प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-९

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
[ १०४ ]

नौ

प्रातःकाल होरी के घर में एक पूरा हंगामा हो गया। होरी धनिया को मार रहा था। धनिया उसे गालियां दे रही थी। दोनों लड़कियां बाप के पांवों से लिपटी चिल्ला रही थीं और गोबर मां को बचा रहा था। बार-बार होरी का हाथ पकड़कर पीछे ढकेल देता, पर ज्योंही धनिया के मुंह से कोई गाली निकल जाती, होरी अपने हाथ छुड़ाकर उसे दो-चार घूंसे और लात जमा देता। उसका बूढ़ा क्रोध जैसे किसी गुप्त संचित शक्ति को निकाल लाया। हो। सारे गांव में हलचल पड़ गई। लोग समझाने के बहाने तमाशा देखने आ पहुंचे। सोभा लाठी टेकता आ खड़ा हुआ। दातादीन ने डांटा-यह क्या है होरी, तुम बावले हो गए हो क्या? कोई इस तरह घर की लच्छमी पर हाथ छोड़ता है। तुम्हें तो यह रोग न था। क्या हीरा की छूत तुम्हें भी लग गई?

होरी ने पालागन करके कहा-महाराज, तुम इस बखत न बोलो। मैं आज इसकी बान छुड़ाकर तब दम लूंगा। मैं जितना ही तरह देता हूं, उतना ही यह सिर चढ़ती जाती है।

धनिया सजल क्रोध में बोली-महाराज, तुम गवाह रहना। मैं आज इसे और उसके हत्यारे भाई को जेहल भेजवाकर तब पानी पिऊंगी : इसके भाई ने गाय को माहुर खिलाकर मार डाला। अब तो मैं थाने में रपट लिखाने जा रही हूं, तो यह हत्यारा मुझे मारता है। इसके पीछे अपनी जिंदगी चौपट कर दी, उसका यह इनाम दे रहा है।

होरी ने दांत पीसकर और आंखें निकालकर कहा-फिर वही बात मुंह से निकाली। तूने देखा था हीरा को माहुर खिलाते ?

'तू कसम खा जा कि तूने हीरा को गाय की नांद के पास खड़े नहीं देखा?

'हां, मैंने नहीं देखा, कसम खाता हूं।

'बेटे के माथे पर हाथ रखके कसम खा ।

होरी ने गोबर के माथे पर कांपता हुआ हाथ रखकर कांपते हुए स्वर में कहा-मैं बेटे की कसम खाता हूं कि मैंने हीरा को नांद के पास नहीं देखा।

धनिया ने जमीन पर थूककर कहा-धुडी है तेरी झुठाई पर। तूने खुद मुझसे कहा कि हीरा चोरों की तरह नांद के पास खड़ा था। और अब भाई के पच्छ में झूठ बोलता है। थुड़ी है । अगर मेरे बेटे का बाल भी बाका हुआ, तो घर में आग लगा दूंगी। सारी गृहस्थी में आग लगा दूंगी। भगवान, आदमी मुंह से बात कहकर इतनी बेसरमी से मुकर जाता है।

होरी पांव पटककर बोला-धनिया, गुस्सा मत दिला, नहीं बुरा होग।

'मार तो रहा है, और मार ले। जो, तू अपने बाप का बेटा होगा तो आज मुझे मारकर तब पानी पिएगा। पापी ने मारते-मारते मेरा भुरकस निकाल लिया, फिर भी इसका जी नहीं भरा। मुझे मारकर समझता है, मैं बड़ा वीर हूं। भाइयों के सामने भीगी बिल्ली बन जाता है, पापी कहीं का, हत्यारा ।'

फिर वह बैन कहकर रोने लगी—इस घर में आकर उसने क्या नहीं झेला, किस-किस तरह, पेट-तन नहीं काटा, किस तरह एक-एक लत्ते को तरसी, किस तरह एक-एक पैसा प्राणों की तरह संचा, किस तरह घर-भर को खिलाकर आप पानी पीकर सो रही। और आज उन सारे बलिदानों का यह पुरस्कार। भगवान् बैठे यह अन्याय देख रहे हैं और उसकी [ १०५ ] रक्षा को नहीं दौड़ते। गज की और द्रौपदी की रक्षा करने बैकुंठ से दौड़े थे। आज क्यों नींद में सोए हुए हैं?

जनमत धीरे-धीरे धनिया की ओर आने लगा। इसमें अब किसी को संदेह नहीं रहा कि हीरा ने ही गाय को जहर दिया। होरी ने बिलकुल झूठी कसम खाई है, इसका भी लोगों को विश्वास हो गया। गोबर को भी बाप की इस झूठी कसम और उसके फलस्वरूप आने वाली विपत्ति की शंका ने होरी के विरुद्ध कर दिया। उस पर जो दातादीन ने डांट बताई, तो होरी परास्त हो गया। चुपके से बाहर चला गया। सत्य ने विजय पाई।

दातादीन ने सोभा से पूछा- तुम कुछ जानते हो सोभा, क्या बात हुई?

सोभा जमीन पर लेटा हुआ बोला-मैं तो महाराज, आठ दिन से बाहर नहीं निकला। होरी दादा कभी-कभी जाकर कुछ दे आते हैं, उसी से काम चलता है। रात भी वह मेरे पास गए थे। किसने क्या किया, मैं कुछ नहीं जानता। हां, कल सांझ को हीरा मेरे घर खुरपी मांगने गया था। कहता था, एक जड़ी खोदना है। फिर तब से मेरी उससे भेंट नहीं हुई।

धनिया इतनी शह पाकर बोली-पंडित दादा, वह उसी का काम है। सोभा के घर से खुरपी मांगकर लाया और कोई जड़ी खोदकर गाय को खिला दी। उस रात को जो झगड़ा हुआ। था, उसी दिन से वह खार खाए बैठा था।

दातादीन बोले-यह बात साबित हो गई, तो उसे हत्या लगेगी। पुलिस कुछ करे या न करे, धरम तो बिना दंड दिए न रहेगा। चली तो जा रुपिया, हीरा को बुला ला। कहना, पंडित दादा बुला रहे हैं। अगर उसने हत्या नहीं की है, तो गंगाजली उठा ले और चौरे पर चढ़कर कसम खाए।

धनिया बोली-महाराज, उसके कसम का भरोसा नहा। चटपट खा लेगा। जब इसने झूठी कसम खा ली, जो बड़ा धर्मात्मा बनता है, तो हीरा का क्या विश्वास?

अब गोबर बोला-खा ले झूठी कसम। बंस का अंत हो जाय। बूढ़े जीते रहें। जवान जीकर क्या करेंगे ।

रूपा एक क्षण में आकर बोली-काका घर में नहीं है, पडित दादा। काकी कहती हैं, कहीं चले गए हैं।

दातादीन ने लंबी दाढ़ी फटकारकर कहा-तूने पूछा नहीं, कहां चले गए हैं? घर में छिपा बैठा न हो। देख तो सोना, भीतर तो नहीं बैठा?

धनिया ने टोका उसे मत भेजो दादा हीरा के सिर हत्या सवार है, न जाने क्या कर बैठे।

दातादीन ने खुद लकड़ी संभाली और खबर लाए कि हीरा सचमुच कहीं चला गया है। पुनिया कहती है, लुटिया-डोर और डंडा सब लेकर गए हैं। पुनिया ने पूछा भी, कहां जाते हो, पर बताया नहीं। उसने पांच रुपये आले में रखे थे। रुपये वहां नहीं हैं। साइत रुपये भी लेता गया।

धनिया शीतल हदय से बोली-मुंह में कालिख कर कहीं भागा होगा।

सोभा बोला- भाग के कहां जायगा? गंगा नहाने न चला गया हो।

धनिया ने शंका की-गंगा जाता तो रुपये क्य ने जाता, और आजकल कोई परब भी तो नहीं है?

इस शंका का कोई समाधान मिला। धारणा दृढ़ हो गई। [ १०६ ]आज होरी के घर भोजन नहीं पका। न किसी ने बैलों को सानी- पानी दिया। सारे गांव में सनसनी फैली हुई थी। दो-दो चार-चार आदमी जगह-जगह जमा होकर इसी विषय की आलोचना कर रहे थे। हीरा अवश्य कहीं भाग गया। देखा होगा कि भेद खुल गया, अब जेहल जाना पड़ेगा, हत्या अलग लगेगी। बस, कहीं भाग गया। पुनिया अलग रो रही थी, कुछ कहा न सुना, न जाने कहां चल दिए।

जो कुछ कसर रह गई थी, वह संध्या-समय हलके के थानेदार ने आकर पूरी कर दी। गांव के चौकीदार ने इस घटना की रपट की, जैसा उसका कर्त्तव्य था, और थानेदार साहब भला, अपने कर्तव्य से कब चूकने वाले थे ? अब गांव वालों को भी उनका सेवा-सत्कार करके अपने कर्त्तव्य का पालन करना चाहिए। दातादीन, झिंगुरीसिंह, नोखेराम, उनके चारों प्यादे, मंगरू साह और लाला पटेश्वरी, सभी आ पहुंचे और दारोगाजी के सामने हाथ बांधकर खड़े हो गए। होरी की तलबी हुई। जीवन में यह पहला अवसर था कि वह दारोगा के सामने आया। ऐसा डर रहा था, जैसे फांसी हो जायगी। धनिया को पीटते समय उसका एक-एक अंग फड़क रहा था। दारोगा के सामने कछुए की भांति भीतर सिमटा जाता था। दारोगा ने उसे आलोचक नेत्रों से देखा और उसके हृदय तक पहुंच गए। आदमियों की नस पहचानने का उन्हें अच्छा अभ्यास था। किताबी मनोविज्ञान में कोरे, पर व्यावहारिक मनोविज्ञान के मर्मज्ञ थे। यकीन हो गया, आज अच्छे का मुंह देखकर उठे हैं। और होरी का चेहरा कहे देता था, इसे केवल एक घुड़की काफी है।

दारोगा ने पूछा-तुझे किस पर शुबहा है?

होरी ने जमीन छुई और हाथ बांधकर बोला—मेरा सुबह किसी पर नही है सरकार, गाय अपनी मौत से मरी है। बुड्ढी हो गई थी।

धनिया भी आकर पीछे खड़ी थी। तुरंत बोली-गाय मारी है तुम्हारे भाई हीरा ने। सरकार ऐसे बौड़म नहीं हैं कि जो कुछ तुम कह दोगे, वह मान लेंगे। यहां जांच-तहकियात करने आए।

दारोगाजी ने पूछा—यह कौन औरत है?

कई आदमियों ने दारोगाजी से कुछ बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए चढ़ा-ऊपरी की। एक साथ बोले और अपने मन को इस कल्पना से सन्तोष दिया कि पहले मैं बोला-होरी की घरवाली है सरकार ।

'तो इसे बुलाओ, मैं पहले इसी का बयान लिखूंगा। वह कहां है हीरा?'

विशिष्ट जनों ने एक स्वर से कहा-वह तो आज सबेरे से कहीं चला गया है सरकार।

'मैं उसके घर की तलाशी लूंगा।'

तलाशी! होरी की सांस तले-ऊपर होने लगी। उसके भाई हीरा के घर की तलाशी होगी और हीरा घर में नहीं है। और फिर होरी के जीते-जी, उसके देखते यह तलाशी न होने पाएगी, और धनिया से अब उसका कोई संबंध नहीं। जहां चाहे जाय। जब वह उसकी इज्जत बिगाड़ने पर आ गई है, तो उसके घर में कैसे रह सकती है? जब गली-गली ठोकर खाएगी, तब पता चलेगा।

गांव के विशिष्ट जनों ने इस महान संकट को टालने के लिए कानाफूसी शुरू की।

दातादीन ने गंजा सिर हिलाकर कहा-यह सब कमाने के ढंग हैं। पूछो, हीरा के घर में [ १०७ ] क्या रखा है?

पटेश्वरीलाल बहुत लंबे थे, पर लंबे होकर भी बेवकूफ न थे। अपना लंबा, काला मुंह और लंबा करके बोले-और यहां आया है किसलिए, और जब आया है, बिना कुछ लिए दिए गया कब है।

झिंगुरीसिंह ने होरी को बुलाकर कान में कहा—निकालो, जो कुछ देना हो। यों गला न छूटेगा।

दारोगाजी ने अब जरा गरजकर कहा-मैं हीरा के घर की तलाशी लूंगा।

होरी के मुख का रंग उड़ गया था, जैसे देह का सारा रक्त सूख गया हो। तालाशी उसके घर हुई तो, उसके भाई के घर हुई तो, एक ही बात है। हीरा अलग सही, पर दुनिया तो जानती है, वह उसका भाई है, मगर इस वक्त उसका कुछ बस नहीं। उसके पास रुपये होते, तो इसी वक्त पचास रुपये लाकर दारोगाजी के चरणों पर रख देता और कहता-सरकार, मेरी इज्जत अब आपके हाथ है। मगर उसके पास तो जहर खाने को भी एक पैसा नहीं है। धनिया के पास चाहे दो-चार रुपये पड़े हों, पर वह चुडैल भला क्यों देने लगी? मृत्यु-दंड पाए हुए आदमी की भांति सिर झुकाए, अपने अपमान की वेदना का तीव्र अनुभव करता हुआ चुपचाप खड़ा रहा।

दातादीन ने होरी को सचेत किया-अब इस तरह खड़े रहने से काम न चलेगा होरी। रुपये की कोई जुगत करो।

होरी दीन स्वर में बोला-अब मैं क्या अरज करूं महाराज । अभी तो पहले ही की गठरी सिर पर लदी है, और किस मुंह से मांगू,लेकिन इस संकट से उबार लो। जीता रहा, तो कौड़ी कौड़ी चुका दूंगा। मैं मर भी जाऊं तो गोबर तो है ही।

नेताओं में सलाह होने लगी। दारोगाजी को क्या भेंट किया जाय?दातादीन ने पचास का प्रस्ताव किया। झिंगुरीसिंह के अनुमान में सौ से कम पर सौदा न होगा। नोखेराम भी सौ के पक्ष मे थे। और होरी के लिए सौ और पचास में कोई अंतर था। इस तलाशी का संकट उसके सिर से टल जाय। पूजा चाहे कितनी ही चढ़ानी पड़े। मरे को मनभर लकड़ी से जलाओ, या दस मन से, उसे क्या चिंता।

मगर पटेश्वरी से यह अन्याय न देखा गया। कोई डाका या कतल तो हुआ नहीं। केवल तलाशी हो रही है। इसके लिए बीस रुपये बहुत हैं। नेताओं ने धिक्कारा-तो फिर दारोगाजी से बातचीत करना। हम लोग नगीच न जायंगे। कौन घुडकियां खाए?

होरी ने पटेश्वरी के पांव पर अपना सिर रख दिया-भैया, मेरा उद्धार करो। जब तक जिऊंगा, तुम्हारी ताबेदारी करूंगा।

दारोगाजी ने फिर अपने विशाल वक्ष और विशालतर उदर की पूरी शक्ति से कहा- कहां है हीरा का घर? मैं उसके घर की तलाशी लूंगा।

पटेश्वरी ने आगे बढ़कर दारोगाजी के कान में कहा-तलाशी लेकर क्या करोगे हुजूर, उसका भाई आपकी ताबेदारी के लिए हाजिर है।

दोनों आदमी जरा अलग जाकर बातें करने लगे।

'कैसा आदमी है?' [ १०८ ]'बहुत ही गरीब हुजूर। भोजन का ठिकाना भी नहीं।'

'सच?'

'हां, हुजूर, ईमान से कहता हूं।'

'अरे, तो क्या एक पचासे का डौल भी नहीं है?'

'कहां की बात हुजूर दस मिल जायं, तो हजार समझिए। पचास तो पचास जनम में भी मुमकिन नहीं और वह भी जब कोई महाजन खड़ा हो जायगा।'

दारोगाजी ने एक मिनट तक विचार करके कहा-तो फिर उसे सताने से क्या फायदा? मैं ऐसों को नहीं सताता, जो आप ही मर रहे हों।

पटेश्वरी ने देखा, निशाना और आगे जा पड़ा बोले-नहीं हुजूर, ऐसा न कीजिए, नहीं फिर हम कहां जायंगे। हमारे पास दूसरी और कौन-सी खेती है?

'तुम इलाके के पटवारी हो जी, कैसी बातें करते हो?'

'जब ऐसा कोई अवसर आ जाता है, तो आपकी बदौलत हम भी कुछ पा जाते है, नहीं पटवारी को कौन पूछता है?'

'अच्छा जाओ, तीस रुपये दिलवा दो, बीस रुपये हमारे दस रुपये तुम्हारे।'

'चार मुखिया हैं, इसका खयाल कीजिए।'

'अच्छा आधे-आध पर रखो, जल्दी करो। मुझे देर हो रही है।'

पटेश्वरी ने झिंगुरी से कहा, झिंगुरी ने होरी को इशारे से बुलाया, अपने घर ले गए, तीस रुपये गिनकर उसके हवाले किए और एहसान से दबाते हुए बोले-आज ही कागद लिखा लेना। तुम्हारा मुंह देखकर रुपये दे रहा हूं, तुम्हारी भलमंसी पर।

होरी ने रुपये लिए और अंगोछे के कोर में बांधे प्रसन्न-मुख आकर दारोगाजी की ओर चला।

सहसा धनिया झपटकर आगे आई और अंगोछी एक झटके के साथ उसके हाथ से छीन ली। गांठ पक्की न थी। झटका पाते ही खुल गई और सारे रुपये जमीन पर बिखर गए। नागिन की तरह फुंकारकर बोली-ये रुपये कहां लिए जा रहा है, बता? भला चाहता है, तो सब रुपये लौटा दे, नहीं कहे देती हूं। घर के परानी रात-दिन मरें और दाने-दाने को तरसे, लत्ता भी पहनने को मयस्सर न हो और अंजुली-भर रुपये लेकर चला है इज्जत बचाने। ऐसी बड़ी है तेरी इज्जत। जिसके घर में चूहे लोटें, वह भी इज्जत वाला है। दारोगा तलाशी ही तो लेगा ले-ले जहां चाहे तलासी। एक तो सौ रुपये की गाय गई, उस पर यह पलेथन। वाह री तेरी इज्जत।

होरी खून का घूंट पीकर रह गया। सारा समूह जैसे थर्रा उठा। नेताओं के सिर झुक गए। दारोगा का मुंह जरा-सा निकल आया। अपने जीवन में उसे ऐसी लताड़ न मिली थी।

होरी स्तंभित-सा खड़ा रहा। जीवन में आज पहली बार धनिया नेउसे भरे अखाड़े में पटकनी दी आकाश तका दिया। अब वह कैसे सिर उठाए ।

मगर दारोगा जी इतनी जल्दी हार मानने वाले न थे । खिसियाकर बोले-मुझे ऐसा मालूम होता है, कि इस शैतान की खाला ने हीरा को फंसाने के लिए खुद गाय को जहर दे दिया। [ १०९ ]धनिया हाथ मटकाकर बोली-हां, दे दिया। अपनी गाय थी, मार डाली, फिर किसी दूसरे का जानवर तो नहीं मारा? तुम्हारे तहकियात में यही निकलता है, तो यही लिखो। पहना दो मेरे हाथ में हथकड़ियां। देख लिया तुम्हारा न्याय और तुम्हारे अक्कल की दौड़। गरीबों का गला काटना दूसरी बात है। दूध का दूध और पानी का पानी करना दूसरी बात।

होरी आंखों से अंगारे बरसाता धनिया की ओर लपका, पर गोबर सामने आकर खड़ा हो गया और उग्र भाव से बोला-अच्छा दादा, अब बहुत हुआ। पीछे हट जाओ, नहीं मैं कहे देता हूं, मेरा मुंह न देखोगे। तुम्हारे ऊपर हाथ न उठाऊंगा। ऐसा कपूत नहीं हूं। यहीं गले में फांसी लगा लूंगा।

होरी पीछे हट गया और धनिया शेर होकर बोली-तू हट जा गोबर, देखूं तो क्या करता है मेरा। दारोगाजी बैठे हैं। इसकी हिम्मत देखूं । घर में तलासी होने से इसकी इज्जत जाती है। अपनी मेहरिया को सारे गांव के सामने लतियाने से इसकी इज्जत नहीं जाती ! यही तो वीरों का धरम है। बड़ा वीर है, तो किसी मरद से लड़। जिसकी बांह पकड़कर लाया, उसे मारकर बहादुर कहलाएगा। तू समझता होगा, इसे रोटी-कपड़ा देता हूं। आज से अपना घर संभाल। देख तो इसी गांव में तेरी छाती पर मूंग दलकर रहती हूं कि नहीं, और इससे अच्छा खाऊं- पहनूंगी। इच्छा हो देख ले।

होरी परास्त हो गया। उसे ज्ञात हुआ, स्त्री के सामने पुरुष कितना निर्बल, कितना निरुपाय है।

नेताओं ने रुपये चुनकर उठा लिए थे और दारोगाजी को वहां से चलने का इशारा कर रहे थे। धनिया ने एक ठोकर और जमाई-जिसके रुपये हों, ले जाकर उसे दे दो। हमें किसी से उधार नहीं लेना है। और जो देना है, तो उसी से लेना। मैं दमड़ी भी न दूंगी, चाहे मुझे हाकिम के इजलास तक ही चढ़ना पड़े। हम बाकी चुकाने को पच्चीस रुपये मांगते थे, किसी ने न दिया। आज अंजुली-भर रुपये ठनाठन निकाल के दे दिए। मैं सब जानती हूं। यहां तो बांट-बखरा होने वाला था, सभी के मुंह मीठे होते। ये हत्यारे गांव के मुखिया हैं, गरीबों का खून चूसने वाले। सूद-ब्याज, डेढ़ी-सवाई, नजर-नजराना, घूस-पास जैसे भी गरीबों को लूटो। उस पर सुराज चाहिए। जेहल जाने से सुराज न मिलेगा। सुराज मिलेगा धरम से, न्याय से।

नेताओं के मुख में कालिख-सी लगी हुई थी। दारोगाजी के मुंह पर झाडू-सी फिरी हुई थी। इज्जत बचाने के लिए हीरा के घर की ओर चले।

रास्ते में दारोगा ने स्वीकार किया औरत है बड़ी दिलेर ।

पटेश्वरी बोले—दिलेर है हुजूर, कर्कशा है। ऐसी औरत को तो गोली मार दे।

'तुम लोगों का काफिया तंग कर दिया उसने। चार-चार तो मिलते ही।'

'हुजूर के भी तो पंद्रह रुपये गए।'

'मेरे कहां जा सकते हैं? वह न देगा, गांव के मुखिया देंगे और पंद्रह रुपये की जगह पूरे पचास रुपये। आप लोग चटपट इंतजाम कीजिए।'

पटेश्वरीलाल ने हंसकर कहा-हुजूर बड़े दिल्लगीबाज हैं।

दातादीन बोले-बड़े आदमियों के यही लक्षण हैं। ऐसे भाग्यवानों के दर्शन कहां होते हैं?

दारोगाजी ने कठोर स्वर में कहा-यह खुशामद फिर कीजिएगा। इस वक्त तो मुझे पचास [ ११० ] रुपये दिलवाइए, नकद, और यह समझ लो कि आनाकानी की, तो तुम चारों के घर की तलाशी लूंगा। बहुत मुमकिन है कि तुमने हीरा और होरी को फंसाकर उनसे सौ-पचास ऐंठने के लिए पाखंड रचा हो।
नेतागण अभी तक यही समझ रहे हैं, दारोगाजी विनोद कर रहे हैं।
झिंगुरीसिंह ने आंखें मारकर कहा-निकालो पचास रुपये पटवारी साहब।
नोखेराम ने उनका समर्थन किया-पटवारी साहब का इलाका है। उन्हें जरूर आपकी खातिर करनी चाहिए।
पंडित दातादीन की चौपाल आ गई। दारोगाजी एक चारपाई पर बैठ गए और बोले- तुम लोगों ने क्या निश्चय किया? रुपये निकालते हो या तलाशी करवाते हो?
दातादीन ने आपत्ति की-मगर हुजूर...
'मैं अगर-मगर कुछ नहीं सुनना चाहता।'
झिंगुरीसिंह ने साहस किया-सरकार, यह तो सरासर...
'मैं पंद्रह मिनट का समय देता हूं। अगर इतनी देर में पूरे पचास रुपये न आए तो तुम चारों के घर की तलाशी होगी। और गंडासिंह को जानते हो? उसका मारा पानी भी नहीं मांगता।'
पटेश्वरीलाल ने तेज स्वर से कहा-आपको अख्तियार है, तलाशी ले लें। यह अच्छी दिल्लगी है, काम कौन करे, पकड़ा कौन जाय।
'मैंने पच्चीस साल थानेदारी की है, जानते हो?'
'लेकिन ऐसा अंधेर तो कभी नहीं हुआ।'
'तुमने अभी अंधेर नहीं देखा। कहो तो वह भी दिखा दूं? एक-एक को पांच-पांच साल के लिए भेजवा दूं। यह मेरे बांए हाथ का खेल है। एक डाके में सारे गांव को काले पानी भेजवा सकता हूं। इस धोखे में न रहना।'
चारों सज्जन चौपाल के अंदर जाकर विचार करने लगे।
फिर क्या हुआ, किसी को मालूम नहीं। हां, दारोगाजी प्रसन्न दिखाई दे रहे थे और चारों सज्जनों के मुंह पर फटकार बरस रही थी।
दारोगाजी घोड़े पर सवार होकर चले, तो चारों नेता दौड़ रहे थे। घोड़ा दूर निकल गया तो चारों सज्जन लौटे, इस तरह मानो किसी प्रियजन का संस्कार करके श्मशान से लौट रहे हों।
सहसा दातादीन बोले-मेरा सराप न पड़े तो मुंह न दिखाऊं।
नोखेराम ने समर्थन किया-ऐसा धन कभी फलते नहीं देखा।
पटेश्वरी ने भविष्यवाणी-हराम की कमाई हराम में जायगी।
झिंगुरीसिंह को आज ईश्वर की न्यायपरता में संदेह हो गया था। भगवान् न जाने कहां है कि यह अंधेर देखकर भी पापियों को दंड नहीं देते।
इस वक्त इन सज्जनों की तस्वीर खींचने लायक थी।