य मे उसने यह मीनार बनवाया। देहली विजय करके वह स्वदेश को लौट गया और यहॉ पर कुतुबुद्दीन को गवर्नर बनाकर छोड गया। कुतुबुहीन ने यह मीनार अपने मालिक के विजय की यादगार में बनवाया और उसका

नाम, कई जगहो पर, उसकी प्रशंसापूर्ण उपाधियों के साथ, इस पर खुदवाया। यह मीनार कुतुबुद्दीन ही ने बनवाया; इसलिए वह उसी के नाम से प्रसिद्ध है, मुहम्मद विन साम के नाम से नहीं। १८६२-६३ की आरकिरोलाजिकल रिपोर्ट मे जेनरल कनिहम ने जो यह सिद्धान्त निकाला है कि यह स्वतन्त्र मुसलमानी इमारत है, पृथ्वीराज अथवा किसी और की प्राचीन इमारत पर या उसको तोडकर, यह नही बनाई गई, वह बहुत ठीक है। यह मीनार और इसके पास ही कुतुब ,की मसजिद दोनों एक ही समय की इमारते हैं। ये दोनों ५८७ हिजरी अर्थात् ११९१ ईसवी की, अथवा वर्ष छः महीने इधर-उधर की, हैं। और इसी साल, अर्थात् ११९१ ईसवी मे, देहली जीती गई थी। यदि किसी प्राचीन इमारत को तोडकर यह मीनार बनाया जाता तो इस पर भी वैसी ही शेखी से भरे हुए वाक्य पाये जाते जैसे कुतुब की मसजिद पर हैं। कोई कारण नही जान पड़ता कि २७ मन्दिरों को तोड- कर मसजिद बनाने की बात तो लिखी जाय और ऐसे विशाल विजय-स्तम्भ पर, वही की प्राचीन हिन्दू-लाट, मकान या महल के तोड़े जाने की बात न रहे। उस समय, हिन्दुओ के प्राचीन स्थानों को तोड़कर, जो इमारते मुसलमान बादशाह बनवाते थे उन पर, उन प्राचीन स्थानो के जाज्वल्यमान चिह्नो के साथ, उस विषय का लेख भी वे वहाँ खुदवा देते थे। इस बात का प्रमाण, कुतुब की मसजिद के सिवा ढाई दिन के झोपड़े

के नाम से प्रसिद्धि पानेवाली अजमेर की मसजिद भी है । वहाँ पर प्राचीन मूर्तियों और प्राचीन मन्दिरों के निशान प्रत्यक्ष देख पडते हैं। यह मसजिद भी मुइज्जुद्दीन मुहम्मद बिन साम. ही के शासन-काल मे बनी थी। इस पर जो लेख है उसे कर्नल लीज़ ने प्रकाशित किया है। उसमे साफ लिखा है कि मन्दिरों को तोड़कर यह मसजिद बनवाई गई। “ताजुल- मासिर" नाम के इतिहास में भी यह बात स्पष्ट लिखी है। अतएव यदि किसी पुरानी इमारत को तोड़कर यह मीनार बनाया जाता तो इस बात का उल्लेख अवश्य ही इस पर होता। इसके लेख, जिनमे मुहम्मद बिन साम का नाम है, इस बात की गवाही दे रहे हैं कि यह उसी का विजयस्तम्भ है ; उसी के नाम से कुतुबुद्दीन ने बनवाया; और नया ही बनवाया। कुतुब- मीनार के नीचे के खण्ड मे एक लेख था जो अब बहुत घिस गया है, परन्तु “कुतुबुद्दीन असफेहसालार" का नाम उसमे अभी तक पढ़ा जाता है। इस लेख मे शायद कुतुबुद्दीन के द्वारा मीनार के बनाये जाने का स्पष्ट उल्लेख रहा हो।

फ़ीरोज़शाह के समय मे इस मीनार पर बिजली गिरी थी। उसके गिरने से इसके दो खण्ड बिगड़ गये थे। इन दो खण्डो की मरम्मत फीरोज़शाह ने कराई। मरम्मत क्या, उनको नये सिरे से उसने बनवाया। इस विषय का लेख उस मीनार के पाँचवे खण्ड मे है। यह ७७० हिजरी का, अर्थात् मीनार बनने के कोई १८३ वर्ष पीछे का, है। इसे हम नीचे देते हैं——

دری منارہ سن سبائی اور صبامیا بی افات برک کھل رہ یفتہ بود۔ باتوفیق ربانی بار کاشیدہ عنایت سبحانی فیروز سلطانی ای مکم را بیاتیات تمام عمارتیں خادک خالق بیچیں می مخم را اج جامعہ افطار مساعون داراد

अक्षरान्तर––

दरी मनारह सन सबई व सबअमाया ब आफ़त बर्क़ ख़लल राह याफ़्ता बूद। बतौफ़ीक रब्बानी बर कशीदा इनायत सुभानी फ़ीरोज़ सुल्तानी ई मुकाम रा बयहतियात तमाम इमारत कर्द ख़ालिक बेचूँ ईं मुकाम रा अज जमीय आफ़ात मसयून दाराद।

भावार्थ––

७७० हिजरी में इस पर बिजली गिरी। फीरोजशाह ने इसकी मरम्मत कराई। ईश्वर इस स्थान को आफ़तों से बचावे।

फ़ीरोज़शाह ने अपना संक्षिप्त जीवनचरित अपने ही हाथ से लिखा है। उसका नाम है "फ़तूहाते फीरोज़शाही"। सर एच॰ यलियट ने अपनी "हिस्टोरियन्स" (Historians) नाम की किताब के तीसरे भाग में उसका पूरा अनुवाद दिया है। इस आत्मचरित में फ़ीरोज़शाह ने एक जगह, इस प्रकार, लिखा है––

و منارہ سلطان معیزالدین سما را کی از ھداسائی برک اپٹڈا بوڈ بیٹر ایز انکی بوونڈ اریزتی قدیمی بلینڈ ٹیر مرمت کاردا شود۔

अक्षरान्तर——

व मनारह सुल्तान मुइज्जुद्दीन साम रा के अज़ हादसै बर्क उपतादा बूद बेहतर अज़ ऑकि बूद अज़ इरतिफ़ाय कदीमी बलन्द तर मरम्मत कर्दा शुद।

अर्थात——

मुइज्जुद्दीन साम का मीनार, जो बिजली से गिर पडा था, पहले से भी अधिक ऊँचा मरम्मत किया गया।

मीनार बनने के डेढ़ ही दो सौ वर्ष पीछे होनेवाला फीरोजशाह उसे मुहम्मद बिन साम का मीनार बतलाता है। यदि पृथ्वीराज ने उसे अपनी लड़की के यमुना-दर्शन के लिए बनवाया होता तो फ़ीरोज़शाह अपने आत्म-चरित में मुहम्मद बिन साम का नाम क्यों लिखता ?

इन बातो से तो यही सिद्ध होता है कि देहली विजय के उपलक्ष्य मे मुहम्मद बिन साम के नाम से इसे कुतुबुद्दीन ऐबक ही ने बनवाया। सम्भव है, पृथ्वीराज की कोई इमारत वहाँ पहले रही हो और उसी पर या उसको तोड़कर यह मीनार बनाया गया हो; परन्तु इस बात को सिद्ध करने के लिए प्रमाण दरकार है।

[दिसम्बर १९०३

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