प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-१५

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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भोला बैलों के सामने से न हटा। खड़ा रहा गुमसुम, मानो मरकर ही हटेगा। पटवारी से दलील करके वह कैसे पेश पाता?

दातादीन ने एक कदम आगे बढ़ाकर अपनी झुकी कमर को सीधा करके ललकारा-तुम सब खड़े ताकते क्या हो, मार के भगा दो इसको। हमारे गांव से बैल खोल ले जायगा।

बंशी बलिष्ठ युवक था। उसने भोला को जोर से धक्का दिया। भोला संभल न सका, गिर पड़ा। उठना चाहता था कि बंशी ने फिर एक घूंसा दिया।

होरी दौड़ता हुआ आ रहा था। भोला ने उसकी ओर दस कदम बढ़कर पूछा-ईमान से कहना होरी महतो, मैंने बैल जबरदस्ती खोल लिए?

दातादीन ने इसका भावार्थ किया-यह कहते हैं कि होरी ने अपने खुशी से बैल मुझे दे दिए। हमीं को उल्लू बनाते हैं।

होरी ने सकुचाते हुए कहा-यह मुझसे कहने लगे या तो झुनिया को घर से निकाल दो या मेरे रुपये दो, नहीं तो मैं बैल खोल ले जाऊंगा। मैंने कहा, मैं बहू को तो न निकालूंगा, न मेरे पास रुपये हैं, अगर तुम्हारा धरम कहे, तो बैल खोल लो। बस, मैंने इनके धरम पर छोड़ दिया और इन्होंने बैल खोल लिए।

पटेश्वरी ने मुंह लटकाकर कहा-जब तुमने धरम पर छोड़ दिया, तब काहे की जबरदस्ती। उसके धरम ने कहा, लिए जाता है। जा भैया बैल तुम्हारे हैं।

दातादीन ने समर्थन किया-हां, जब धरम की बात आ गई, तो कोई क्या कहें। सब के सब होरी को तिरस्कार की आंखों से देखते परास्त होकर लौट पड़े और विजयी भोला शान से गर्दन उठाए बैलों को ले चला।


पंद्रह

मालती बाहर से तितली है, भीतर से मधुमक्खी। उसके जीवन में हंसी ही हंसी नहीं है, केवल गुड़ खाकर कौन जी सकता है और जिए भी तो वह कोई सुखी जीवन न होगा। वह हंसती है, इसलिए कि उसे इसके भी दाम मिलते हैं। उसका चहकना और चमकना, इसलिए नहीं है कि वह चहकने को ही जीवन समझती हैं, या उसने निजत्व को अपनी आंखों में इतना बढ़ा लिया है कि जो कुछ करे, अपने ही लिए करे। नहीं, वह इसलिए चहकती है और विनोद करती है कि इससे उसके कर्तव्य का भार कुछ हल्का हो जाता है। उसके बाप उन विचित्र जीवों में थे, जो केवल जबान की मदद से लाखों के वारे-न्यारे करते थे। बड़े-बड़े जमींदारों और रईसों को जायदादें बिकवाना, उन्हें कर्ज दिलाना या उनके मुआमलों का अफसरों से मिलकर तय करा देना, यह उनका व्यवसाय था। दूसरे शब्दों में दलाल थे। इस वर्ग के लोग बड़े प्रतिभावान होते हैं। जिस काम में कुछ मिलने की आशा हो, वह उठा लेंगे और किसी न किसी तरह उसे निभा भी देंगे। किसी राजा की शादी किसी राजकुमारी से ठीक करवा दी और दम-बीस हजार उसी में मार लिए। यही दलाल जब छोटे-छोटे सौदे करते हैं, तो टाउट कहे जाते हैं, और हम उनसे घृणा करते हैं। बड़े-बड़े काम करके वही [ १४७ ]
टाउट राजाओं के साथ शिकार खेलता है और गर्वनरों की मेज पर चाय पीता है। मिस्टर कौल उन्हीं भाग्यवानों में से थे। उनके तीन लड़कियां ही लड़कियां थीं। उनका विचार था कि तीनों को इंग्लैंड भेजकर शिक्षा के शिखर पर पहुंचा दें। अन्य बहुत से बड़े आदमियों की तरह उनका भी खयाल था कि इंग्लैंड में शिक्षा पाकर आदमी कुछ और हो जाता है। शायद वहां की जलवायु में बुद्धि को तेज कर देने की कोई शक्ति है, मगर उनकी यह कामना एक-तिहाई से ज्यादा पूरी न हुई। मालती इंग्लैंड में ही थी कि उन पर फालिज गिरा और बेकाम कर गया। अब बड़ी मुश्किल से दो आदमियों के सहारे उठते-बैठते थे। जबान तो बिल्कुल बंद ही हो गई। और जब जबान ही बंद हो गई, तो आमदनी भी बंद हो गई। जो कुछ थी, जबान ही की कमाई थी। कुछ बचाकर रखने की उनकी आदत न थी। अनियमित आय थी, और अनियमित खर्च था, इसलिए इधर कई साल से बहुत तंगहाल हो रहे थे। सारा दायित्व मालती पर आ पड़ा। मालती के चार-पांच सौ रुपये में वह भोग-विलास और ठाठ-बाट तो क्या निभता। हां, इतना था कि दोनों लड़कियों की शिक्षा होती जाती थी और भलेमानसों की तरह जिंदगी बसर होती थी। मालती सुबह से पहर रात तक दौड़ती रहती थी। चाहती थी कि पिता सात्विकता के साथ रहें, लेकिन पिताजी को शराब-कबाब का ऐसा चस्का पड़ा था कि किसी तरह गला न छोड़ता था। कहीं से कुछ न मिलता, तो एक महाजन से अपने बंगले पर प्रोनोट लिखकर हजार दो हजार ले लेते थे। महाजन उनका पुराना मित्र था, जिसने उनकी बदौलत लेन-देन में लाखों कमाए थे, और मुरौवत के मारे कुछ बोलता न था, उसके पचीस हजार चढ़ चुके थे, और जब चाहता, कुर्की करा सकता था, मगर मित्रता की लाज निभाता जाता था। आत्मसेवियों में जो निर्लज्जता आ जाती है, वह कौल में भी थी। तकाजे हुआ करें, उन्हें परवा न थी। मालती उनके अपव्यय पर झुंझलाती रहती थी, लेकिन उसकी माता जो साक्षात् देवी थीं और इस युग में भी पति की सेवा को नारी-जीवन का मुख्य हेतु समझती थीं, उसे समझाती रहती थीं, इसलिए गृह-युद्ध न होने पाता था।

संध्या हो गई थी। हवा में अभी तक गर्मी थी। आकाश में धुंध छाया हुआ था। मालती और उसकी दोनों बहनें बंगले के सामने घास पर बैठी हुई थीं। पानी न पाने के कारण वहां की दूब जल गई थी और भीतर की मिट्टी निकल आई थी।

मालती ने पूछा-माली क्या बिल्कुल पानी नहीं देता?

मंझली बहन सरोज ने कहा-पड़ा-पड़ा सोया करता है सूअर। जब कहो, तो बीस बहाने निकालने लगता है।

सरोज बी° ए॰ में पढ़ती थी, दुबली-सी लंबी, पीली, रूखी, कटु। उसे किसी की कोई बात पसंद न आती थी। हमेशा ऐब निकालती रहती थी। डाक्टरों की सलाह थी कि वह कोई परिश्रम न करे और पहाड़ पर रहे, लेकिन घर की स्थिति ऐसी न थी कि उसे पहाड़ पर भेजा जा सकता।

सबसे छोटी वरदा को सरोज से इसलिए द्वेष था कि सारा घर सरोज को हाथों हाथ लिए रहता था, वह चाहती थी जिस बीमारी में इतना स्वाद है, वह उसे ही क्यों नहीं हो जाती। गोरी-सी, गर्वशील, स्वस्थ, चंचल आंखों वाली बालिका थी, जिसके मुख पर प्रतिभा की झलक थी। सरोज के सिवा उसे सारे संसार से सहानुभूति थी। सरोज के कथन का विरोध करना उसका स्वभाव था। बोली-दिन-भर दादाजी बाजार भेजते रहते हैं, फुरसत ही कहां पाता है। मरने [ १४८ ]
की छुट्टी तो मिलती नहीं, पड़ा-पड़ा सोएगा।

सरोज ने डांटा-दादाजी उसे कब बाजार भेजते हैं री, झूठी कहीं की ।

'रोज भेजते हैं, रोज। अभी तो आज ही भेजा था। कहो तो बुलाकर पुछवा दूं?'

'पुछवाएगी, बुलाऊं?'

मालती डरी। दोनों गुथ जायंगी, तो बैठना मुश्किल कर देंगी। बात बदलकर बोली-अच्छा खैर, होगा। आज डाक्टर मेहता का तुम्हारे यहां भाषण हुआ था, सरोज?

सरोज ने नाक सिकोड़कर कहा-हां, हुआ तो था, लेकिन किसी ने पसंद नहीं किया। आप फरमाने लगे-संसार में स्त्रियों का क्षेत्र पुरुषों से बिल्कुल अलग है। स्त्रियों का पुरुषों के क्षेत्र में आना इस युग का कलंक है। सब लड़कियों ने तालियां और सीटियां बजानी शुरू कीं। बेचारे लज्जित होकर बैठ गए। कुछ अजीब-से आदमी मालूम होते हैं। आपने यहां तक कह डाला कि प्रेम केवल कवियों की कल्पना है। वास्तविक जीवन में इसका कहीं निशान नहीं। लेडी हुक्कू ने उनका खूब मजाक उड़ाया।

मालती ने कटाक्ष किया-लेडी हुक्कू ने? इस विषय में वह भी कुछ बोलने का साहस रखती हैं। तुम्हें डाक्टर साहब का भाषण आदि से अंत तक सुनना चाहिए था। उन्होंने दिल में लड़कियों को क्या समझा होगा?

'पूरा भाषण सुनने का सब्र किसे था? वह तो जैसे घाव पर नमक छिड़कते थे।'

'फिर उन्हें बुलाया ही क्यों? आखिर उन्हें औरतों से कोई बैर तो है नहीं। जिस बात को हम सत्य समझते हैं, उसी का तो प्रचार करते हैं। औरतों को खुश करने के लिए वह उनकी-सी कहने वालों में नहीं हैं और फिर अभी यह कौन जानता है कि स्त्रियां जिस रास्ते पर चलना चाहती हैं, वही सत्य है। बहुत संभव है, आगे चलकर हमें अपनी धारणा बदलनी पड़े।'

उसने फ्रांस, जर्मनी और इटली की महिलाओं के जीवन आदर्श बतलाए और कहा-शीघ्र ही वीमेन्स लीग की ओर से मेहता का भाषण होने वाला है।

सरोज को कौतूहल हुआ।

'मगर आप भी तो कहती हैं कि स्त्रियों और पुरुषों के अधिकार समान होने चाहिए।'

'अब भी कहती हूं, लेकिन दूसरे पक्ष वाले क्या कहते हैं, यह भी तो सुनना चाहिए। संभव है, हमीं गलती पर हों।

यह लीग इस नगर की नई संस्था है और मालती के उद्योग से खुली है नगर की सभी शिक्षित महिलाएं उसमें शरीक हैं। मेहता के पहले भाषण ने महिलाओं में बड़ी हलचल मचा दी थी और लीग ने निश्चय किया था, कि उनका खूब दंदाशिकन जवाब दिया जाय। मालती ही पर यह भार डाला गया था। मालती कई दिन तक अपने पक्ष के समर्थन में युक्तियां और प्रमाण खोजती रही। और भी कई देवियां अपने भाषण लिख रही थीं। उस दिन जब मेहता शाम को लीग के हाल में पहुंचे, तो जान पड़ता था, हाल फट जायगा। उन्हें गर्व हुआ। उनका भाषण सुनने के लिए इतना उत्साह और वह उत्साह केवल मुख पर और आंखों में न था। आज सभी देवियां सोने और रेशम से लदी हुई थीं, मानो किसी बारात में आई हों। मेहता को परास्त करने के लिए पूरी शक्ति से काम लिया गया था और यह कौन कह सकता है कि जगमगाहट शक्ति [ १४९ ]
का अंग नहीं है। मालती ने तो आज के लिए नए फैशन की साड़ी निकाली थी, नए काट के जंपर बनवाए थे। और रंग-रोगन और फूलों से खूब सजी हुई थी, मानो उसका विवाह हो रहा हो। वीमेंस लीग में इतना समारोह और कभी न हुआ था। डाक्टर मेहता अकेले थे, फिर भी देवियों के दिल कांप रहे थे। सत्य की एक चिंगारी असत्य के एक पहाड़ को भस्म कर सकती है।

सबसे पीछे की सफ मिर्जा और खन्ना और संपादकसी भी विराज रहे थे। रायसाहब भाषण शुरू होने के बाद आए और पीछे खड़े हो गए।

मिर्जा ने कहा-आ जाइए आप भी, खड़े कब तक रहिएगा?

रायसाहब बोले—नहीं भाई, यहां मेरा दम घुटने लगेगा।

'तो मैं खड़ा होता हूं। आप बैठिए।'

रायसाहब ने उनके कंधे दबाए-तकल्लुफ नहीं, बैठे रहिए। मैं थक जाऊंगा, तो आपको उठा दूंगा और बैठ जाऊंगा, अच्छा मिस मालती सभा नेत्री हुई। खन्ना साहब कुछ इनाम दिलवाइए।

खन्ना ने रोनी सूरत बनाकर कहा-अब मिस्टर मेहता पर निगाह है। मैं तो गिर गया।

मिस्टर मेहता का भाषण शुरू हुआ-

'देवियों, जब मैं इस तरह आपको संबोधित करता हूं, तो आपको कोई बात खटकती नहीं। आप इस सम्मान को अपना अधिकार समझती हैं, लेकिन आपने किसी महिला को पुरुषों के प्रति 'देवता' का व्यवहार करते सुना है? उसे आप देवता कहें, तो वह समझेगा, आप उसे बना रही हैं। आपके पास दान देने के लिए दया है, श्रद्धा है, त्याग है। पुरुष के पास दान के लिए क्या है? वह देवता नहीं, लेवता है। वह अधिकार के लिए हिंसा करता है, संग्राम करता है, कलह करता है...'

तालियां बजीं। रायसाहब ने कहा-औरतों को खुश करने का इसने कितना अच्छा ढंग निकाला।

'बिजली' संपादक को बुरा लगा-कोई नई बात नहीं। कितनी ही बार यह भाव व्यक्त कर चुका हूं।

मेहता आगे बढ़े-इसलिए जब मैं देखता हूं, हमारी उन्नत विचारों वाली देवियां उस दया और श्रद्धा और त्याग के जीवन से असंतुष्ट होकर संग्राम और कलह और हिंसा के जीवन की ओर दौड़ रही हैं और समझ रही हैं कि यही सुख का स्वर्ग है, तो मैं उन्हें बधाई नहीं दे सकता।

मिसेज खन्ना ने मालती की ओर सगर्व नेत्रों से देखा। मालती ने गर्दन झुका ली।

खुर्शेद बोले-अब कहिए। मेहता दिलेर आदमी है। सच्ची बात कहता है और मुंह पर।

'बिजली' संपादक ने नाक सिकोड़ी-अब वह दिन लद गए, जब देवियां इन चकमों में आ जाती थीं। उनके अधिकार हड़पते जाओ और कहते आओ, आप तो देवी हैं, लक्ष्मी हैं, माता हैं।

मेहता आगे बढ़े-स्त्री को पुरुष के रूप में, पुरुष के कर्म में रत देखकर मुझे उसी तरह वेदना होती है, जैसे पुरुष को स्त्री के रूप में, स्त्री के कर्म करते देखकर। मुझे विश्वास है, ऐसे पुरुषों को आप अपने विश्वास और प्रेम का पात्र नहीं समझतीं और मैं आपको विश्वास दिलाता [ १५० ]
हूं, ऐसी स्त्री भी पुरुष के प्रेम और श्रद्धा का पात्र नहीं बन सकती।

खन्ना के चेहरे पर दिल की खुशी चमक उठी।

रायसाहब ने चुटकी ली-आप बहुत खुश हैं खन्नाजी।

खन्ना बोले-मालती मिलें, तो पूछूं। अब कहिए।

मेहता आगे बढ़े-मैं प्राणियों के विकास में स्त्री के पद को पुरुष के पद से श्रेष्ठ समझता हूं, उसी तरह जैसे प्रेम और त्याग और श्रद्धा को हिंसा और संग्राम और कलह से श्रेष्ठ समझता हूं। अगर हमारी देवियां सृष्टि और पालन के देव-मंदिर से हिंसा और कलह के दानव-क्षेत्र में आना चाहती हैं, तो उससे समाज का कल्याण न होगा। मैं इस विषय में दृढ़ हूं। पुरुष ने अपने अभिमान में अपनी दानवी कीर्ति को अधिक महत्त्व दिया है। वह अपने भाई का स्वत्व छीनकर और उसका रक्त बहाकर समझने लगा, उसने बहुत बड़ी विजय पाई। जिन शिशुओं को देवियों ने अपने रक्त से सिरजा और पाला, उन्हें बम और मशीनगन और सहस्रों टैंकों का शिकार बनाकर वह अपने को विजेता समझता है। और जब हमारी ही माताएं उसके माथे पर केसर का तिलक लगाकर और उसे अपनी असीसों का कवच पहनाकर हिंसा क्षेत्र में भेजती हैं, तो आश्चर्य है कि पुरुष ने विनाश को ही संसार के कल्याण की वस्तु समझा और उसकी हिंसा-प्रवृत्ति दिन-दिन बढ़ती गई और आज हम देख रहे हैं कि यह दानवता प्रचंड होकर समस्त संसार को रौंदती, प्राणियों को कुचलती, हरी-भरी खेतियों को जलाती और गुलजार बस्तियों को वीरान करती चली जाती है। देवियो, मैं आपसे पूछता हूं, क्या आप इस दानवलीला में सहयोग देकर, इस संग्राम-क्षेत्र में उतरकर संसार का कल्याण करेंगी? मैं आपसे विनती करता हूं, नाश करने वालों को अपना काम करने दीजिए, आप अपने धर्म का पालन किए जाइए।

खन्ना बोले-मालती की तो गर्दन ही नहीं उठती।

रायसाहब ने इन विचारों का समर्थन किया-मेहता कहते तो यथार्थ ही हैं।

'बिजली' संपादक बिगड़े-मगर कोई बात तो नहीं कही। नारी-आंदोलन के विरोधी इन्हीं ऊटपटांग बातों की शरण लिया करते हैं। मैं इसे मानता ही नहीं कि त्याग और प्रेम से संसार ने उन्नति की। संसार ने उन्नति की है पौरुष से, पराक्रम से, बुद्धि-बल से, तेज से।

खुर्शेद ने कहा-अच्छा, सुनने दीजिएगा या अपनी ही गाए जाइएगा।

मेहता का भाषण जारी था-देवियो, मैं उन लोगों में नहीं हूं, जो कहते हैं, स्त्री और पुरुष में समान शक्तियां हैं, समान प्रवृत्तियां हैं, और उनमें कोई विभिन्नता नहीं है। इससे भयंकर असत्य की मैं कल्पना नहीं कर सकता। यह वह असत्य है, जो युग-युगांतरों से संचित अनुभव को उसी तरह ढंक लेना चाहता है, जैसे बादल का एक टुकड़ा सूर्य को ढंक लेता है। मैं आपको सचेत किए देता हूं कि आप इस जाल में न फंसें। स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से। मुनष्य के लिए क्षमा और त्याग और अहिंसा जीवन के उच्चतम आदर्श हैं। नारी इस आदर्श को प्राप्त कर चुकी है। पुरुष धर्म और अध्यात्म और ऋषियों का आश्रय लेकर उस लक्ष्य पर पहुंचने के लिए सदियों से जोर मार रहा है, पर सफल नहीं हो सका। मैं कहता हूं, उसका सारा अध्यात्म और योग एक तरफ और नारियों का त्याग एक तरफ। [ १५१ ]

तालियां बजीं। हाल हिल उठा। रायसाहब ने गद्गद होकर कहा मेहता वही कहते हैं, जो इनके दिल में है।

ओंकारनाथ ने टीका की लेकिन बातें सभी पुरानी हैं, सड़ी हुई।

'पुरानी बात भी आत्मबल के साथ कही जाती है, तो नई हो जाती है।'

'जो एक हजार रुपये हर महीने फटकारकर विलास में उड़ाता हो, उसमें आत्मबल जैसी वस्तु नहीं रह सकती। यह केवल पुराने विचार की नारियों और पुरुषों को प्रसन्न करने के ढंग हैं।'

खन्ना ने मालती की ओर देखा-यह क्यों फूली जा रही है? इन्हें तो शरमाना चाहिए।

खुर्शेद ने खन्ना को उकसाया-अब तुम भी एक तकरीर कर डालो खन्ना, नहीं मेहता तुम्हें उखाड़ फेंकेगा। आधा मैदान तो उसने अभी मार लिया है।

खन्ना खिसियाकर बोले-मेरी न कहिए। मैंने ऐसी कितनी चिड़िया फंसाकर छोड़ दी हैं।

रायसाहब ने खुर्शेद की तरफ आंख मारकर कहा-आजकल आप महिला-समाज की तरफ आते-जाते हैं। सच कहना, कितना चंदा दिया?

खन्ना पर झेंप छा गई–ऐसे समाजों को चंदे नहीं दिया करता, जो कला का ढोंग रचकर दुराचार फैलाते हैं।

मेहता का भाषण जारी था-

'पुरुष कहता है, जितने दार्शनिक और वैज्ञानिक आविष्कारक हुए हैं, वह सब पुरुष थे। जितने बड़ेबड़े महात्मा हुए हैं, वह सब पुरुष थे। सभी योद्धा, सभी राजनीति के आचार्य, बड़े-बड़े सब कुछ पुरुष थे, लेकिन इन बड़ों-बड़ों के समूहों ने मिलकर किया क्या? महात्माओं और धर्मप्रवर्तकों ने संसार में रक्त की नदियां बहाने और वैमनस्य की आग भड़काने के सिवा और क्या किया, योद्धाओं ने भाइयों की गर्दनें काटने के सिवा और क्या यादगार छोड़ी, राजनीतिज्ञों की निशानी अब केवल लुप्त साम्राज्यों के खंडहर रह गए हैं, और आविष्कारकों ने मनुष्य को मशीन का गुलाम बना देने के सिवा और क्या समस्या हल कर दी? पुरुषों को इस रची हुई संस्कृति में शांति कहां है? सहयोग कहां है ?'

ओंकारनाथ उठकर जाने को हुए-विलासियों के मुंह से बड़ी-बड़ी बातें सुनकर मेरी देह भस्म हो जाती है।

खुर्शेद ने उनका हाथ पकड़कर बैठाया-आप भी संपादकजी निरे पोंगा ही रहे। अजी यह दुनिया है, जिसके जी में जो आता है, बकता है। कुछ लोग सुनते हैं और तालियां बजाते है। चलिए, किस्सा खत्म। ऐसे-ऐसे बेशुमार मेहते आयंगे और चले जायंगे और दुनिया अपनी रफ्तार से चलती रहेगी। बिगड़ने की कौन-सी बात है?

'असत्य सुनकर मुझसे सहा नहीं जाता।'

रायसाहब ने उन्हें और चढ़ाया-कुलटा के मुंह से सतियों की-सी बात सुनकर किसका जी न जलेगा।

ओंकारनाथ फिर बैठ गएमेहता का भाषण जारी था-

'मैं आपसे पूछता हूं, क्या बाज को चिड़ियों का शिकार करते देखकर हंस को यह शोभा देगा कि वह मानसरोवर की आनंदमयी शांति को छोड़कर चिड़ियों का शिकार करने लगे? और [ १५२ ]
अगर वह शिकारी बन जाय, तो आप उसे बधाई देंगी? इंस के पास उतनी तेज चोंच नहीं है, उतने तेज चंगुल नहीं हैं, उतनी तेज आंखें नहीं हैं, उतने तेज पंख नहीं हैं और उतनी तेज रक्त की प्यास नहीं है। उन अस्त्रों का संचय करने में उसे सदियां लग जायंगी, फिर भी वह बाज बन सकेगा या नहीं, इसमें संदेह है, मगर बाज बने या न बने, वह हंस न रहेगा-वह हंस जो मोती चुगता है।'

खुर्शेद ने टीका की-यह तो शायरों की-सी दलीलें हैं। मादा बाज भी उसी तरह शिकार करती है, जैसे, नर बाज।

ओंकारनाथ प्रसन्न हो गए-उस पर आप फिलॉसफर बनते हैं, इसी तर्क के बल पर।

खन्ना ने दिल का गुबार निकाला-फिलॉसफर नहीं फिलॉसफर की दुम हैं। फिलॉसफर वह है जा....

ओंकारनाथ ने बात पूरी की-जो सत्य से जौं-भर भी न टले।

खन्ना को यह समस्या-पूर्ति नहीं रुची-मैं सत्य-वत्य नहीं जानता: मैं तो फिलॉसफर उसे कहता हूं, जो फिलॉसफर हो सच्चा।

खुर्शेद ने दाद दी-फिलॉसफर की आपने कितनी सच्ची तारीफ की है। वाह, सुभानल्ला। फिलॉसफर वह है, जो फिलॉसफर हो। क्यों न हो।

मेहता आगे चले-मैं नहीं कहता, देवियों को विद्या की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक। मैं नहीं कहता, देवियों को शक्ति की जरूरत नहीं है। है और पुरुषों से अधिक, लेकिन वह विद्या और वह शक्ति नहीं, जिससे पुरुष ने संसार को हिंसा क्षेत्र बना डाला है। अगर वही विद्या और वही शक्ति आप भी ले लेंगी, तो संसार मरुस्थल हो जायगा। आपकी विद्या और आपका अधिकार हिंसा और विध्वंस में नहीं, सृष्टि और पालन में है। क्या आप समझती हैं, वोटों से मानव-जाति का उद्धार होगा, या दफ्तरों में और अदालतों में जबान और कलम चलाने से? इन नकली, अप्राकृतिक, विनाशकारी अधिकारों के लिए आप वह अधिकार छोड़ देना चाहती हैं, जो आपको प्रकृति ने दिए हैं?

सरोज अब तक बड़ी बहन के अदब से जब्त किए बैठी थी। अब न रहा गया। फुफकार उठी-हमें वोट चाहिए, पुरुषों के बराबर।

और कई युवतियों ने हांक लगाई-वोट। वोट ।

ओंकारनाथ ने खड़े होकर ऊंचे स्वर से कहा-नारी-जाति के विरोधियों की पगड़ी नीची हो।

मालती ने मेज पर हाथ पटककर कहा-शांत रहो, जो लोग पक्ष या विपक्ष में कुछ कहना चाहेंगे, उन्हें पूरा अवसर दिया जायगा।

मेहता बोले-वोट नए युग का मायाजाल है, मरीचिका है, कलंक है, धोखा है, उसके चक्कर में पड़कर आप न इधर की होंगी, न उधर की। कौन कहता है कि आपका क्षेत्र संकुचित है और उसमें आपको अभिव्यक्ति का अवकाश नहीं मिलता। हम सभी पहले मनुष्य हैं, पीछे और कुछ। हमारा जीवन हमारा घर है। वहीं हमारी सृष्टि होती है, वहीं हमारा पालन होता है, वहीं जीवन के सारे व्यापार होते हैं। अगर वह क्षेत्र परिमित है, तो अपरिमित कौन-सा क्षेत्र है? क्या वह संघर्ष, जहां संगठित अपहरण हैं? जिस कारखाने में मनुष्य और उसका भाग्य बनता है, उसे छोड़कर आप उन कारखानों में जाना चाहती हैं, जहां मनुष्य पीसा जाता है, जहां उसका [ १५३ ]
रक्त निकाला जाता है?

मिर्जा ने टोका-पुरुषों के जुल्म ने ही उनमें बगावत की यह स्पिरिट पैदा की है।

मेहता बोले-बेशक, पुरुषों ने अन्याय किया है, लेकिन उसका यह जवाब नहीं है। अन्याय को मिटाइए, लेकिन अपने को मिटाकर नहीं।

मालती बोली-नारियां इसलिए अधिकार चाहती हैं कि उनका सदुपयोग करें और पुरुषों को उनका दुरुपयोग करने से रोकें।

मेहता ने उत्तर दिया-संसार में सबसे बड़े अधिकार सेवा और त्याग से मिलते हैं और वह आपको मिले हुए हैं। उन अधिकारों के सामने वोट कोई चीज नहीं। मुझे खेद है, हमारी बहनें पश्चिम का आदर्श ले रही हैं, जहां नारी ने अपना पद खो दिया है और स्वामिनी से गिरकर विलास की वस्तु बन गई है। पश्चिम की स्त्री स्वछंद होना चाहती हैं, इसीलिए कि वह अधिक से अधिक विलास कर सकें। हमारी माताओं का आदर्श कभी विलास नहीं रहा। उन्होंने केवल सेवा के अधिकार से सदैव गृहस्थी का संचालन किया है। पश्चिम में जो चीजें अच्छी हैं, वह उनसे लीजिए। संस्कृति में सदैव आदान-प्रदान होता आया है, लेकिन अंधी नकल तो मानसिक दुर्बलता का ही लक्षण है। पश्चिम की स्त्री आज गृह-स्वामिनी नहीं रहना चाहती। भोग की विदग्ध लालसा ने उसे उच्छृंखल बना दिया है। वह अपनी लज्जा और गरिमा को, जो उसकी सबसे बड़े विभूति थी, चंचलता और आमोद-प्रमोद पर होम कर रही है। जब मैं वहां की शिक्षित बालिकाओं को अपने रूप का, या भरी हुई गोल बांहों या अपनी नग्नता का प्रदर्शन करते देखता हूं, तो मुझे उन पर दया आती है। उनकी लालसाओं ने उन्हें इतना पराभूत कर दिया है कि वे अपनी लज्जा की भी रक्षा नहीं कर सकतीं। नारी की इससे अधिक और क्या अधोगति हो सकती है?

रायसाहब ने तालियां बजाईं। हाल तालियों से गूंज उठा, जैसे पटाखों की लड़ियां छूट रही हों।

मिर्जा साहब ने संपादक जी से कहा-इसका जवाब तो आपके पास भी न होगा?

संपादकजी ने विरक्त मन से कहा—सारे व्याख्यान में इन्होंने यही एक बात सत्य कही है।

'तब तो आप भी मेहता के मुरीद हुए।'

'जी नहीं, अपने लोग किसी के मुरीद नहीं होते। मैं इसका जवाब ढूंढ निकालूंगा 'बिजली' में देखिएगा।

'इसके माने यह हैं कि आप हक की तलाश नहीं करते, सिर्फ अपने पक्ष के लिए लड़ना चाहते हैं।'

रायसाहब ने आड़े हाथों लिया-इसी पर आपको अपने सत्यप्रेम का अभिमान है?

संपादकजो अविचल रहे-वकील का काम अपने मुअक्किल का हित देखना है, सत्य या असत् का निराकरण नहीं।

'तो यों कहिए कि आप औरतों के वकील हैं?'

'मैं उन, सभी लोगों का वकील हूं, जो निर्बल हैं, निस्सहाय हैं, पीड़ित हैं।'

'बड़े बेहया हो यार!'

मेहताजी कह रहे थे-और यह पुरुषों का षड्यंत्र है। देवियों को ऊंचे शिखर से खींचकर [ १५४ ]
अपने बराबर बनाने के लिए, उन पुरुषों का, जो कायर हैं, जिनमें वैवाहिक जीवन का दायित्व संभालने की क्षमता नहीं है, जो स्वच्छंद काम-क्रीड़ा की तरंगों में सांड़ों की भांति दूसरों की हरी-भरी खेती में मुंह डालकर अपनी कुत्सित लालसाओं को तृप्त करना चाहते हैं। पश्चिम में इनका षड्यंत्र सफल हो गया और देवियां तितलियां बन गईं। मुझे यह कहते हुए शर्म आती है कि इस त्याग और तपस्या की भूमि भारत में भी कुछ वही हवा चलने लगी है? विशेषकर हमारी शिक्षित बहनों पर वह जादू बड़ी तेजी से चढ़ रहा है। वह गृहिणी का आदर्श त्यागकर तितलियों का रंग पकड़ रही हैं।

सरोज उत्तेजित होकर बोली-हम पुरुषों से सलाह नहीं मांगतीं। अगर वह अपने बारे में स्वतंत्र हैं, तो स्त्रियां भी अपने विषय में स्वतंत्र हैं। युवतियां अब विवाह को पेशा नहीं बनाना चाहतीं। वह केवल प्रेम के आधार पर विवाह करेंगी।

जोर से तालियां बजीं, विशेषकर अगली पंक्तियों में, जहां महिलाएं थीं।

मेहता ने जवाब दिया-जिसे तुम प्रेम कहती हो, वह धोखा है, उद्दीप्त लालसा का कविकृत रूप, उसी तरह जैसे संन्यास केवल भीख मांगने का संस्कृत रूप है। वह प्रेम अगर वैवाहिक जीवन में कम है, तो मुक्त विलास में बिल्कुल नहीं है। सच्चा आनंद, सच्ची शांति केवल सेवा-व्रत में है। वही अधिकार का स्त्रोत है, वही शक्ति का उद्गम है। सेवा ही वह सीमेंट है, जो दंपति को जीवनपर्यंत स्नेह और साहचर्य में जोड़े रख सकता है, जिस पर बड़े-बड़े आघातों का भी कोई असर नहीं होता। जहां सेवा का अभाव है, वहीं विवाह-विच्छेद है, परित्याग है, अविश्वास है। और आपके ऊपर, पुरुष-जीवन की नौक़ा का कर्णधार होने के कारण जिम्मेदारी ज्यादा है। आप चाहें तो नौका को आंधी और तूफानों में पार लगा सकती हैं। और आपने असावधानी की, तो नौका डूब जायगी और उसके साथ आप भी डूब जायंगी।

भाषण समाप्त हो गया। विषय विवाद-ग्रस्त था और कई महिलाओं ने जवाब देने की अनुमति मांगी, मगर देर बहुत हो गई थी। इसलिए मालती ने मेहता को धन्यवाद देकर सभा भंग कर दी। हां, यह सूचना दे दी गई कि अगले रविवार को इसी विषय पर कई देवियां अपने विचार प्रकट करेंगी।

रायसाहब ने मेहता को बधाई दी-आपने मेरे मन की बातें कहीं। मिस्टर मेहता। मैं आपके एक-एक शब्द से सहमत हूं।

मालती हंसी-आप क्यों न बधाई देंगे, चोर-चोर मौसेरे भाई जो होते हैं, मगर यहां सारा उपदेश गरीब नारियों ही के सिर क्यों थोपा जाता है? उन्हीं के सिर क्यों आदर्श और मर्यादा और त्याग सब कुछ पालन करने का भार पटका जाता है?

मेहता बोले-इसलिए कि वह बात समझती हैं।

खन्ना ने मालती की ओर अपनी बड़ी-बड़ी आंखों से देखकर मानो उसके मन की बात समझने की चेष्टा करते हुए कहा-डाक्टर साहब के यह विचार मुझे तो कोई सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं।

मालती ने कटु होकर पूछा-कौन से विचार?

'यही सेवा और कर्तव्य आदि।'

'तो आपको ये विचार सौ साल पिछड़े हुए मालूम होते हैं। तो कृपा करके अपने ताजे [ १५५ ]
विचार बतलाइए। दंपति कैसे सुखी रह सकते हैं, इसका कोई ताज नुस्खा आपके पास है?'

खन्ना खिसिया गए। बात कही मालती को खुश करने के लिए, और वह तिनक उठी। बोले-यह नुस्खा तो मेहता साहब को मालूम होगा।

'डाक्टर साहब ने तो बतला दिया और आपके खयाल में वह सौ साल पुराना है, तो नया नुस्ख़ा आपको बतलाना चाहिए। आपको ज्ञात नहीं कि दुनिया में ऐसी बहुत सी बातें हैं, जो कभी पुरानी हो ही नहीं सकतीं। समाज में इस तरह की समस्याएं हमेशा उठती रहती हैं और हमेशा उठती रहेंगी।

मिसेज खन्ना बरामदे में चली गई थीं। मेहता ने उनके पास जाकर प्रणाम करते हुए पूछा-मेरे भाषण के विषय में आपकी क्या राय है?

मिसेज खन्ना ने आंखें झुकाकर कहा-अच्छा था, बहुत अच्छा, मगर अभी आप अविवाहित हैं, तभी नारियां देवियां हैं, श्रेष्ठ हैं, कर्णधार हैं। विवाह कर लीजिए तो पूछूंगी,अब नारियां क्या हैं? और विवाह आपको करना पड़ेगा, क्योंकि आप विवाह से मुंह चुराने वाले मर्दों को कायर कह चुके हैं।

मेहता हंसे-उसी के लिए तो जमीन तैयार कर रहा हूं।

'मिस मालती से जोड़ा भी अच्छा है।'

'शर्त यही है कि वह कुछ दिन आपके चरणों में बैठकर आपसे नारी-धर्म सीखें।'

'वही स्वार्थी पुरुषों की बात। आपने पुरुष- कर्त्तव्य सीख लिया है?'

'यही सोच रहा हूं किससे सीखूं।'

'मिस्टर खन्ना आपको बहुत अच्छी तरह सिखा सकते हैं।'

मेहता ने कहकहा मारा-नहीं, मैं पुरुष-कर्त्तव्य भी आप ही से सीखूंगा।

'अच्छी बात है, मुझ से सीखिए। पहली बात यही है कि भूल जाइए कि नारी श्रेष्ठ है। और सारी जिम्मेदारी उसी पर है, श्रेष्ठ पुरुष है और उसी पर गृहस्थी का सारा भार है। नारी में सेवा और संयम और कर्त्तव्य सब कुछ वही पैदा कर सकता है, अगर उसमें इन बातों का अभाव है तो नारी में भी अभाव रहेगा। नारियों में आज जो यह विद्रोह है, इसका कारण पुरुष का इन गुणों से शून्य हो जाना है।'

मिर्जा साहब ने आकर मेहता को गोद में उठा लिया और बोले-मुबारक।

मेहता ने प्रश्न की आंखों से देखा-आपको मेरी तकरीर पसंद आई?

'तकरीर तो खैर जैसी थी वैसी थी, मगर कामयाब खूब रही। आपने परी को शीशे में उतार लिया। अपनी तकदीर सराहिए कि जिसने आज तक किसी को मुंह नहीं लगाया, वह आपका कलमा पढ़ रही है।'

मिसेज खन्ना दबी जबान से बोलीं-जब नशा ठहर जाय, तो कहिए।

मेहता ने विरक्त भाव से कहा मेरे जैसे किताब के कीड़ों को कौन औरत पसंद करेगी देवीजी। मैं तो पक्का आदर्शवादी हूं।

मिसेज खन्ना ने अपने पति को कार की तरफ जाते देखा, तो उधर चली गईं। मिर्जा भी बाहर निकल गए। मेहता ने मंच पर से अपनी छड़ी उठाई और बाहर जाना चाहते थे कि मालती ने आकर उनका हाथ पकड़ लिया और आग्रह-भरी आंखों से बोली-आप अभी नहीं जा सकते। चलिए, पापा से आपकी मुलाकात कराऊँ और आाज वहीं खाना खाइए। [ १५६ ]

मेहता ने कान पर हाथ रखकर कहा-नहीं, मुझे क्षमा कीजिए। वहां सरोज मेरी जान खा जायगी में इन लड़कियों से बहुत घबराता हूं।

'नहीं-नहीं, मैं जिम्मा लेती हूं, जो वह मुंह भी खोले।'

'अच्छा, आप चलिए, मैं थोड़ी देर में आऊंगा।'

'जी नहीं, यह न होगा। मेरी कार सरोज लेकर चल दी। आप मुझे पहुंचाने तो चलेंगे ही।'

दोनों मेहता की कार में बैठे। कार चली।

एक क्षण बाद मेहता ने पूछा-मैंने सुना है, खन्ना साहब अपनी बीबी को मारा करते हैं। तब से मुझे इनकी सूरत से नफरत हो गई। जो आदमी इतना निर्दयी हो, उसे मैं आदमी नहीं समझता। उस पर आप नारी जाति के बड़े हितैषी बनते हैं। तुमने उन्हें कभी समझाया नहीं?

मालती उद्विग्न होकर बोली-ताली हमेशा दो हथेलियों से बजती है, यह आप भूले जाते हैं।

'मैं तो ऐसे किसी कारण की कल्पना ही नहीं कर सकता कि कोई पुरुष अपनी स्त्री को मारे।'

'चाहे स्त्री कितनी ही बदजबान हो?'

'हां, कितनी ही।'

'तो आप एक नए किस्म के आदमी हैं।'

'अगर मर्द बदमिजाज है, तो तुम्हारी राय में उस मर्द पर हंटरों की बौछार करनी चाहिए क्यों?'

'स्त्री जितनी क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता। आपने खुद आज यह बात स्वीकार की है।'

‘तो औरत की क्षमाशीलता का यही पुरस्कार है। मैं समझता हूं, तुम खन्ना को मुंह लगाकर उसे और भी शह देती हो। तुम्हारा वह जितना आदर करता है, तुमसे उसे जितनी भक्ति है, उसके बल पर तुम बड़ी आसानी से उसे सीधा कर सकती हो, मगर तुम उसकी सफाई देकर स्वयं उस अपराध में शरीक हो जाती हो।'

मालती उत्तेजित होकर बोली-तुमने इस समय यह प्रसंग व्यर्थ ही छेड़ दिया। किसी की बुराई नहीं करना चाहती, मगर अभी आपने गोविन्दी देवी को पहचाना नहीं? आपने उनकी भोली-भाली शांत मुद्रा देखकर समझ लिया, वह देवी हैं। मैं उन्हें इतना ऊंचा स्थान नहीं देना चाहती। उन्होंने मुझे बदनाम करने का जितना प्रयत्न किया है, मुझ पर जैसे-जैसे आघात किए हैं वह बयान करूं, तो आप दंग रह जायेंगे और तब आपको मानना पड़ेगा कि ऐसी औरत के साथ यही व्यवहार होना चाहिए।

'आखिर उन्हें आपसे जो इतना द्वेष है, इसका कोई कारण तो होगा?'

‘कारण उनसे पूछिए। मुझे किसी के दिल का हाल क्या मालूम?'

‘उनसे बिना पूछे भी अनुमान किया जा सकता है और वह यह है-अगर कोई पुरुष मेरे और मेरी स्त्री के बीच में आने का साहस करे, तो मैं उसे गोली मार दूंगा, और उसे न मार सकूंगा, तो अपनी छाती में मार लूंगा। इसी तरह अगर किसी स्त्री को अपने और अपनी स्त्री के बीच में लाना चाहूं, तो मेरी पली को भी अधिकार है कि वह जो चाहे, करे। इस विषय में मैं कोई समझौता नहीं कर सकता। यह अवैज्ञानिक मनोवृत्ति है, जो हमने अपने बनैले पूर्वजों [ १५७ ]
से पाई है और आजकल कुछ लोग इसे असभ्य और असामाजिक व्यवहार कहेंगे, लेकिन मैं अभी तक उस मनोवृत्ति पर विजय नहीं पा सका और न पाना चाहता हूं। इस विषय में मैं कानून की परवाह नहीं करता। मेरे घर में मेरा कानून है।'

मालती ने तीव्र स्वर में पूछा- लेकिन आपने यह अनुमान कैसे कर लिया कि मैं आपके शब्दों में खन्ना और गोविन्दी के बीच आना चाहती हूं? आप ऐसा अनुमान करके मेरा अपमान कर रहे हैं। मैं खन्ना को अपनी जूतियों की नोक के बराबर भी नहीं समझती।

मेहता ने अविश्वास-भरे स्वर में कहा-यह आप दिल से नहीं कह रही हैं मिस मालती। क्या आप सारी दुनिया को बेवकूफ समझती हैं? जो बात सभी समझ रहे हैं, अगर वही बात मिसेज खन्ना भी समझें, तो मैं उन्हें दोष नहीं दे सकता।

मालती ने तिनककर कहा-दुनिया को दूसरों को बदनाम करने में मजा आता है। यह उसका स्वभाव है। मैं उसका स्वभाव कैसे बदल दूं, लेकिन यह व्यर्थ का कलंक हैं। हां, मैं इतनी बेमुरौवत नहीं हूं कि खन्ना को अपने पास आते देखकर दुतकार देती। मेरा काम ही ऐसा है कि मुझे सभी का स्वागत और सत्कार करना पड़ता है। अगर कोई इसका कुछ और अर्थ निकालता है, तो वह...वह...

मालती का गला भरा गया और उसने मुंह फेरकर रूमाल से आंसू पोंछे। फिर एक मिनट बाद बोली-औरों के साथ तुम भी मुझे.. ...इसका दुख है.. तुमसे ऐसी आशा न थी।

फिर कदाचित् उसे अपनी दुर्बलता पर खेद हुआ। वह प्रचंड होकर बोली-आपको मुझ पर आक्षेप करने का कोई अधिकार नहीं है, अगर आप भी उन्हीं मर्दों में हैं, जो किसी स्त्री-पुरुष को साथ देखकर उंगली उठाए बिना नहीं रह सकते, तो शौक से उठाइए? मुझे रत्ती-भर परवा नहीं। अगर कोई स्त्री आपके पास बार-बार किसी-न-किसी बहाने से आए, आपको अपना देवता समझे, हर एक बात में आपसे सलाह ले, आपके चरणों के नीचे आंखें बिछाए, आपको इशारा पाते ही आग में कूदने को तैयार हो, तो मैं दावे से कह सकती हूं, आप उसकी उपेक्षा न करेंगे। अगर आप उसे ठुकरा सकते हैं, तो आप मनुष्य नहीं हैं। उसके विरुद्ध आप कितने ही तर्क और प्रमाण लाकर रख दें, लेकिन मैं मानूंगी नहीं। मैं तो कहती हूं, उपेक्षा तो दूर रही, ठुकराने की बात ही क्या, आप उस नारी के चरण धो-धोकर पिएंगे, और बहुत दिन गुजरने के पहले वह आपकी हृदयेश्वरी होगी। मैं आपसे हाथ जोड़कर कहती हूं, मेरे सामने खन्ना का कभी नाम न लीजिएगा।

मेहता ने इस ज्वाला में मानो हाथ सेंकते हुए कहा-शर्त यही है कि मैं खन्ना को आपके साथ न देखूं।

'मैं मानवता की हत्या नहीं कर सकती। वह आएंगे तो मैं उन्हें दुरदुराऊंगी नहीं।'

'उनसे कहिए, अपनी स्त्री के साथ सज्जनता से पेश आएं।'

'मैं किसी के निजी मुआमले में दखल देना उचित नहीं समझती। न मुझे इसका अधिकार है।'

'तो आप किसी की जबान नहीं बंद कर सकतीं।'

मालती का बंगला आ गया। कार रुक गई। मालती उतर पड़ी और बिना हाथ मिलाए चली गई। वह यह भी भूल गई कि उसने मेहता को भोजन को दावत दी है। वह एकांत में जाकर [ १५८ ]
खूब रोना चाहती है। गोविन्दी ने पहले भी आघात किए हैं, पर आज उसने जो आघात किया है, वह बहुत गहरा, बड़ा चौड़ा और बड़ा मर्मभेदी है।

सोलह

रायसाहब को खबर मिली कि इलाके में एक वारदात हो गई है और होरी से गांव के पंचों ने जुरमाना वसूल कर लिया है, तो फौरन नोखेराम को बुलाकर जवाब-तलब किया क्यों उन्हें इसकी इत्तला नहीं दी गई। ऐसे नमकहराम और दगाबाज आदमी के लिए उनके दरबार में जगह नहीं है।

नोखेराम ने इतनी गालियां खाईं, तो जरा गर्म होकर बोले-मैं अकेला थोड़ा ही था। गांव के और पंच भी तो थे। मैं अकेला क्या कर लेता?

रायसाहब ने उनकी तोंद की तरफ भाले-जैसी नुकीली दृष्टि से देखा-मत बको जी। तुम्हें उसी वक्त कहना चाहिए था, जब तक सरकार को इत्तला न हो जाय, मैं पंचों को जुरमाना न वसूल करने दूंगा। पंचों को मेरे और मेरी रिआया के बीच में दखल देने का हक क्या है? इस डांड़-बांध के सिवा इलाके में और कौन-सी आमदनी है? वसूली सरकार के घर गई। बकाया असामियों ने दबा लिया। तब मैं कहां जाऊं? क्या खाऊँ, तुम्हारा सिर। यह लाखों रुपये का खर्च कहां से आए? खेद है कि दो पुश्तों से कारिंदगीरी करने पर भी मुझे आज तुम्हें यह बात बतलानी पड़ती है। कितने रुपये वसूल हुए थे होरी से?

नोखेरम ने सिटपिटाकर कहा-अस्सी रुपये।

'नकद?'

'नकद उसके पास कहां थे हुजूर कुछ अनाज दिया, बाकी में अपना घर लिख दिया।'

रायसाहब ने स्वार्थ का पक्ष छोड़कर होरी का पक्ष लिया—अच्छा, तो आपने और बगुलागत पंचों ने मिलकर मेरे एक मातबर असमी को तबाह कर दिया। मैं पूछता हूं, तुम लोगों को क्या हक था कि मेरे इलाके में मुझे इत्तिला दिए बगैर मेरे असामी से जुरमाना वसूल करते? इसी बात पर अगर मैं चाहूं, तो आपको उस जालिए पटवारी और उस धूर्त्त पंडित को सात-सात साल के लिए जेल भिजवा सकता हूं? आपने समझ लिया कि आप ही इलाके के बादशाह हैं। मैं कहे देता हूं, आज शाम तक जुरमाने की पूरी रकम मेरे पास पहुंच जाय, वरना बुरा होगा। मैं एक-एक से चक्की पिसवाकर छोड़ूंगा। जाइए, हां, होरी को और उसके लड़के को मेरे पास भेज दीजिएगा।

नोखेराम ने दबी जबान से कहा-उसका लड़का तो गांव छोड़कर भाग गया। जिस रात को यह वारदात हुई, उसी रात को भागा।

रायसाहब ने रोष से कहा-झूठ मत बोलो। तुम्हें मालूम है, झूठ से मेरे बदन में आग लग जाती है। मैंने आज तक कभी नहीं सुना कि कोई युवक अपनी प्रेमिका को उसके घर से लाकर फिर खुद भाग जाय। अगर उसे भागना ही होता, तो वह उस लड़की को लाता क्यों? तुम लोगों की इसमें भी जरूर कोई शरारत है। तुम गंगा में डूबकर भी अपनी सफाई दो, तो मैं मानने का