प्रियप्रवास/सप्तदश सर्ग

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प्रियप्रवास  (1914) 
द्वारा अयोध्या सिंह उपाध्याय 'हरिऔध'
[ ३३२ ]

जो होती थी गगन - तल मे उत्थिता धूलि यों ही ।
तो आशंका - विवश बनते लोग थे बावले से ।
जो टापे हो ध्वनित उठती घोटको की कही भी ।
तो होता था हृदय शतधा गोप - गोपांगना का ॥४॥

धीरे-धीरे दुख - दिवस ए त्रास के साथ बीते ।
लोगों द्वारा यह शुभ समाचार आया गृहो में ।
सारी सेना निहत अरि की हो गई श्याम - हाथो ।
प्राणो को ले मगध - पति हो भूरि उद्विग्न भागा ॥५॥

बारी - बारी ब्रज - अवनि को कम्पमाना बना के ।
बातें धावा - मगध - पति की सत्तरा- बार फैली ।
आया सम्वाद ब्रज-महि मे बार अटठारही जो ।
टूटी अाशा अखिल उससे नन्द - गोपादिको की ।।६।।

हा ! हाथो से पकड़ अबकी बार ऊबा - कलेजा ।
रोते - धोते यह दुखमयी बात जानी सबो ने ।
उत्पातो से मगध - नृप के श्याम ने व्यग्र हो के ।
त्यागा प्यारा - नगर मथुरा जा बसे द्वारिका मे ॥७॥

ज्यो होता है शरद ऋतु के बीतने से हताश ।
स्वाती - सेवी अतिशय तृपावान प्रेमी पपीहा ।
वैसे ही श्री कुँवर - वर के द्वारिका में पधारे ।
छाई सारी ब्रज - अवनि मे सर्वदेशी निराशा ॥८॥

प्राणी भाशा - कमल - पग को है नहीं त्याग पाता ।
सो वीची सी लसित रहती जीवनांभोधि मे है ।
व्यापी भू के उर - तिमिर सी है जहाँ पै निराशा ।
है आशा की मलिन किरणें ज्योति देती वहाँ भी ॥९॥

[ ३३३ ]

आशा त्यागी न ब्रज-महि ने हो निराशामयी भी ।
लाखो ऑखें पथ कुँवर का आज भी देखती थी ।
मात्राये थी समधिक हुई शोक दुखादिको की ।
लोहू आता विकल - हग में वारि के स्थान मे था ॥१०॥

कोई प्राणी कब तक भला खिन्न होता रहेगा ।
ढालेगा अश्रु कब तक क्यो थाम टूटा - कलेजा ।
जी को मारे नखत गिन के ऊब के दग्ध हो के ।
कोई होगा बिरत कब लौ विश्व - व्यापी - सुखो से ॥११॥

न्यारी-आभा निलय-किरणें सूर्य की औ शशी की ।
ताराओ से खचित नभ की नीलिमा मेघ - माला ।
पेड़ो की औ ललित - लतिका - वेलियो की छटायें ।
कान्ता - क्रीड़ा सरित सर निझरो के जलो की ॥१२॥

मीठी - ताने मधुर - लहरे गान - वाद्यादिको की ।
प्यारी बोली विहग - कुल की बालको की कलाये ।
सारी - शोभा रुचिर - ऋतु की पर्व की उत्सवो की ।
वैचित्र्यो से बलित धरती विश्व की सम्पदायें ॥१३।।

सतप्तो का, प्रबल - दुख से दग्ध का, दृष्टि आना ।
जो ऑखो मे कुटिलं - जग का चित्र सा खीचते है ।
आख्यानो के सहित सुखदा - सान्त्वना सज्जनो की ।
संतानो की सहज ममता पेट - धन्धे सहस्रो ॥१४॥

है प्राणी के हृदय - तल को फेरते मोह लेते ।
धीरे - धीरे प्रबल - दुख का वेग भी है घटाते ।
नाना भावो सहित अपनी व्यापिनी मुग्धता से ।
वे हैं प्रायः व्यथित - उर की वेदनाये हटाते ।।१५।।

[ ३३४ ]

गोपी - गोपो जनक - जननी बालिका - बालको के ।
चित्तोन्मादी प्रबल - दुख का वेग भी काल पा के ।
धीरे-धीरे बहुत बदला हो गया न्यून प्रायः ।
तो भी व्यापी ह्रदय - तल मे श्यामली मूर्ति ही थी ॥१६॥

वे गाते तो मधुर - स्वर से श्याम की कीर्ति गाते ।
प्रायः चर्चा समय चलती बात थी श्याम ही की ।
मानी जाती सुतिथि वह थी पर्व औ उत्सवो की ।
थी लीलाये ललित जिनमे राधिका - कान्त ने की ॥१७॥

खो देने मे विरह - जनिता वेदना किल्विषो के ।
ला देने मे व्यथित - उर मे शान्ति भावानुकूल ।
आशा दग्धा जनक - जननी चित्त के बोधने मे ।
की थी चेष्टा अधिक परमा - प्रेमिका राधिका ने ।।१८।।

चिन्ता - प्रस्ता विरह - विधुरा भावना मे निमग्ना ।
जो थी कौमार-व्रत-निरता बालिकाये अनेको ।
वे होती थी बहु - उपकृता नित्य श्री राधिका से ।
घंटो आ के पग - कमल के पास वे बैठती थी ॥१९॥

जो छा जाती गगन-तल के अंक मे मेघ- माला ।
जो केकी हो नटित करता केकिनी साथ क्रीड़ा ।
प्रायः उत्कण्ठ बन रटता पी कहाँ जो पपीहा ।
तो उन्मत्ता - सदृश बन के बालिकाये अनेको ।।२०।।

ये बाते थी स - जल - धन को खिन्न हो हो सुनाती ।
क्यो त हो के परम - प्रिय सा वेदना है बढ़ाता ।
तेरी संज्ञा सलिल - धर है और पर्जन्य भी है ।
ठंढा मेरे हृदय - तल को क्यो नहीं तू बनाता ॥२१॥

[ ३३५ ]

तू केकी को स्व - छवि दिखला है महा मोद देता ।
वैसा ही क्यो मुदित तुझसे है पपीहा न होता ।
क्यो है मेरा हृदय दुखता श्यामता देख तेरी ।
क्यो ए तेरी विविध मुझको मूर्तियाँ दीखती है ॥२२॥

ऐसी ठौरो पहुँच बहुधा राधिका कौशलो से ।
ए बाते थी पुलक कहती उन्मना - बालिका से ।
देखो प्यारी भगिनि भव को प्यार की दृष्टियो से ।
जो थोड़ी भी हृदय - तल मे शान्ति, की कामना है ।।२३।।

ला देता है जलद हग मे श्याम की मंजु - शोभा ।
पक्षाभा से मुकुट - सुषमा है कलापी दिखाता ।
पी का सच्चा प्रणय उर मे ऑकता है पपीहा ।
ए बाते है सुखद् इनमे भाव क्या है व्यथा का ॥२४॥

होती राका विमल - विधु से बालिका जो विपन्ना ।
तो श्री राधा मधुर - स्वर से यो उसे थी सुनाती ।
तेरा होना विकल' सुभगे बुद्धिमत्ता नहीं है ।
क्या प्यारे की वदन - छवि तू इन्दु मे है न पाती ।।२५।।

मालिनी छन्द
जब कुसुमित होती वेलियाँ औ लताये ।
जब ऋतुपति आता आम की मंजरी ले ।
जब रसमय होती मेदिनी हो मनोज्ञा ।
जब मनसिज लाता मत्तता मानसो मे ।।२।।

जब मलय - प्रसूता वायु आती सु-सिक्ता ।
जब तरु कलिका औ कोंपलो से लुभाता ।
जब मधुकर - माला गॅजती कुंज में थी ।
जब पुलकित हो हो कूकती ,कोकिलाये ॥२७॥

[ ३३६ ]

तव ब्रज बनता था मूर्ति उद्विग्नता की ।
प्रति - जन उर मे थी वेदना वृद्धि पाती ।
गृह, पथ, वन, कुंजो मध्य थी दृष्टि आती ।
बहु - विकल उनीदी, ऊवती, बालिकाये ॥२८॥

इन विविध व्यथाओ मध्य डूबे दिनो में ।
अति - सरल - स्वभावा सुन्दरी एक बाला ।
निशि-दिन फिरती थी प्यार से सिक्त हो के ।
गृह, पथ, वहु - बागो कुंज - पुंजो, वनो मे ।।२९।।

वह सहृदयता से ले किसी मूर्छिता को ।
निज अति उपयोगी अंक में यत्न - द्वारा ।
मुख पर उसके थी डालती वारि छींटे ।
वर - व्यजन डुलाती थी कभी तन्मयी हो ॥३०॥

कुवलय - दल बीछे पुष्प औ पल्लवो को ।
निज-कलित करो से थी धरा में बिछाती ।
उस पर यक तप्ता वालिका को सुला के ।
वह निज कर 'से थी लेप ठंढे लगाती ॥३१॥

यदि अति अकुलाती उन्मना - बालिका को ।
वह कह मृदु - बाते वोधती कुंज मे जा ।
वन - वन बिलखाती तो किसी वावली का ।
वह ढिग रह छाया - तुल्य संताप खोती ॥३२।।

यक थल अवनी मे लोटती वंचिता का ।
तन रज यदि छाती से लगा पोंछती थी ।
अपर थल उनीदी मोह - भग्ना किसीको ।
वह शिर सहला के गोद मे थी सुलाती ॥३३॥

[ ३३७ ]

सुन कर उसमें की आह रोमांचकारी ।
वह प्रति - गृह मे थी शीघ्र से शीघ्र जाती ।
फिर मृदु - वचनों से मोहनी - उक्तियो से ।
वह प्रबल - व्यथा का वेग भी थी घटाती ॥३४॥

गिन - गिन नभ - तारे ऊब ऑसू बहा के ।
यदि निज - निशि होती कश्चिदार्ता बिताती ।
वह ढिग उसके भी रात्रि में ही सिधाती ।
निज अनुपम राधा - नाम की सार्थता से ॥३५॥

मन्दाक्रान्ता छन्द
राधा जाती प्रति-दिवस थीं पास नन्दांगना के ।
नाना बातें कथन कर के थी उन्हे बोध देती ।
जो वे होती परम - व्यथिता मूर्छिता या विपन्ना ।
तो वे आठो पहर उनकी सेवना में बिताती ॥३६॥

घंटो ले के हरि - जननि को गोद में बैठती थीं ।
वे थी नाना जतन करती पा उन्हे शोक - मग्ना ।
धीरे धीरे चरण सहला औ मिटा चित्त - पीड़ा ।
हाथो से थीं हग - युगल के वारि को पोंछ देती ॥३७॥

हो उद्विग्ना बिलख जब यों पूछती थी यशोदा ।
क्या आवेगे न अब ब्रज मे जीवनाधार मेरे ।
तो वे धीरे मधुर - स्वर से हो विनीता बताती ।
हॉ आवेगे, व्यथित - ब्रज को श्याम कैसे तजेगे ॥३८॥

आता ऐसा कथन करते वारि राधा - हगो मे ।
बूंदो - बूंदो टपक पड़ता गाल पै जो कभी था ।
जी ऑखो से सदुख उसको देख पाती यशोदा ।
तो धीरे यो कथन करती खिन्न हो तू न बेटी ॥३९।।

[ ३३८ ]

हो के राधा विनत कहती मैं नहीं रो रही हूँ ।
आता मेरे हग युगल में नीर आनन्द का है ।
जो होता है पुलक कर के आप की चारु सेवा ।
हो जाता है प्रकटित वही वारि द्वारा हगो मे ॥४०॥

वे थी प्राय ब्रज - नृपति के पास उत्कण्ठ जाती ।
सेवाये थी पुलक करती क्लान्तियाँ थी मिटाती ।
बातो ही मे जग-विभव की तुच्छता थी दिखाती ।
जो वे होते विकल पढ़ के शास्त्र नाना सुनाती ॥४१।।

होती मारे मन यदि कही गोप की पंक्ति बैठी ।
किम्वा होता विकल उनको गोप कोई दिखाता ।
तो कार्यों मे सविधि उनको यत्नतः वे लगाती ।
औ ए बाते कथन करती भूरि गंभीरता से ।।४।२।

जी से जो आप सब करते प्यार प्राणेश को है ।
तो पा भू मे पुरुष - तन को, खिन्न हो के न बैठे ।
उद्योगी हो परम रुचि से कीजिये कार्य्य ऐसे ।
जो प्यारे है परम प्रिय के विश्व के प्रेमिको के ॥४३॥

जो वे होता मलिन लखती गोप के बालको को ।
देती पुष्पो रचित उनको मुग्धकारी - खिलौने ।
दे शिक्षाये विविध उनसे कृष्ण - लीला कराती ।
घटो बैठी परम - रुचि से देखती तद्गता हो ॥४४॥

पाई जाती दुखित जितनी अन्य गोपांगनाये ।
राधा द्वारा सुखित वह भी थी यथा रीति होती ।
गा के लीला स्व प्रियतम की वेणु, वीणा बजा के ।
प्यारी - बाते कथन कर के वे उन्हे बोध देती ॥४५।।

[ ३३९ ]

संलग्ना हो विविध कितने सान्त्वना - कार्य में भी ।
वे सेवा थीं सतत करती वृद्ध - रोगी जनों की ।
दीनो, हीनो, निबल विधवा आदि को मानती थी ।
पूजी जाती ब्रज - अवनि में देवियों सी अतः थीं ।।४६।।

खो देती थी कलह - जनिता आधि के दुर्गणो को ।
धो देती थी मलिन - मन की व्यापिनी कालिमायें ।
बो देती थी हृदय - तल मे बीज भावज्ञता का ।
वे थी चिन्ता-विजित - गृह में शान्ति - धारा बहाती ॥४७॥

आटा चीटी विहग गण थे वारि औ अन्न, पाते ।
देखी जाती सदय उनकी दृष्टि कीटादि में भी ।
पत्तों को भी न तरु - वर के वे, वृथा तोड़ती थी ।
जी से वे थी निरत रहती भूत - सम्बर्द्धना में ॥४८।।

वे छाया थी सु - जन शिर की शासिका थी खलों की ।
कंगालों की परम निधि थी औषधी पीड़ितो की ।
दीनो की थी बहिन, जननी थीं अनाथाश्रितो की ।
आराध्या थी ब्रज - अवनि की प्रेमिका विश्व की थी ॥४९॥

जैसा व्यापी विरह - दुख था गोप गोपांगना का ।
वैसी ही थी सदय - हृदया स्नेह की मूर्ति राधा ।
जैसी मोहावरित, ब्रज में तामसी - रात आई ।
वैसे ही वे लसित उसमे कौमुदी के समा थी ॥५०॥

जो थीं कौमार-व्रत - निरता बालिकायें अनेको ।
वे भी पा के समय ब्रज मे शान्ति विस्तारती थी ।
श्री राधा के हृदय - बल से दिव्य शिक्षा गुणो से ।
वे भी छाया - सदृश उनकी वस्तुतः हो गई थी ॥५१॥

[ ३४० ]

तो भी आई न वह घटिका औ न वे वार आये ।
वैसी सच्ची सुखद ब्रज में वायु भी आ न डोली ।
वैसे छाये न घन रस की सोत सी जो बहाते ।
वैसे उन्माद - कर·स्वर से कोकिला भी न बोली ।।५२।।

जीते भूले न ब्रज - महि के नित्य उत्कण्ठ प्राणी ।
जी से प्यारे जलद - तन को, केलि - क्रीड़ादिको को ।
पीछे छाया विरह - दुख की वंशजो - वीच व्यापी ।
पच्ची यो है ब्रज - अबनि में आज भी अंकिता है ।।५३।।

सच्चे स्नेही अवनिजन के देश के श्याम जैसे ।
राधा जैसी सदय - हृदया विश्व प्रेमानुरक्ता ।
हे विश्वात्मा । भरत - भुव के अंक में और आवे ।
ऐसी व्यापी विरह - घटना किन्तु कोई न होवे ।।५४॥

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[ ३४१ ]
आधुनिक हिन्दी-साहित्य का इतिहास

इसमें भारतेदु बाबू हरिश्चद्र जी से लेकर आजतक का पूरा-पूरा हमारे साहित्य का इतिहास है।

पुस्तक में पुराने ढंग की व्रजभाषा, खड़ी बोली और छायावाद की कविताओ का पूर्ण विवेचन एवं उनकी प्रवृत्तियो का यथावत् निरूपण तथा नाटक, उपन्यास, कहानी आदि का पर्यालोचन आधुनिक शैली से किया गया है।

काशी-नागरी-प्रचारिणी सभा ने स० १९९१ की इसे सर्वश्रेष्ठ पुस्तक मानकर लेखक को ‘द्विवेदी स्वर्ण पदक' पुरस्कार में दिया हे । मूल्य ३)

विनय-पत्रिका (सटीक)

( टीकाकार——श्री वियोगी हरि )

यह विनय-पत्रिका की टीका हिन्दी-साहित्य में सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। गणेश, शिव, हनुमान, भरत, लक्ष्मण आदि पार्षदो सहित जगदीग श्रीरामचन्द्र जी की स्तुति के बहाने वेदान्त के गूढ तत्त्वो का इस पुस्तक मे समावेश कर दिया है। साहित्य की दृष्टि से भी यह उच्च कोटिका ग्रन्थ है। मू० ३।।)

हिन्दी दासबोध

जिस तरह उत्तर भारत में गोस्वामी जी की रामायण का प्रचार राजा से लेकर रक की झोपड़ी तक है, उसी तरह इस पुस्तक का प्रचार दक्षिण भारत में है। भगवान तिलक ने तो ‘दासबोध' को संसार के सर्वश्रेष्ठ ग्रंथो में माना है । मूल्य २।।)

भक्त और भगवान
सूर, तुलसी, कबीर, मीरा, रसखान, बिहारी, भारतेन्दु, सत्यनारायण तथा अष्टछाप के भक्त कवि-पुगवो के भगवान के प्रति जो अनुपम उद्गार हैं उनका इस पुस्तक में बहुत ही सुन्दर सकलन किया गया है। भक्तो के वास्ते तो यह अपूर्व पुस्तक है । मूल्य १।।)
[ ३४२ ]
बिहारी की वाग्विभूति

बिहारी हिन्दी के बहुत लोक-प्रसिद्ध कवि हैं। उनकी सतसई की पढ़ाई कई परीक्षाओ में होती है । पर बिहारी की विशेषताओ का सम्यक् उद्घाटन करनेवाली हिंदी में कोई भी पुस्तक नहीं थी । इस पुस्तक से बिहारी-सम्बन्धी सभी बातो का पूर्ण ज्ञान प्राप्त होगा । मूल्य १।।।)

हिन्दी ज्ञानेश्वरी

महाराष्ट्र प्रान्त के प्रसिद्ध महात्मा श्री ज्ञानेश्वर जी ने भक्तो को भगवद्गीता का वास्तविक मर्म समझाने के लिए शंकराचार्य के मतानुसार ‘ज्ञानेश्वरी' नामक बहुत ही विद्वत्तापूर्ण और विशद टीका लिखी है। जितनी गीता पर टीकाएँ आज तक निकली हैं उनमे यह सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। मूल्य ३।।)

हिन्दी-नाट्य - साहित्य

इस ग्रन्थ के आरम्भ में प्राय ५० पृष्ठों में सस्कृत-नाट्यसाहित्य की उत्पत्ति, विकाश, नाटक तथा लक्षण-ग्रन्थो का सक्षिप्त इतिहास, रूपक-भेद, वस्तु, रस आदि पर एक पूरा प्रकरण दिया गया है। इसके अनन्तर भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के पूर्व के नाटको का इतिहास देकर भारतेन्दु जी की नाट्य-रचनाओ का विवरण आलोचना सहित क्रमश तीन प्रकरणो में दिया गया है । इसके बाद भारतेन्दु-काल के अन्य नाटककारो का विवरण एक प्रकरण में देकर वर्तमानकाल के प्रमुख कवि ‘प्रसाद' जी की रचनाओ की ६० पृष्ठो में विवेचना की गई है। पुस्तक में नाटको के इतिहास सम्बन्धी समग्र ज्ञातव्य बाते दी गई हैं । मूल्य २)

कहानी-कला
इस पुस्तक में कहानियो की रचना कैसे होती है, इसका आकर्षक ढंग से, एक-एक बात का प्रेमचन्द जी तथा ‘प्रसाद' जी आदि प्रसिद्ध कहानी-लेखको की कहानियो में से उद्धरण देकर वर्णन किया गया है। जो लोग कहानी लिखना सीखना चाहते हैं उनके लिये यह पुस्तक बहुत उपयोगी है । मू० ।।।≠)
[ ३४३ ]
वैदेही-वनवास

यह हरिऔध जी की करुण-रस-प्रधान सर्वश्रेष्ठ रचना है । पुस्तक पढ़ते-पढते आप करुण-रस के सागर मे इतने निमग्न हो जायेंगे कि आप की ऑखो से आँसू गिरने लगेगे । लेखक ने एक एक पंक्ति इसकी ऑसू पोछ-पोछ कर लिखी है। ग्रंथारभ में काव्य-संबधी अनेक बातो का दिग्दर्शन कराते हुए लेखक ने २५ पेज की भूमिका भी लिखी है। सभी पत्रपत्रिकाओ ने इस पुस्तक की मुक्तकंठ से पशसा की है। मूल्य २।)

पुष्प-विज्ञान

इस पुस्तक में पुष्पो की उत्पत्ति, उनका विकाश, उनकी सामाजिक आवश्यकता आदि का वर्णन तो दिया ही है, साथ ही प्रायः सभी भारतीय पुष्पों का आयुर्वेद मता-नुसार गुणावगुण एवं रोग विशेष मे उनके विशेष उपाय भी बतलाए गए हैं । मूल्य ।।।)

ठंढे छींटे

यह बात प्रसिद्ध ही है कि श्री हरि जी गद्य-काव्य लिखने में एक ही हैं । यह आपकी गद्य-काव्य के रूप मे सर्वश्रेष्ठ क्रान्तिकारी रचना है।

खड़ी बोली हिंदी-साहित्य का इतिहास

खड़ी बोली के सभी अगो के विषय में इस पुस्तक द्वारा अच्छी तरह समाधान हो सकता है। हिंदी-साहित्य में अपने विषय की यह अकेली पुस्तक है । मूल्य १।‌।।)

भाषा की शिक्षा

हिन्दी भाषा की शिक्षा देने के लिए अपने विषय की यह अपूर्व पुस्तक है । यह ग्रन्थ उन सभी अध्यापको के काम का है जो प्राथमिक कक्षाओ से लेकर ऊँची कक्षाओ तक भाषा की शिक्षा देते हैं। हर एक अध्यापक को उसकी आवश्यकतानुसार इसमें सामग्री मिलेगी । मूल्य २)

मिलने का पता——

हिंदी-साहित्य-कुटीर, बनारस