प्रियप्रवास/चतुर्थ सर्ग
द्रुतविलम्बित छन्द
विशद - गोकुल - ग्राम समीप ही।
बहु - बसे यक सुन्दर - ग्राम मे।
म्वपरिवार समेत उपेन्द्र मे। ,
नियमते वृपभानु - नरेश थे।।१।।
यह प्रतिष्ठित - गोप सुमेर थे।
अधिक - आहत थे नृप - नन्द से।
ब्रज-धरा इनके धन-मान में।
अवनि मे प्रति - गौरविता रही ।।२।।
यक सुता उनकी अति - दिव्य धी।
रमणि -वन्द - शिरोमणि गधिका ।
सुयश - सौरभ से जिनके सदा।
व्रज - धग बहु - सौरभवान थी ।।३।।
मार्दूलविक्रीडित छन्द
रुपोद्यान प्रफुल्ल - प्राय - कलिका केन्द्र - विम्बानना ।
तन्वगी कल - हासिनी सुरमिका कीड़ा - कला पुत्तली।
शोभा-वारिधि की अमूल्य-मरिण सी लावण्य-लीला-गयी ।
श्रीराधा - मृदुभाषिणी मृगहगी-माधुर्य की मूर्ति थीं ॥४॥
फुले कंज - समान मंजु - दृगता थी मत्तता कारिणी।
मौन मी कमनीय - कान्ति तन की थी नटि उगपिनी ।
राधा की मुमकान की मधुरता धी मुग्धता-मर्ति सी।
काली-कुंचिन - लम्बमान-पलक थी मानमोन्मादिनी ।।५।।
नाना-भाव-विभाव-हाव-कुशला आमोद आपूरिता।
लीला-लोल-कटाक्ष - पात-निपुणा भ्रूभगिमा - पंडिता ।
वादिवादि समोद - वादन : परा आभूपणभूषिता ।
राधा थी सुमुखी विशाल - नयना आनन्द-आन्दोलिता ॥३॥
लाली थी करती सरोज - पग की भूपृष्ठ को भूपिता ।
विम्बा विद्रम को अकान्त करती थी रक्तता ओष्ट की ।
होत्फुल्ल - मुखारविन्द - गरिमा सौदर्यआधार थी ।
राधा की कमनीय कान्त छवि थी कामांगना मोहिनी ॥७॥
सवस्त्रा - सदलकृता गुणयुता - सर्वत्र सम्मानिता ।
रोगी वृद्ध जनोपकारनिरता सच्छास्त्र चिन्तापरा ।
सद्भावातिरता अनन्य:- हृदया सत्प्रेम - संपोपिका ।
राधा थी सुमना प्रसन्नवदना स्त्रीजाति - रत्नोपमा ॥८॥
द्रुतविलंबित छन्द
यह विचित्र - सुता वृपभानु की।
व्रज - विभूपण मे अनुरक्त थी।
सहृदया यह सुन्दर - बालिका।
परम - कृष्ण - समर्पित-चित्त थी॥९॥
ब्रज - धराधिप औ वृपभानु मे ।
अतुलनीय परम्पर - प्रीति थी ।
इसलिए उनका परिवार भी ।
बहु परस्पर प्रेम - निबद्ध था ॥१०॥
जब नितान्त - अबोध मुकुन्द थे ।
विलसते जब केवल अक में ।
वह तभी वृषभानु निकेत मे ।
प्रति समादर साथ गृहीत थे ॥११॥
छविवती - दुहिता वृषभानु की ।
निपट थी जिस काल पयोमुखी ।
वह तभी ब्रज - भूप कुटुम्ब की ।
परम - कौतुक - पुत्तलिका रही ॥१२।।
यह अलौकिक - बालक-बालिका ।
जब हुए कल-क्रीडन-योग्य थे ।
परम - तन्मय हो बहु प्रेम से ।
तव परस्पर थे मिल खेलते ।।१३।।
कलित - क्रीड़न से इनके कभी ।
ललित हो उठना गृह - नन्द का ।
उमड़ सी पडती विधी कभी ।
वर - निकेतन मे वृषभानु के ।।१४।।
जब कभी कल -क्रीडन - सुत्र से ।
चरण - नृपुर श्री कटि-किंकिगी ।
सदन मे बजती अति - मंजु थी ।
किलकनी तब थी कल-वादिता ॥१५॥
युगल का वय माथ सनेह भी ।
निपट-नीरवता सह था बढ़ा ।
फिर यही वर - बाल सनेह ही ।
प्रणय में परिवर्तित था हुआ ॥१६॥
बलवती कुछ थी इतनी हुई ।
कुॅबरि - प्रेम - लता उर - भूमि में ।
शयन भोजन क्या, सब कालही ।
यह बनी रहती छवि - मत्त थी ।।१७।।
वचन की रचना रस से भरी।
प्रिय मुखांबुज की रमणीयता।
उतरती न कभी चित से रही।
सरलता, अतिप्रीति, सुशोलता ॥१८॥
मधुपुरी बलवीर प्रयाण के।
हृदय-शेल-स्वरूप प्रसंग से।
न उबरी यह बेलि विनोद की।
विधि अहो भवदीय विडम्बना॥१९॥
शार्दूलविक्रीड़ित छन्द
काले कुत्सित कीट का कुसुम मे कोई नहीं काम था।
काँटे से कमनीय कज कृति मे क्या है न कोई कमी।
पोरो मे कब ईख की विपुलता है ग्रथियो की भली।
हा! दुर्दैव प्रगल्भते अपटुता तू ने कहाँ की नहीं॥२०॥
द्रुतविलम्बित छन्द
कमल का दल भी हिम-पात से।
दलित हो पड़ता सब काल है।
कल कलानिधि को खल राहु भी।
निगलता करता, बहु क्लान्त है॥२१॥
कुसुम सी सुप्रफुल्लित बालिका।
हृदय भी न रहा सुप्रफुल्ल ही।
वह मलीन सकल्मष हो गया।
प्रिय मुकुन्द प्रवास-प्रसंग से॥२२॥
सुख जहाँ निज दिव्य स्वरूप से।
विलसता करता कल-नृत्य है।
अहह सो अति-सुन्दर सद्म भी।
बच नहीं सकता दुखलेश से॥२३॥
सब सुखाकर श्रीवृषभानुजा ।
सदन-सज्जित-शोभन-स्वर्ग सा ।
तुरत ही दुख के लवलेश से ।
मलिन शोकनिमज्जित हो गया ॥२४॥
जब हुई श्रुति - गोचर सूचना ।
ब्रज धराधिप तात प्रयाण की ।
उस घड़ी ब्रज - वल्लभ प्रेमिका ।
निकट थी प्रथिता. ललिता सखी ॥२५॥
विकसिता-कलिका हिमपात से ।
तुरत ज्यो बनती अति म्लान है ।
सुन प्रसंग मुकुन्द प्रवास का ।
मलिन त्यो वृषभानुसुता हुईं ॥२६॥
नयन से बरसा कर वारि को ।
बन गई पहले बहु बावली ।
निज सखी ललिता मुख देख के ।
दुखकथा फिर यो कहने लगी ॥२७॥
मालिनी छन्द
कल कुवलयो के से नेत्रवाले रसीले ।
वररचिते फेबीले पीत कौशेय शोभी ।
गुणगण मणिमाली मंजुभाषी सजीले ।
वह परम छबीले लाडिले नन्दजी के ॥२८॥
यदि कल मथुरा को प्रात ही जा रहे है ।
विन मुख अवलोके प्राण कैसे रहेगे ।
युग सम घटिकाये बार की बीतती थी ।
सखि! दिवस हमारे बीत कैसे सकेगे ॥२९॥
जन मन कलपाना में बुग जानती हूँ ।
परदुख अवलोके में न होती सुनी हैं ।
कहकर कटु वाने जी न भूले जलाया ।
फिर यह दुखदायी बात मैंने सुनी क्या ? ॥३०॥
अयि सखि! अवलोके खिन्नता तू कहेगी ।
प्रिय स्वजन किसी के क्या न जात कही है ।
पर हृदय न जाने दग्ध क्या हो रहा है ।
सब जगत में है शुन्य होता दिखाना ॥३१॥
यह सकल दिशायें आज रो सी रही हैं ।
यह सदन हमारा, हैं हमे काट खाता ।
मन उचट रहा है चैन पाता नहीं है ।
विजन-विपिन में हैं भागता सा दिखाना ॥३२॥
मदनरत न जाने कौन स्यो है बुलाना ।
गति पलट रही है भाग्य की क्या हमारे ।
उस! कसक समाई जा रही है कहाँ की ।
सखि! हृदय हमारा दग्ध क्यों हो रहा है ।।३३।।
मधुपुर-पति ने है प्यार ही मे बुलाया ।
पर पुशल हमे तो न होती दिखाती ।
प्रिय-बिरह - घटायें घेरती आ रही हैं ।
घहर घहर देखो हैं, कलेजा कांपाती ॥३४।।
हृदयय चरण में तो में चढ़ा ही चुकी हैं ।
सविधि - यग्णु की थी कामना और मेरी ।
पर सफल हमे हो हैं न होती दिखाती ।
वह, कब टलता है भाग्य में जो लिया हैं ॥३५॥
और रह रह किरणें जो फुटती है दिखाई ।
वह मिप उनके व्या ठोश बने हमें हैं ।
कर वह अथवा यो शान्ति का बढ़ाने ।
विपुल - व्यथित जीयो की व्याथा मोचने को ।।४३।।
दुख - अनल - शिखायें व्योम में फूटती है।
यह किस दुनिया का हैं कलेजा जलाती ।
ग्रहह अहह देखो दृटता है न तारा ।
पतन दिलजले के गान का हो रहा है ।।४३।।
चमक चमक तारे धीर देते हमें है।
सखि! मुझ दुखिया की बात भी क्या सुनेंग?
पर - दिन - रात - होए ठौर को जो न छोड़ें ।
निशि विगत न होगी बात मेरी बनेगी ।।४४।।
उदुगण थिर से क्यो हो गये दीखते हैं ।
यह विनय हमारी कान में क्या पड़ी है ?
रह! रह! इनमें क्यो रंग आ जा रहा है ।
कुछ सखि! इनको भी हो रही बेकली है ।।४५।।
सखि! मुख अब तारे क्यो छिपाने लगे है ।
वह दुख लखने की ताव क्या है न लाते ।
परम - विफल होके आपदा टालने मे ।
बह मुख अपना हैं लाज से या छिपात ।।४८॥
क्षितिज निकट कैसी लालिमा दीखती है ।
वह रुधिर रहा है कौन सी कामिनी का ।
विहग विकल हो हो वोलने क्यो लगे है ।
सखि! सकल दिशा मे आग सीक्यो लगी है।।४९।।
सब समझ गई मै काल की क्रूरता को ।
पल पल वह मेरा है कलेजा कॅपाता ।
अब नभ उगलेगा आग का एक गोला । -
सकल-व्रज-धरा को फूँक देता जलाता ॥५०॥
मन्दाक्रान्ता छन्द
हा! हा! ऑखो मम-दुख-दशा देख ली औ न सोची ।
बाते मेरी कमलिनिपते । कान की भी न तू ने ।
जो देवेगा अवनितल को नित्य का सा उजाला ।
तेरा होना उदय व्रज मे तो अँधेरा करेगा ।।५१।।
नाना बाते दुख शमन को प्यार से थी सुनाती ।
धीरे धीरे नयन - जल थी पोछती राधिका का ।
हा! हा! प्यारी दुखित मत हो यो कभी थी सुनाती ।
रोती रोती विकल ललिता, आप होती कभी थी ॥५२॥
सूखा जाता कमल - मुख था होठ नीला हुआ था ।
दोनो ऑखे विपुल जल मे डूबती जा रही थी ।
शंकाये थी विकल करती कॉपता था कलेजा ।
खिन्ना दीना परम - मलिना उन्मना राधिका थी ।।५२।।
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