प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-१०
दस
हीरा का कहीं पता न चला और दिन गुजरते जाते थे। होरी से जहां तक दौड़-धूप हो सकी की, फिर हारकर बैठ रहा। खेती-बारी की भी फिक्र करना थी। अकेला आदमी क्या-क्या करता?
और अब अपनी खेती से ज्यादा फिक्र थी पुनिया की खेती की। पुनिया अब अकेली होकर और
भी प्रचंड हो गई थी। होरी को अब उसकी खुशामद करते बीतती थी। हीरा था, तो वह पुनिया
को दबाए रहता था। उसके चले जाने से अब पुनिया पर कोई अंकुस न रह गया था। होरी की
पट्टीदारी हीरा से थी। पुनिया अबला थी। उससे वह क्या तनातनी करता? और पुनिया उसके
स्वभाव से परिचित थी और उसकी सज्जनता का उसे खूब दंड देती थी। खैरियत यही
हुई कि कारकुन साहब ने पुनिया से बकाया लगान वसूल करने की कोई सख्ती न की,
केवल थोड़ी-सी पूजा लेकर राजी हो गए। नहीं, होरी अपनी बकाया के साथ उसकी
बकाया चुकाने के लिए भी कर्ज लेने को तैयार था। सावन में धान की रोपाई की ऐसी
धूम रही कि मजूर न मिले और होरी अपने खेतों में धान न रोप सका, लेकिन पुनिया के
खेतों में कैसे न रोपाई होती? होरी ने पहर रात-रात तक काम करके उसके धान रोपे। अब होरी
ही तो उसका रक्षक है। अगर पुनिया को कोई कष्ट हुआ, तो दुनिया उसी को तो हंसेगी नतीजा
यह हुआ कि होरी की खरीफ की फसल में बहुत थोड़ा अनाज मिला, और पुनिया के बखार
में धान रखने की जगह न रही।
होरी और धनिया में उस दिन से बराबर मनमुटाव चला आता था। गोबर से भी होरी की
बोलचाल बंद थी। मां-बेटे ने मिलकर जैसे उसका बहिष्कार कर दिया था। अपने घर में परदेसी
बना हुआ था। दो नावों पर सवार होने वालों की जो दुर्गति होती है, वही उसकी हो रही थी।
गांव में भी अब उसका उतना आदर न था। धनिया ने अपने साहस से स्त्रियों का ही नहीं, पुरुषों
का नेतृत्व भी प्राप्त कर लिया था। महीनों तक आसपास के इलाकों में इस कांड की खूब चर्चा
रही। यहां तक कि वह एक अलौकिक रूपतक धारण करता जाता था-'धनिया नाम है उसका
जी। भवानी का इष्ट है उसे। दारोगाजी ने ज्यों ही उसके आदमी के हाथ में हथकड़ी डाली कि
धनिया ने भवानी का सुमिरन किया। भवानी उसके सिर आ गई। फिर तो उसमें इतनी शक्ति
आ गई कि उसने एक झटके में पति की हथकड़ी तोड़ डाली और दारोगा की मूंछें पकड़कर
उखाड़ लीं, फिर उसकी छाती पर चढ़ बैठी। दारोगा ने जब बहुत मानता की, तब जाकर उसे
छोड़ा।' कुछ दिन तो लोग धनिया के दर्शनों को आते रहे। वह बात अब पुरानी पड़ गई थी, लेकिन
गांव में धनिया का सम्मान बहुत बढ़ गया था। उसमें अद्भुत साहस है और समय पड़ने पर
वह मर्दों के भी कान काट सकती है।
मगर धीरे-धीरे धनिया में एक परिवर्तन हो रहा था। होरी को पुनिया की खेती में लगे
देखकर भी वह कुछ न बोलती थी। और यह इसलिए नहीं कि वह होरी से विरक्त हो गई थी,
बल्कि इसलिए कि पुनिया पर अब उसे भी दया आती थी। हीरा का घर से भाग जाना उसकी
प्रतिशोध-भावना की तुष्टि के लिए काफी था।
इसी बीच में होरी को ज्वर आने लगा। फस्ली बुखार फैला था ही। होरी उसके चपेट
में आ गया। और कई साल के बाद जो ज्वर आया, तो उसने सारी बकाया चुका ली। एक महीने
तक होरी खाट पर पड़ा रहा। इस बीमारी ने होरी को तो कुचल डाला ही, पर धनिया पर भी
विजय पा गई। पति जब मर रहा है, तो उससे कैसा बैर? ऐसी दशा में तो बैरियों से भी बैर नहीं रहता, वह तो अपना पति है। लाख बुरा हो, मगर उसी के साथ जीवन के पच्चीस साल कटे हैं, सुख किया है तो उसी के साथ, दु:ख भोगा है तो उसी के साथ। अब तो चाहे वह अच्छा है।
या बुरा, अपना है। दाढ़ीजार ने मुझे सबके सामने मारा, सारे गांव के सामने मेरा पानी उतार
लिया, लेकिन तब से कितना लज्जित है कि सीधे ताकता नहीं। खाने आता है तो सिर झुकाए
खाकर उठ जाता है, डरता रहता है कि मैं कुछ कह न बैठूं।
होरी जब अच्छा हुआ, तो पति-पत्नी में मेल हो गया था।
एक दिन धनिया ने कहा-तुम्हें इतना गुस्सा कैसे आ गया? मुझे तो तुम्हारे ऊपर कितना
ही गुस्सा आए, मगर हाथ न उठाऊंगी।
होरी लजाता हुआ बोला-अब उसकी चर्चा न कर धनिया। मेरे ऊपर कोई भूत सवार
था। इसका मुझे कितना दुख हुआ है, वह मैं ही जानता हूं।
'और जो मैं भी क्रोध में डूब मरी होती।'
'तो क्या मैं रोने के लिए बैठा रहता? मेरी लहास भी तेरे साथ चिता पर जाती।'
'अच्छा चुप रहो, बेबात की बात मत करो।'
'गाय गई सो गई, मेरे सिर पर एक विपत्ति डाल गई। पुनिया की फिकर मुझे मारे डालती है।'
'इसीलिए तो कहते हैं, भगवान् घर का बड़ा न बनाए। छोटों को कोई नहीं हंसता। नेकी-बदी सब बड़ों के सिर जाती है।'
माघ के दिन थे। महावट लगी हुई थी। घटाटोप अंधेरा छाया हुआ था। एक तो जाड़ों
की रात, दूसरे माघ की वर्षा। मौत का सा-सन्नाटा छाया हुआ था। अंधेरा तक न सूझता
था। होरी भोजन करके पुनिया के मटर के खेत की मेंड़ पर अपनी मडै़या में लेटा हुआ था। चाहता
था, शीत को भूल जाय और सो रहे, लेकिन तार-तार कंबल और फटी हुई मिर्जई और शीत
के झोंकों से गीली पुआल। इतने शत्रुओं के सम्मुख आने का नींद में साहस न था। आज
तमाखू भी न मिला कि उसी से मन बहलाता। उपला सुलगा लाया था, पर शीत में वह
भी बुझ गया। बेवाय फटे पैरों को पेट में डालकर और हाथों को जांघों के बीच में दबाकर
और कंबल में मुंह छिपाकर अपनी ही गर्म सांसों से अपने को गर्म करने की चेष्टा कर
रहा था। पांच साल हुए, यह मिर्जई बनवाई थी। धनिया ने एक प्रकार से जबरदस्ती बनवा
दी थी, वही जब एक बार काबुली से कपड़े लिए थे, जिसके पीछे कितनी सांसत हुई,
कितनी गालियां खानी पड़ीं। और यह कंबल उसके जन्म से भी पहले का है। बचपन
में अपने बाप के साथ वह इसी में सोता था, जवानी में गोबर को लेकर इसी कंबल में
उसके जाड़े कटे थे और बुढ़ापे में आज वही बूढ़ा कंबल उसका साथी है, पर अब वह
भोजन को चबाने वाला दांत नहीं, दुखने वाला दांत है। जीवन में ऐसा तो कोई दिन ही
नहीं आया कि लगान और महाजन को देकर कभी कुछ बचा हो। और बैठे-बैठाए यह एक
नया जंजाल पड़ गया। न करो तो दुनिया हंसे, करो तो यह संशय बना रहे कि लोग क्या कहते
हैं। सब यह समझते हैं कि वह पुनिया को लूट लेता है, उसकी सारी उपज घर में भर लेता है।
एहसान तो क्या होगा, उलटा कलंक लग रहा है। और उधर भोला कई बेर याद दिला चुके हैं
कि कहीं कोई सगाई का डौल करो, अब काम नहीं चलता। सोभा उससे कई बार कह चुका
है कि पुनिया के विचार उसकी ओर से अच्छे नहीं हैं। न हों। पुनिया की गृहस्थी तो उसे संभालनी
ही पड़ेगी, चाहे हंसकर संभाले या रोकर।
धनिया का दिल भी अभी तक साफ नहीं हुआ। अभी तक उसके मन में मलाल बना हुआ है। मुझे सब आदमियों के सामने उसको मारना न चाहिए था। जिसके साथ पच्चीस साल गुजर गए, उसे मारना और सारे गांव के सामने मेरी नीचता थी, लेकिन धनिया ने भी तो मेरी आबरू उतारने में कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरे सामने से कैसा कतराकर निकल जाती है, जैसे कभी की जान-पहचान ही नहीं। कोई बात कहनी होती है, तो सोना या रूपा से कहलाती है। देखता हूं, उसकी साड़ी फट गई है, मगर कल मुझसे कहा भी, तो सोना की साड़ी के लिए अपनी साड़ी का नाम तक न लिया। सोना की साड़ी अभी दो-एक महीने थेगलियां लगाकर चल सकती है। उसकी साड़ी तो मारे पेबंदों के बिल्कुल कथरी हो गई है। और फिर मैं ही कौन उसका मनुहार कर रहा हूं? अगर मैं ही उसके मन की दो-चार बातें करता रहता, तो कौन छोटा हो जाता? यही तो होता, वह थोड़ा-सा अदरावन कराती, दो-चार लगने वाली बातें कहती, तो क्या मुझे चोट लगी जाती, बुड्ढा होकर भी उल्लू बना रह गया। वह तो कहो, इस बीमारी ने आकर उसे नर्म कर दिया, नहीं जाने कब तक मुंह फुलाए रहती।
और आज उन दोनों में जो बातें हुई थीं, वह मानों भूखे का भोजन थीं। वह दिल से बोली थी और होरी गद्गद् हो गया था। उसके जी में आया, उसके पैरों पर सिर रख दे और कहे-मैंने तुझे मारा है तो ले मैं सिर झुकाए लेता हूं, जितना चाहे मार ले, जितनी गालियां देना चाहे दे ले।
सहसा उसे मंड़ैया के सामने चूड़ियों की झंकार सुनाई दी। उसने कान लगाकर सुना। हां, कोई है। पटवारी की लड़की होगी, चाहे पंडित की घरवाली हो। मटर उखाड़ने आई होगी। न जाने क्यों इन लोगों की नीयत इतनी खोटी है। सारे गांव से अच्छा पहनते हैं। सारे गांव से अच्छा खाते हैं, घर में हजारों रुपये गड़े हुए हैं, लेन-देन करते हैं, ड्योढ़ी-सवाई चलाते हैं, घूस लेते हैं, दस्तूरी लेते हैं, एक-न-एक मामला खड़ा करके हमा-सुमा को पीसते ही रहते , फिर भी नीयत का यह हाल। बाप जैसा होगा, वैसी ही संतान भी होगी। और आप नहीं आते, औरतों को भेजते हैं। अभी उठकर हाथ पकड़ लूं तो क्या पानी रह जाय। नीच कहने का नीच हैं, जो ऊंचे हैं, उनका मन तो और नीचा है। औरत जात का हाथ पकड़ते भी तो नहीं बनता, आंखों देखकर मक्खी निगलनी पड़ती है। उखाड़ ले भाई, जितना तेरा जी चाहे। समझ ले, मैं नहीं हूं। बड़े आदमी अपनी लाज न रखें, छोटों को तो उनकी लाज रखनी ही पड़ती है।
मगर नहीं, यह तो धनिया है। पुकार रही है।
धनिया ने पुकारा-सो गए कि जागते हो?
होरी झटपट उठा और मंडै़या के बाहर निकल आया। आज मालूम होता है, देवी प्रसन्न हो गई, उसे वरदान देने आई हैं, इसके साथ ही इस बादल छेदी और जाड़े-पाले में इतनी रात गए उसका आना शंकाप्रद भी था। जरूर कोई-न-कोई बात हुई है।
बोला-ठंड के मारे नींद भी आती है? तू इस जाड़े-पाले में कैसे आई? सब कुसल तो है?
'हां, सब कुसल है।'
'गोबर को भेजकर मुझे क्यों नहीं बुलवा लिया?'
धनिया ने कोई उत्तर न दिया। मंडै़या में आकर पुआल पर बैठती हुई बोली-गोबर ने तो मुंह में कालिख लगा दी, उसकी करनी क्या पूछते हो। जिस बात को डरती थी, वह होकर रही।
'क्या हुआ? किसी से मार-पीट कर बैठा?'
'अब मैं क्या जानूं, क्या कर बैठा, चलकर पूछो उसी रांड से?'
'किस रांड से? क्या कहती है ? बौरा तो नहीं गई?
‘हां, बौरा क्यों न जाऊंगी। बात ही ऐसी हुई है कि छाती दुगनी हो जाय।'
होरी के मन में प्रकाश की एक लंबी रेखा ने प्रवेश किया।
'साफ-साफ क्यों नहीं कहती। किस रांड को कह रही है?'
'उसी झुनिया को, और किसको ।'
'तो झुनिया क्या यहां आई है?'
'और कहां जाती, पूछता कौन?'
'गोबर क्या घर में नहीं है?'
'गोबर का कहीं पता नहीं जाने कहां भाग गया। इसे पांच महीने का पेट है।'
होरी सब कुछ समझ गया। गोबर को बार-बार अहिराने जाते देखकर वह खटका था जरूर, मगर उसे ऐसा खिलाड़ी न समझता था। युवकों में कुछ रसिकता होती ही है, इसमें कोई नई बात नहीं। मगर जिस रुई के गाले को उसने नीले आकाश में हवा के झोंके से उड़ते देखकर केवल मुस्करा दिया था, वह सारे आकाश में छाकर उसके मार्ग को इतना अंधकारमय बना देगा, यह तो कोई देवता भी न जान सकता था? गोबर ऐसा लंपट। वह सरल गंवार, जिसे वह अभी बच्चा समझता था , लेकिन उसे भोज की चिंता न थी, पंचायत का भय न था, झुनिया घर कैसे रहेगी, इसकी चिंता भी उसे न थी उसे चिंता थी गोबर की। लड़का लज्जाशील है, अनाड़ी है, आत्माभिमानी है, कहीं कोई नादानी न कर बैठे।
घबड़ाकर बोला-झुनिया ने कुछ कहा नहीं, गोबर कहां गया? उससे कहकर ही गया होगा?
धनिया झुंझलाकर बोली-तुम्हारी अक्कल तो घास खा गई है। उसकी चहेती तो यहां बैठी है, भागकर जायगा कहां? यहीं कहीं छिपा बैठा होगा। दूध थोड़ेही पीता है कि खो जायगा। मुझे तो इस कलमुंही झुनिया की चिंता है कि इसे क्या करूं? अपने घर में मैं तो छन-भर भी न रहने दूंगी। जिस दिन गाय लाने गया है, उसी दिन दोनों में ताक-झांक होने लगी। पेट न रहता तो अभी बात न खुलती। मगर जब पेट रह गया, तो झुनिया लगी घबड़ाने। कहने लगी, कहीं भाग चलो। गोबर टालता रहा। एक औरत को साथ ले के कहां जाय, कुछ न सूझा। आखिर जब आज वह सिर हो गई कि मुझे यहां से ले चलो, नहीं मैं परान दे दूंगी, तो बोला-तू चलकर मेरे घर में रह, कोई कुछ न बोलेगा, मैं अम्मां को मना लूंगा। यह गधी उसके साथ चल पड़ी। कुछ दूर तो आगे-आगे आता रहा, फिर न जाने किधर सरक गया। यह खड़ी-खड़ी उसे पुकारती रही। जब रात भीग गई और वह न लौटा, भागी यहां चली आई। मैंने तो कह दिया, जैसा किया है, उसका फल भोग। चुडैल ने लेके मेरे लड़के को चौपट कर दिया। तब से बैठी रो रही है। उठती ही नहीं। कहती है, अपने घर कौन मुंह लेकर जाऊं। भगवान् ऐसी संतान से तो बांझ ही रखें तो अच्छा। सबेरा होते-होते सारे गांव में कांव-कांव मच जायगी। ऐसा जी होता है, माहुर खा लूं। मैं तुमसे कह देती हूं, मैं अपने घर में न रखूंगी। गोबर को रखना हो, अपने सिर पर रखे। मेरे घर में ऐसी छत्तीसियों के लिए जगह नहीं है और अगर तुम बीच में बोले, तो फिर या तो तुम्हीं रहोगे, या मैं ही रहूंगी।
होरी बोला- तुझसे बना नहीं। उसे घर में आने ही न देना चाहिए था।
'सब कुछ कह के हार गई। टलती ही नहीं। धरना दिए बैठी है।'
'अच्छा चल, देखूं कैसे नहीं उठती, घसीटकर बाहर निकाल दूंगा।'
‘दाढ़ीजार भोला सब कुछ देख रहा था, पर चुप्पी साधे बैठा रहा। बाप भी ऐसे बेहया होते हैं।'
'वह क्या जानता था, इनके बीच क्या खिचड़ी पक रही है।'
'जानता क्यों नहीं था? गोबर दिन-रात घेरे रहता था तो क्या उसकी आंखें फूट गईं थीं। सोचना चाहिए था न कि यहां क्यों दौड़-दौड़ आता है।'
'चल, मैं झुनिया से पूछता हूं न ।'
दोनों मंडै़या से निकलकर गांव की ओर चले। होरी ने कहा-पांच घड़ी के ऊपर रात गई होगी।
धनिया बोली-हां, और क्या, मगर कैसा सोता पड़ गया है कोई चोर आए, तो सारे गांव को मूस ले जाय।
'चोर ऐसे गांव में नहीं आते, धनियों के घर जाते हैं।'
धनिया ने ठिठककर होरी का हाथ पकड़ लिया और बोली-देखो, हल्ला न मचाना, नहीं सारा गांव जाग उठेगा और बात फैल जायगी।
होरी ने कठोर स्वर में कहा-मैं यह कुछ नहीं जानता। हाथ पकड़कर घसीट लाऊंगा और गांव के बाहर कर दूंगा। बात तो एक दिन खुलनी ही है, फिर आज ही क्यों न खुल जाय? वह मेरे घर आई क्यों? जाय जहां गोबर है। उसके साथ कुकरम किया, तो क्या हमसे पूछकर किया था?
धनिया ने फिर उसका हाथ पकड़ा और धीरे-से बोली-तुम उसका हाथ पकड़ोगे तो वह चिल्लाएगी।
'तो चिल्लाया करे।'
'मुदा इतनी रात गए, अंधेरे सन्नाटे रात में जायगी कहां, यह तो सोचो।'
'जाय जहां उसके सगे हों। हमारे घर में उसका क्या रखा है?'
'हां, लेकिन इतनी रात गए, घर से निकालना उचित नहीं। पांव भारी है, कहीं डरडरा जाय, तो और आफत हो। ऐसी दसा में कुछ करते-धरते भी तो नहीं बनता।'
'हमें क्या करना है, मरे या जिए। जहां चाहे जाय। क्यों अपने मुंह में कालिख लगा?ऊं? मैं तो गोबर को भी निकाल बाहर करूंगा।'
धनिया ने गंभीर चिंता से कहा-कालिख जो लगनी थी, वह तो अब लग चुकी। वह अब जीते-जी नहीं छूट सकती। गोबर ने नौका डुबा दी।
'गोबर ने नहीं, डुवाई इसी ने। वह तो बच्चा था। इसके पंजे में आ गया।'
'किसी ने डुबाई, अब तो डूब गई।'
दोनों द्वार के सामने पहुंच गए। सहसा घनिया ने होरी के गले में हाथ डालकर कहा-देखो तुम्हें मेरी सौंह, उस पर हाथ न उठाना। वह तो आप ही रो रही है। भाग की खोटी न होती, तो यह दिन ही क्यों आता?
होरी की आखें आर्द्र हो गईं। धनिया का यह मातृ-स्नेह उस अंधेरे में भी जैसे दीपक के समान उसकी चिंता-जर्जर आकृति को शोभा प्रदान करने लगा। दोनों ही के हृदय में जैसे अतीत-यौवन सचेत हो उठा। होरी को इस वीत-यौवना में भी वही कोमल हृदय बालिका नजर आई, जिसने पच्चीस साल पहले उसके जीवन में प्रवेश किया था। उस आलिंगन में कितना अथाह वात्सल्य था, जो सारे कलंक, सारी बाधाओं और सारी मूलबद्ध परंपराओं को अपने अंदर समेटे लेता था।
दोनों ने द्वार पर आकर किबाड़ों के दराज से अंदर झांका। दीक्ट पर तेल की कुप्पी जल रही थी और उसके मध्यम प्रकाश में झुनिया घुटने पर सिर रखे, द्वार की ओर मुंह किए, अंधकार में उस आनंद को खोज रही थी, जो एक क्षण पहले अपनी मोहिनी छवि दिखाकर विलीन हो गया था। वह आफत की मारी, व्यंग-बाणों से आहत और जीवन के आघातों से व्यथित किसी वृक्ष की छांह खोजती फिरती थी, और उसे एक भवन मिल गया था, जिसके आश्रय में वह अपने को सुरक्षित और सुखी समझ रही थी, पर आज वह भवन अपना सारा सुख-विलास लिए अलादीन के राजमहल की भांति गायब हो गया था और भविष्य एक विकराल दानव के समान उसे निगल जाने को खड़ा था।
एकाएक द्वार खुलते और होरी को आते देखकर वह भय से कांपती हुई उठी और होरी के पैरों पर गिरकर रोती हुई बोली-दादा, अब तुम्हारे सिवाय मुझे दूसरा ठौर नहीं है, चाहे मारो चाहे काटो, लेकिन अपने द्वार से दुरदुराओ मत।
होरी ने झुककर उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुए प्यार-भरे स्वर में कहा-डर मत बेटी, डर मत। तेरा घर है, तेरा द्वार है, तेरे हम हैं। आराम से रह। जैसी तू भोला की बेटी है, वैसी ही मेरी बेटी है। जब तक हम जीते हैं, किसी बात की चिंता मत कर। हमारे रहते, कोई तुझे तिरछी आंखों से न देख सकेगा। भोज-भात जो लगेगा, वह हम सब दे लेंगे, तू खातिर जमा रख।
झुनिया, सांत्वना पाकर और भी होरी के पैरों से चिमट गई और बोली-दादा, अब तुम्हीं मेरे बाप हो, और अम्मां, तुम्हीं मां हो। मैं अनाथ हूं। मुझे सरन दो, नहीं मेरे काका और भाई मुझे कच्चा ही खा जायंगे।
धनिया अपनी करुणा के आवेश को अब न रोक सकी। बोली-तू चल घर में बैठ, मैं देख लूंगी काका और भैया को। संसार में उन्हीं का राज नहीं है। बहुत करेंगे, अपने गहने ले लेंगे। फेंक देना उतारकर।
अभी जरा देर पहले धनिया ने क्रोध के आवेश में झुनिया को कुलटा और कलंकिनी और कलमुंही, न जाने क्या-क्या कह डाला था। झाडू मारकर घर से निकालने जा रही थी। अब जो झुनिया ने स्नेह, क्षमा और आश्वासन से भरे यह वाक्य सुने, तो होरी के पांव छोड़कर धनिया के पांव से लिपट गई और वही साध्वी, जिसने होरी के सिवा किसी पुरुष को आंख भरकर देखा भी न था, इस पापिष्ठा को गले लगाए, उसके आंसू पोंछ रही थी और उसके त्रस्त हृदय को कोमल शब्दों से शांत कर रही थी, जैसे कोई चिड़िया अपने बच्चे को परों में छिपाए बैठी हो।
होरी ने धनिया को संकेत किया कि इसे कुछ खिला-पिला दे और झुनिया से पूछा-क्यो बेटी, तुझे कुछ मालूम है, गोबर किधर गया।
झुनिया ने सिसकते हुए कहा-मुझसे तो कुछ नहीं कहा। मेरे कारन तुम्हारे ऊपर...यह कहते-कहते उसकी आवाज आंसुओं में डूब गई।
होरी अपनी व्याकुलता न छिपा सका।
'जब तूने आज उसे देखा, तो कुछ दु:खी था?'
'बातें तो हंस-हंसकर कर रहे थे। मन का हाल भगवान् जाने।'
'तेरा मन क्या कहता है, है गांव में ही कि कहीं बाहर चला गया?'
'मुझे तो शंका होती है, कहीं बाहर चले गए हैं।'
‘यही मेरा मन भी कहता है, कैसी नादानी की। हम उसके दुसमन थोड़े ही थे। जब भली या बुरी एक बात हो गई, तो वह निभानी पड़ती है। इस तरह भागकर तो उसने हमारी जान आफत में डाल दी।
धनिया ने झुनिया का हाथ पकड़कर अंदर ले जाते हुए कहा-कायर कहीं का जिसकी बांह पकड़ी, उसका निबाह करना चाहिए कि मुंह में कालिख लगाकर भाग जाना चाहिए। अब जो आए, तो घर में पैठने न दूं।
होरी वहीं पुआल पर लेटा। गोबर कहां गया? यह प्रश्न उसके हृदयाकाश में किसी पक्षी की भांति मंडराने लगा।