प्राचीन चिह्न/श्रीरङ्गजी का मन्दिर
मदरास-प्रान्त में त्रिचनापल्ली नामक एक प्रसिद्ध नगर,कावेरी-नदी के तट पर, बसा हुआ है। नदी के उस पार, लगभग एक मील की दूरी पर, उत्तर-पश्चिम की ओर, ओरङ्गजी का एक विशाल और बहुत प्राचीन मन्दिर है। यह मन्दिर ,भारत के प्रसिद्ध मंदिरों में से है। यह इतना बड़ा है कि भारत का सबसे बड़ा मन्दिर कहा जा सकता है। मन्दिर ही के कारण नदी के उस पार आबादी भी बहुत बढ़ गई है। इस आबादी ने अब एक छोटे से नगर का रूप धारण किया है। इसका नाम भी मन्दिर के नामानुसार श्रीरङ्गम पड़ गया है। त्रिचनापल्लो और श्रीरङ्गम के बीच में, कावेरी-नदी के ऊपर, बत्तीस मिहराबो का एक पुल बना हुआ है। उसी पर से होकर यात्री लोग श्रीरङ्गजी के दर्शन करने जाते हैं।
मन्दिर, अर्थात् देवस्थान, एक-एक करके सात परकोटो के भीतर है। सबसे बाहर का कोट लगभग २,८८० फीट लम्बा और २,४७५ फीट चौड़ा है। उसमें पक्की सड़के बनी हुई हैं और एक बाज़ार भी है। इस कोट में, दक्षिण की ओर,
एक बड़ा फाटक है जो ४८ फ़ीट ऊँचा और १०० फीट चौड़ा
है। इसी फाटक से लोग त्रिचनापल्ली आते-जाते हैं। फाटक
में कई बड़ी-बड़ी शिलाये सीधी खडी हैं। उनमे से कोई-कोई
४० फीट से भी अधिक ऊँची है। उनसे बहुत करके फाटक
बनाने में सहायता ली गई होगी। फाटक की छत में भी बडी-बड़ी शिलाये लगी हैं। फाटक की छत पर चढ़ने से बाहरी कोट और उसके अन्तर्गत सब बाग-बागीचे और घर आदि का सारा दृश्य नेत्रों के सम्मुख आ जाता है। फाटक से थोड़ी ही दूर पर कावेरी-नदी की एक शाखा बहती है। इस कोट मे कुछ आबादी भी है।
सातवे कोट के भीतर छठा कोट है और छठे के भीतर पाँचवॉ। इसी प्रकार सब एक दूसरे के भीतर हैं। अन्त के कोट में श्रीरङ्गजी का मन्दिर है। इन सब कोटों में एक खास बात यह है कि प्रत्येक भीतरी कोट की इमारतें अपने-अपने बाहरी कोटो की इमारतों से आकार मे छोटी होती चली गई है।
छठे कोट में मन्दिर के पुजारी और कुछ अन्य ब्राह्मण रहते हैं। इस कोट में दो बड़े गोपुर पूर्व में, दो छोटे पश्चिम में, और तीन मझोले दक्षिण में बने हुए हैं। सब गोपुरों की छतो में रङ्गीन चित्रकारी है। उनका रङ्ग अभी तक ज्यों का त्यों बना हुआ है। ये चित्र देवी-देवताओं के हैं। चित्रों में उपासक लोग उपासना करते हुए भी दिखलाये गये हैं।
पॉचवे कोट में केवल ब्राह्मणों की आबादी है। चौथे में
बहुत से बड़े-बड़े मण्डप हैं। एक मण्डप में मूर्तियों के बहु-मूल्य आभूषण रक्खे रहते हैं। इन आभूषणों में बहुमूल्य
रत्न जड़े हुए हैं, जिनकी कीमत कोई एक लाख रुपये से कम न होगी। एक मण्डप हज़ार खम्भे का मण्डप कहलाता है;
परन्तु उसमे इस समय केवल ९९० खम्भे हैं। इस मण्डप
में ६० कतारें हैं और हर कतार मे सोलह-सोलह खम्भे हैं।
प्रत्येक खम्भा १८ फ़ीट ऊँचा है। हर खम्भे में चित्र बने हुए
हैं। चित्र सवारों के हैं। मालूम होता है, मानो सवार
अपने घोड़ों को आखेट-सम्बन्धी परिश्रम के अभ्यासी बनने की
शिक्षा दे रहा है। इसी कोट में, उत्तर की ओर, एक बड़ा
गोपुर है, जो १५२ फ़ीट ऊँचा है। इस गोपुर के नीचे, रास्ते
में, एक पत्थर है जिस पर कनारी-भाषा में एक लेख खुदा हुआ
है। यह गोपुर टूटा-फूटा है। इसके ऊपर दो ही चार आदमी चढ़ने से यह हिलने लगता है।
तीसरे कोट में कोई ख़ास बात नहीं। दूसरे कोट में बहुत सी देवी-देवताओं की मूर्तियाँ हैं।
पहले अर्थात् सबसे भीतरवाले कोट में श्रीरङ्गजी का मन्दिर है। मन्दिर का कलश सोने का है। श्रीरङ्गजी की मूर्ति एक कोठरी में स्थापित है। कोठरी के पट नियमित समय पर खुलते हैं। उस समय दर्शकों की बड़ी भीड़ रहती है। प्रत्येक वर्ष, जाड़े के दिनों में, वहाँ एक बड़ा मेला लगता है।
अँगरेज़ इजीनियरों का मत है कि यह मन्दिर अठारहवी शताब्दी के आरम्भ में बनाया गया होगा। यह मन्दिर चाहे जब बना हो, पर यह देवस्थान है बहुत पुराना । क्योकि इसका
उल्लेख मत्स्य और पद्मपुराण, श्रीमद्भागवत, और वाल्मीकि-
रामायण तक में पाया जाता है। बलराम की तीर्थयात्रा के
करण मे श्रीमद्भागवत में लिखा है कि सप्तगोदावरी, पम्पा,
श्रीशैल आदि के दर्शन करके बलरामजी काञ्चो और श्रीराम
के मन्दिर की यात्रा भी करने गये थे——
कामकोष्णी पुरी काञ्चोकावेरीञ्च सरिद्वराम ।
श्रीरङ्गाख्यं महापुण्यं यत्र सन्निहितो हरिः ।।
[फरवरी १६१३
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