प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-१४

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद
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चौदह

होरी की फसल सारी की सारी डांड़ की भेंट हो चुकी थी। वैशाख तो किसी तरह कटा, मगर जेठ लगते-लगते घर में अनाज का एक दाना न रहा। पांच-पांच पेट खाने वाले और घर में अनाज नदारद। दोनों जून न मिले, एक जून तो मिलना ही चाहिए। भर-पेट न मिले, आधा पेट तो मिले। निराहार कोई कै दिन रह सकता है। उधार ले तो किससे? गांव के छोटे-बड़े महाजनों से तो मुंह चुराना पड़ता था। मजूरी भी करे, तो किसकी? जेठ में अपना ही काम ढेरों था। ऊख की सिंचाई लगी हुई थी, लेकिन खाली पेट मेहनत भी कैसे हो!

सांझ हो गई थी। छोटा बच्चा रो रहा था। मां को भोजन न मिले, तो दूथ कहां से निकले? सोना परिस्थिति समझती थी, मगर रूपा क्या समझे। बार-बार रोटी-रोटी चिल्ला रही थी। दिन-भर तो कच्ची अमिया से जी बहला, मगर अब तो कोई ठोस चीज चाहिए। होरी दुलारी सहुआइन से अनाज उधार मांगने गया था, पर वह दुकान बंद करके पैंठ चली गई थी। मंगरू साह ने केवल इंकार ही न किया, लताड़ भी दी-उधार मांगने चले हैं, तीन साल से धेला सूद नहीं दिया, उस पर उधार दिए जाओ। अब आकबत में देंगे। खोटी नीयत हो जाती है, तो यही हाल होता है। भगवान् से भी यह अनीति नहीं देखी जाती है। कारकुन की डांट पड़ी, तो कैसे चुपके से रुपये उगल दिए। मेरे रुपये, रुपये ही नहीं हैं और मेहरिया है कि उसका मिजाज ही नहीं मिलता।

वहां से रुआंसा होकर उदास बैठा था कि पुन्नी आग लेने आई। रसोई के द्वार पर जाकर देखा तो अंधेरा पड़ा हुआ था। बोली-आज रोटी नहीं बना रही हो क्या भाभीजी? अब तो बेला हो गई।

जब से गोबर भागा था, पुन्नी और धनिया में बोलचाल हो गई थी। होरी का एहसान भी मानने लगी थी। हीरा को अब वह गालियां देती थी-हत्यारा, गऊ-हत्या करके भागा। मुंह में कालिख लगी है, घर कैसे आए? और आए भी तो घर के अंदर पांव न रखने दूं। गऊ-हत्या करते इसे लाज मी न आई। बहुत अच्छा होता, पुलिस बांधकर ले जाती और चक्की पिसवाती।

धनिया कोई बहाना न कर सकी। बोली-रोटी कहां से बने, घर में दाना तो है ही नहीं। तेरे महतो ने बिरादरी का पेट भर दिया, बाल- बच्चे मरें या जिएं। अब बिरादरी झांकती तक नहीं।

पुनिया की फसल अच्छी हुई थी, और वह स्वीकार करती थी कि यह होरी का पुरुषार्थ है। हीरा के साथ कभी इतनी बरक्कत न हुई थी।

बोली-अनाज मेरे घर से क्यों नहीं मंगवा लिया? वह भी तो महतो ही की कमाई है, कि किसी और की? सुख के दिन आएं, तो लड़ लेना, दु:ख तो साथ रोने ही से कटता है। मैं क्या ऐसी अंधी हूं कि आदमी का दिल नहीं पहचानती। महतो ने न संभाला होता, तो आज मुझे कहां सरन मिलती?

वह उल्टे पांव लौटी और सोना को भी साथ लेती गई। एक क्षण में दो डल्ले अनाज से भरे लाकर आंगन में रख दिए। दो मन से कम जौ न था। धनिया अभी कुछ कहने न पाई थी। कि वह फिर चल दी और एक क्षण में एक बड़ी-सी टोकरी अरहर की दाल से भरी हुई लाकर [ १४१ ]
रख दी और बोली--चलो, मैं आग जलाए देती हूं।

धनिया ने देखा तो जौ के ऊपर एक छोटी-सी डलिया में चार-पांच सेर आटा भी था। आज जीवन में पहली बार वह परास्त हुई। आंखों में प्रेम और कृतज्ञता के मोती भरकर बोली-सब-का-सब उठा लाई कि घर में कुछ छोड़ा? कहीं भागा जाता था?

आंगन में बच्चा खटोले पर पड़ा रो रहा था। पुनिया उसे गोद में लेकर दुलारती हुई बोली-तुम्हारी दया से अभी बहुत है भाभीजी। पंद्रह मन तो जौ हुआ है और दस मन गेहूं। पांच मन मटर हुआ, तुमसे क्या छिपाना है। दोनों घरों का काम चल जायगा। दो-तीन महीने में फिर मकई हो जायगी। आगे भगवान् मालिक है।

झुनिया ने आकर आंचल से छोटी सास के चरण छुए। पुनिया ने असीस दिया। सोना आग जलाने चली, रूपा ने पानी के लिए कलसा उठाया। रुकी हुई गाड़ी चल निकली। जल में अवरोध के कारण जो चक्कर था, फेन था, शोर था, गति की तीव्रता थी, वह अवरोध के हट जाने से शांत मधुर-ध्वनि के साथ सम, धीमी, एक-रस धार में बहने लगा।

पुनिया बोली-महतो को डांड़ देने की ऐसी जल्दी क्या पड़ी थी?

धनिया ने कहा-बिरादरी में सुरखरू कैसे होते?

'भाभी, बुरा न मानो तो, एक बात कहूं?'

'कह, बुरा क्यों मानूंगी?'

'न कहूंगी, कहीं तुम बिगड़ने न लगो?'

'कहती हूं, कुछ न बोलूंगी, कह तो।'

'तुम्हें झुनिया को घर में रखना न चाहिए था।'

'तब क्या करती? वह डूब मरती थी।'

'मेरे घर में रख देती। तब तो कोई कुछ न कहता।'

'यह तो तू आज कहती है। उस दिन भेज देती, तो झाडू लेकर दौड़ती|'

'इतने खरच में तो गोबर का ब्याह हो जाता।'

'होनहार को कौन टाल सकता है पगली! अभी इतने ही से गला नहीं छूटा, भोला अब अपनी गाय के दाम मांग रहा है। तब तो गाय दी थी कि मेरी सगाई कहीं ठीक कर दो। अब कहता है, मुझे सगाई नहीं करनी, मेरे रुपये दे दो। उसके दोनों बेटे लाठी लिए फिरते हैं। हमारे कौन बैठा है, जो उससे लड़े। इस सत्यानासी गाय ने आकर घर चौपट कर दिया।'

कुछ और बातें करके पुनिया आग लेकर चली गई। होरी सब कुछ देख रहा था। भीतर आकर बोला-पुनिया दिल की साफ है।

'हीरा भी तो दिल का साफ था?'

धनिया ने अनाज तो रख लिया था, पर मन में लज्जित और अपमानित हो रही थी। यह दिनों का फेर है कि आज उसे यह नीचा देखना पड़ा।

'तू किसी का औसान नहीं मानती, यही तुझमें बुराई है।

'औसान क्यों मायूं? मेरा आदमी उसकी गिरस्ती के पीछे जन नहीं दे रहा है? फिर मैंने दान थोड़े ही लिया है। उसका एक-एक दाना भर दूंगी।'

मगर पुनिया अपनी जिठानी के मनोभाव समझकर भी होरी का एहसान चुकाती जाती थी। जब अनाज चुक जाता, मन-दो-मन दे जाती, मगर जब चौमासा आ गया और वर्षा [ १४२ ]
न हुई तो समस्या अत्यंत जटिल हो गई। सावन का महीना आ गया था और बगूले उठ रहे थे। कुओं का पानी भी सूख गया था और ऊख ताप से जली जा रही थी। नदी से थोड़ा-थोड़ा पानी मिलता था, मगर उसके पीछे आए दिन लाठियां निकलती थीं। यहां तक कि नदी ने भी जवाब दे दिया। जगह-जगह चोरियां होने लगीं, डाके पड़ने लगे। सारे प्रांत में हाहाकार मच गया। बारे कुशल हुई कि भादों में वर्षा हो गई और किसानों के प्राण हरे हुए। कितना उछाह था उस दिन। प्यासी पृथ्वी जैसे अघाती ही न थी और प्यासे किसान ऐसे उछल रहे थे, मानो पानी नहीं, अशर्फियां बरस रही हों। बटोर लो, जितना बटोरते बने। खेतों में जहां बगूले उठते थे, वहां हल चलने लगे। बालवृंद निकल-निकलकर तालाबों और पोखरों और गड़हियों का मुआयना कर रहे थे। ओहो। तालाब तो आधा भर गया, और वहां से गड़हिया की तरफ दौड़े।

मगर अब कितना ही पानी बरसे, ऊख तो विदा हो गई। एक-एक हाथ ही होके रह जायगी, मक्का और जुआर और कोदों से लगान थोड़े ही चुकेगा, महाजन का पेट थोड़े ही भरा जायगा। हां, गौओं के लिए चारा हो गया और आदमी जी गया।

जब माघ बीत गया और भोला के रुपये न मिले, तो एक दिन वह झल्लाया हुआ होरी के घर आ धमका और बोला—यही है तुम्हारा कौल? इसी मुंह से तुमने ऊख पेरकर मेरे रुपये देने का वादा किया था? अब तो ऊख पेर चुके। लाओ रुपये मेरे हाथ में!

होरी जब अपनी विपत्ति सुनाकर और सब तरह से चिरौरी करके हार गया और भोला द्वार से न हटा, तो उसने झुंझलाकर कहा-तो महतो, इस बखत तो मेरे पास रुपये नहीं हैं और न मुझे कहीं उधार ही मिल सकता है। मैं कहां से लाऊं? दाने-दाने की तंगी हो रही है। बिस्वास न हो, घर में आकर देख लो। जो कुछ मिले, उठा ले जाओ।

भोला ने निर्मम भाव से कहा मैं तुम्हारे घर में क्यों तलासी लेने जाऊं और न मुझे इससे मतलब है कि तुम्हारे पास रुपये हैं या नहीं। तुमने ऊख पेरकर रुपये देने को कहा था। ऊख पेर चुके। अब रुपये मेरे हवाले करो।

'तो फिर जो कहो, वह करूं?'

'मैं क्या कहूं?'

'मैं तुम्हीं पर छोड़ता हूं।'

'मैं तुम्हारे दोनों बैल खोल ले जाऊंगा।'

होरी ने उसकी ओर विस्मय-भरी आंखों से देखा, मानो अपने कानों पर विश्वास न आया हो। फिर हतबुद्धि-सा सिर झुकाकर रह गया। भोला क्या उसे भिखारी बनाकर छोड़ देना चाहते हैं? दोनों बैल चले गए, तब तो उसके दोनों हाथ ही कट जायंगे।

दीन स्वर में बोला दोनों बैल ले लोगे, तो मेरा सर्वनास हो जायगा। अगर तुम्हारा धरम यही कहता है, तो खोल ले जाओ।

'तुम्हारे बनने-बिगड़ने की मुझे परवा नहीं है। मुझे अपने रुपये चाहिए।'

'और जो मैं कह दूं, मैंने रुपये दे दिए?'

भोला सन्नाटे में आ गया। उसे अपने कानों पर विश्वास न आया। होरी इतनी बड़ी बेइमानी कर सकता है, यह संभव नहीं।

उग्र होकर बोला-अगर तुम हाथ में गंगाजलो लेकर कह दो कि मैंने रुपये दे दिए, तो [ १४३ ]
सबर कर लूंगा।

'कहने का मन तो चाहता है, मरता क्या न करता, लेकिन कहूंगा नहीं।'

'तुम कह ही नहीं सकते।'

'हां भैया, मैं नहीं कह सकता। हंसी कर रहा था।'

एक क्षण तक वह दुविधा में पड़ा रहा। फिर बोला-तुम मुझसे इतना बैर क्यों पाल रहे हो भोला भाई। झुनिया मेरे घर में आ गई, तो मुझे कौन-सा सरग मिल गया? लड़का अलग हाथ से गया, दो सौ रुपया डांड अलग भरना पड़ा। मैं तो कहीं का न रहा और अब तुम भी मेरी जड़ खोद रहे हो। भगवान् जानते हैं, मुझे बिल्कुल न मालूम था कि लौंडा क्या कर रहा है। मैं तो समझता था, गाना सुनने जाता होगा। मुझे तो उस दिन पता चला, जब आधी रात को झुनिया घर में आ गई। उस बखत मैं घर में न रखता, तो सोचो, कहां जाती? किसकी होकर रहती?

झुनिया बरौठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह बातें सुन रही थी। बाप को अब वह बाप नहीं शत्रु समझती थी। डरी, कहीं होरी बैलों को दे न दें। जाकर रूपा से बोली-अम्मां को जल्दी से बुला ला। कहना, बड़ा काम है, बिलम न करो!

धनिया खेत में गोबर फेंकने गई थी, बहू का संदेश सुना, तो आकर बोली-काहे बुलाया है बहू, मैं तो घबड़ा गई।

'काका को तुमने देखा है न?'

'हां देखा, कसाई की तरह द्वार पर बैठा हुआ है। मैं तो बोली भी नहीं।'

'हमारे दोनों बैल मांग रहे हैं, दादा से।'

धनिया के पेट की आगे भीतर सिमट गईं।

'दोनों बैल मांग रहे हैं?'

'हां, कहते हैं या तो हमारे रुपये दो, या हम दोनों बैल खोल ले जायंगे।'

'तेरे दादा ने क्या कहा?'

'उन्होंने कहा, तुम्हारा धरम कहता हो, तो खोल ले जाओ।'

'तो खोल ले जाय, लेकिन इसी द्वार पर आकर भीख न मांगे, तो मेरे नाम पर थूक देना। हमारे लहू से उसकी छाती जुड़ाती हो, तो जुड़ा ले।'

वह इसी तैश में बाहर आकर होरी से बोली-महतो दोनों बैल मांग रहे हैं, तो दे क्यों नहीं देते? उनका पेट भरे, हमारे भगवान् मालिक हैं। हमारे हाथ तो नहीं काट लेंगे? अब तक अपनी मजूरी करते थे, अब दूसरों को मजूरी करेंगे। भगवान् की मरजी होगी, तो फिर बैल-बधिये हो जायेंगे, और मजूरी ही करते रहे, तो कौन बुराई है। बूड़े-सूखे और पोत-लगान का बोझ न रहेगा। मैं न जानती थी, यह हमारे जैसे हैं, नहीं गाय लेकर अपने सिर पर विपत्ति क्यों लेती। उस निगोड़ी का पौरा जिस दिन से आया, घर तहस-नहस हो गया।

भोला ने अब तक जिस शस्त्र को छिपा रखा था, अब उसे निकालने का अवसर आ गया। उसे विश्वास हो गया, बैलों के सिवा इन सबों के पास कोई अवलंब नहीं है। बैलों को बचाने के लिए ये लोग सब कुछ करने को तैयार हो जायंगे। अच्छे निशानेबाज की तरह मन को साधकर बोला-अगर तुम चाहते हो कि हमारी बेइज्जती हो और तुम चैन से बैठो, तो यह न होगा। तुम अपने सौ-दो-सौ को रोते हो। यहां लाख रुपये की आबरू बिगड़ गई। तुम्हारी कुसल [ १४४ ]
इसी में है कि जैसे झुनिया को घर में रखा था, वैसे ही घर से निकाल दो, फिर न हम बैल मांगेंगे, न गाय का दाम मांगेंगे। उसने हमारी नाक कटवाई है, तो मैं भी उसे ठोकरें खाते देखना चाहता हूं। वह यहां रानी बनी बैठी रहे, और हम मुंह में कालिख लगाए उसके नाम को रोते रहें, यह मैं नहीं देख सकता। वह मेरी बेटी है, मैंने उसे गोद में खिलाया है, और भगवान् साखी है, मैंने उसे कभी बेटों से कम नहीं समझा, लेकिन आज उसे भीख मांगते और घूर पर दाने चुनते देखकर मेरी छाती सीतल हो जायगी। जब बाप होकर मैंने अपना हिरदा इतना कठोर बना लिया है, तब सोचो, मेरे दिल पर कितनी बड़ी चोट लगी होगी। इस मुंहजली ने सात पुस्त का नाम डुबा दिया। और तुम उसे घर में रखे हुए हो, यह मेरी छाती पर मूंग दलना नहीं तो और क्या है।

घनिया ने जैसे पत्थर की लकीर खींचते हुए कहा-तो महतो, मेरी भी सुन लो। जो बात तुम चाहते हो, वह न होगी। सौ जनम न होगी। दुनिया हमारी जान के साथ है। तुम बैल ही तो ले जाने को कहते हो, ले जाओ, अगर इससे तुम्हारी कटी हुई नाक जुड़ती हो, तो जोड़ लो, पुरखों की आबरू बचती हो, तो बचा लो। झुनिया से बुराई जरूर हुई। जिस दिन उसने मेरे घर में पांव रखा, मैं झाडू लेकर मारने को उठी थी, लेकिन जब उसकी आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे, तो मुझे उस पर दया आ गई। तुम अब बूढ़े हो गए महतो। पर आज भी तुम्हें सगाई की धुन सवार है। फिर वह तो अभी बच्चा है।

भोला ने अपील-भरी आंखों से होरी को देखा-सुनते हो होरी इसकी बातें। अब मेरा दोस नहीं। मैं बिना बैल लिए न जाऊंगा।

होरी ने दृढ़ता से कहा-ले जाओ।

'फिर रोना मत कि मेरे बैल खोल ले गए।'

'नहीं रोऊंगा।'

भोला बैलों की पगहिया खोल ही रहा था कि झुनिया चकतियोंदार साड़ी पहने, बच्चे को गोद में लिए, बाहर निकल आई और कंपित स्वर में बोली काका, लो मैं इस घर से निकल जाती हूं और जैसी तुम्हारी मनोकामना है, उसी तरह भीख मांगकर अपना और अपने बच्चे का पेट पालूंगी, और जब भीख भी न मिलेगी, तो कहीं डूब मरूंगी।

भोला खिसियाकर बोला-दूर हो मेरे सामने से। भगवान् न करे, मुझे फिर तेरा मुंह देखना पड़े। कुलच्छिनी, कुल-कलंकनी कहीं की। अब लिए खूब मरना ही उचित है।

झुनिया ने उसकी ओर ताका भी नहीं। उसमें वह क्रोध था, जो अपने को खा जाना चाहता है, जिसमें हिंसा नहीं, आत्मसमर्पण है। धरती इस वक्त मुंह खोलकर उसे निगल लेती, तो वह कितना धन्य मानती। उसने आगे कदम उठाया।

लेकिन वह दो कदम भी न गई थी कि धनिया ने दौड़कर उसे पकड़ लिया और हिंसा भरे स्नेह से बोली-तू कहां जाती है बहू, चल घर में। यह तेरा घर है, हमारे जीते भी और हमारे मरने के पीछे भी। डूब मरे वह, जिसे अपनी संतान से बैर हो। इस भले आदमी को मुंह से ऐसी बात कहते लाज नहीं आती। मुझ पर धौंस जमाता है नीच। ले जा, बैलों का रकत पी....

झुनिया रोती हुई बोली-अम्मां, जब अपना बाप हो के मुझे धिक्कार रहा है, तो मुझे डूब ही मरने दो। मुझ अभागिनी के कारन तो तुम्हें दु:ख ही मिला। जब से आई, तुम्हारा घर मिट्टी [ १४५ ]
में मिल गया। तुमने इतने दिन मुझे जिस परेम से रखा, मां भी न रखती। भगवान् मुझे फिर जनम दें, तो तुम्हारी कोख से दें, यही मेरी अभिलाषा है।

धनिया उसको अपनी ओर खींचती हुई बोली-यह तेरा बाप नहीं है, तेरा बैरी है, हत्यारा। मां होती, तो अलबत्ते उसे कलंक होता। ला सगाई। मेहरिया जूतों से न पीटे, तो कहना।

झुनिया सास के पीछे-पीछे घर में चली गई। उधर भोला ने जाकर दोनों बैलों को बूटों से खोला और हांकता हुआ घर चला, जैसे किसी नेवते में जाकर पूरियों के बदले जूते पड़े हों-अब करो खेती और बजाओ बंसी। मेरा अपमान करना चाहते हैं सब, न जाने कब का बैर निकाल रहे हैं। नहीं, ऐसी लड़की को कौन भला आदमी अपने घर में रखेगा? सब-के-सब बेसरम हो गए हैं। लौंडे का कहीं ब्याह न होता था इसी से। और इस रांड झुनिया की ढिठाई देखो कि आकर मेरे सामने खड़ी हो गई। दूसरी लड़की होती, तो मुंह न दिखाती। आखों का पानी मर गया है। सबके सब दुष्ट और मूरख भी हैं। समझते हैं झुनिया अब हमारी हो गई। यह नहीं समझते, जो अपने बाप के घर न रही, वह किसी के घर नहीं रहेगी। समय खराब है, नहीं बीच बाजार में इस चुड़ैल धनिया के झोंटे पकड़कर घसीटता। मुझे कितनी गालियां देती थी।

फिर उसने दोनों बैलों को देखा, कितने तैयार हैं। अच्छी जोड़ी है। जहां चाहूं, सौ रुपये में बेच सकता हूं। मेरे अस्सी रुपये खरे हो जायेंगे।

अभी वह गाव के बाहर भी न निकला था कि पीछे से दातादीन, पटेश्वरी, शोभा और दस-बीस आदमी और दौड़े आते दिखाई दिए। भोला का लहू सर्द हो गया। अब फौजदारी हुई, बैल भी छिन जायंगे, मार भी पड़ेगी। वह रुक गया कमर कसकर। मरना ही है तो लड़कर मरेगा।

दातादीन ने समीप आकर कहा-यह तुमने क्या अनर्थ किया भोला, ऐं। उसके बैल खोल लाए, वह कुछ बोला नहीं, इसी से सेर हो गए। सब लोग अपने-अपने काम में लगे थे, किसी को खबर भी न हुई। होरी ने जरा-सा इशारा कर दिया होता, तो तुम्हारा एक-एक बाल नुच जाता। भला चाहते हो, तो ले चलो बैल, जरा भी भलमंसी नहीं है तुममें।

पटेश्वरी बोले-यह उसके सीधेपन का फल है। तुम्हारे रुपये उस पर आते हैं, तो जाकर दीवानी में दावा करो, डिगरी कराओ। बैल खोल लाने का तुम्हें क्या अख्तियार है? अभी फौजदारी में दावा कर दे तो बंधे बंधे फिरो।

भोला ने दबकर कहा-तो लाला साहब, हम कुछ जबरदस्ती थोड़े ही खोल लाए। होरी ने खुद दिए।

पटेश्वरी ने भोला से कहा-तुम बैलों को लौटा दो भोला। किसान अपने बैल खुशी से देगा, कि इन्हें हल में जोतेगा।

भोला बैलों के सामने खड़ा हो गया-हमारे रुपय दिलवा दो, हमें बैलों को लेकर क्या करना है?

'हम बैल लिए जाते हैं, अपने रुपये के लिए दावा करो और नहीं तो मारकर गिरा दिए जाओगे। रुपये दिए थे नगद तुमने? एक कुलच्छिनी गाय बेचारे के सिर मढ़ दी और अब उसके बैल खोले लिए जाते हो।' [ १४६ ]

भोला बैलों के सामने से न हटा। खड़ा रहा गुमसुम, मानो मरकर ही हटेगा। पटवारी से दलील करके वह कैसे पेश पाता?

दातादीन ने एक कदम आगे बढ़ाकर अपनी झुकी कमर को सीधा करके ललकारा-तुम सब खड़े ताकते क्या हो, मार के भगा दो इसको। हमारे गांव से बैल खोल ले जायगा।

बंशी बलिष्ठ युवक था। उसने भोला को जोर से धक्का दिया। भोला संभल न सका, गिर पड़ा। उठना चाहता था कि बंशी ने फिर एक घूंसा दिया।

होरी दौड़ता हुआ आ रहा था। भोला ने उसकी ओर दस कदम बढ़कर पूछा-ईमान से कहना होरी महतो, मैंने बैल जबरदस्ती खोल लिए?

दातादीन ने इसका भावार्थ किया-यह कहते हैं कि होरी ने अपने खुशी से बैल मुझे दे दिए। हमीं को उल्लू बनाते हैं।

होरी ने सकुचाते हुए कहा-यह मुझसे कहने लगे या तो झुनिया को घर से निकाल दो या मेरे रुपये दो, नहीं तो मैं बैल खोल ले जाऊंगा। मैंने कहा, मैं बहू को तो न निकालूंगा, न मेरे पास रुपये हैं, अगर तुम्हारा धरम कहे, तो बैल खोल लो। बस, मैंने इनके धरम पर छोड़ दिया और इन्होंने बैल खोल लिए।

पटेश्वरी ने मुंह लटकाकर कहा-जब तुमने धरम पर छोड़ दिया, तब काहे की जबरदस्ती। उसके धरम ने कहा, लिए जाता है। जा भैया बैल तुम्हारे हैं।

दातादीन ने समर्थन किया-हां, जब धरम की बात आ गई, तो कोई क्या कहें। सब के सब होरी को तिरस्कार की आंखों से देखते परास्त होकर लौट पड़े और विजयी भोला शान से गर्दन उठाए बैलों को ले चला।