प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-२४

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २३४ ]

धनिया ने निर्भीक स्वर में कहा-बिगड़ेंगे तो एक रोटी बेसी खा लेंगे, और क्या करेंगे। कोई उसकी दबैल हूं? उसकी इज्जत ली, बिरादरी से निकलवाया, अब कहते हैं, मेरा तुझसे कोई वास्ता नहीं। आदमी है कि कसाई। यह उसकी नीयत का आज फल मिला है। पहले नहीं सोच लिया था। तब तो बिहार करते रहे। अब कहते हैं, मुझसे कोई वास्ता नहीं।'

होरी के विचार में धनिया गलत कर रही थी। सिलिया के घर वालों ने मतई को कितना बेधरम कर दिया, यह कोई अच्छा काम नहीं किया। सिलिया को चाहे मारकर ले जाते, चाहे दुलारकर ले जाते। वह उनकी लड़की है। मतई को क्यों बेधरम किया?

धनिया ने फटकार बताई-अच्छा रहने दो, बड़े न्यायी बनते हो। मरद-मरद सब एक होते हैं। इसको मतई ने बेधरम किया, तब तो किसी को बुरा न लगा। अब जो मतई बेधरम हो गए तो क्यों बुरा लगता है। क्या सिलिया का धरम, धरम ही नहीं? रखी तो चमारिन, उस पर नेक धरमी बनते हैं। बड़ा अच्छा किया हरखू चौधरी ने। ऐसे गुंडों की यही सजा है। तू चल सिलिया मेरे घर। न जाने कैसे बेदरद मां-बाप हैं कि बेचारी की सारी पीठ लहूलुहान कर दी। तुम जाके सोना को भेज दो। मैं इसे लेकर आती हूं।

होरी घर चला गया और सिलिया धनिया के पैरों पर गिरकर रोने लगी।


चौबीस

सोना सत्रहवें साल में थी और इस साल उसका विवाह करना आवश्यक था। होरी तो दो साल से इसी फिक्र में था, पर हाथ खाली होने से कोई काबू न चलता था। मगर इस साल जैसे भी हो, उसका विवाह कर देना ही चाहिए, चाहे कर्ज लेना पड़े, चाहे खेत गिरों रखने पड़े। और अकेले होरी की बात चलती, तो दो साल पहले ही विवाह हो गया होता। वह किफायत से काम करना चाहता था। पर धनिया कहती थी, कितना ही हाथ बांधकर खर्च करो, दो-ढाई सौ लग जायंगे। झुनिया के आ जाने से बिरादरी में इन लोगों का स्थान कुछ हेठा हो गया था और बिना सौ-दो सौ दिये कोई कुलीन बर न मिल सकता था। पिछले साल चैती में कछ मिला था तो पंडित दातादीन का आधा साझा, मगर पंडितजी ने बीज और मजूरी का कुछ ऐसा ब्यौरा बताया कि होरी के हाथ एक-चौथाई से ज्यादा अनाज न लगा। और लगान देना पड़ गया पूरा। ऊख और सन की फसल नष्ट हो गई, सन तो वर्षा अधिक होने और ऊब दीमक लग जाने के कारण। हां, इस साल चैती अच्छी थी और ऊख भी खूब लगी हुई थी। विवाह के लिए गल्ला तो मौजूद था, दो सौ रुपये भी हाथ आ जायं। तो कन्या-ऋण से उसका उद्धार हो जाय। अगर गोबर सौ रुपये की मदद कर दे, तो बाकी सौ रुपये होरी को आसानी से मिल जायंगे। झिंगुरीसिंह और मंगरू साह दोनों ही अब कुछ नर्म पड़ गए थे। जब गोबर परदेश में कमा रहा है, तो उनके रुपये मारे न जा सकते थे।

एक दिन होरी ने गोबर के पास दो-तीन दिन के लिए जाने का प्रस्ताव किया।

मगर धनिया अभी तक गोबर के वह कठोर शब्द न भूली थी। वह गोबर से एक पैसा भी न लेना चाहती थी, किसी तरह नहीं। [ २३५ ]

होरी ने झुंझलाकर कहा-लेकिन काम कैसे चलेगा, यह बता?

धनिया सिर हिलाकर बोली-मान लो, गोबर परदेस न गया होता, तब तुम क्या करते? वही अब करो।

होरी की जबान बंद हो गई। एक क्षण बाद बोला-मैं तो तुझसे पूछता हूं।

धनिया ने जान बचाई-यह सोचना मरदों का काम है।

होरी के पास जवाब तैयार था—मान ले, मैं न होता, तू ही अकेली रहती, तब क्या करती? वह कर।

धनिया ने तिरस्कार-भरी आंखों से देखा-तब मैं कुस-कन्या भी दे देती तो कोई हंसने वाला न था।

कुश-कन्या होरी भी दे सकता था। इसी में उसका मंगल था, लेकिन कुल-मर्यादा कैसे छोड़ दे? उसकी बहनों के विवाह में तीन-तीन सौ बराती द्वार पर आए थे। दहेज भी अच्छा ही दिया गया था। नाच-तमाशा, बाजा-गाजा, हाथी-घोड़े, सभी आए थे। आज भी बिरादरी में उसका नाम है। दस गांव के आदमियों से उसका हेल-मेल है। कुश-कन्या देकर वह किसे मुंह दिखाएगा? इससे तो मर जाना अच्छा है। और वह क्यों कुश-कन्या दे? पेड़-पालो हैं, जमीन है और थोड़ी-सी साख भी है, अगर वह एक बीघा भी बेच दे, तो सौ मिल जायं, लेकिन किसान के लिए जमीन जान से भी प्यारी है, कुल-मर्यादा से भी प्यारी है। और कुल तीन ही बीघे तो उसके पास है, अगर एक बीघा बेच दे, ता फिर खेती कैसे करेगा?

कई दिन इसी हैस-बैस में गुजरे। होरी कुछ फैसला न कर सका।

दशहरे की छुट्टियों के दिन थे। झिंगुरीसिंह, पटेश्वरी और नोखेराम तीनों ही सज्जनों के लड़के छुट्टियों में घर आए थे। तीनों अंग्रेजी पढ़ते थे और यद्यपि तीनों बीस-बीस साल के हो गए थे, पर अभी तक यूनिवर्सिटी में जाने का नाम न लेते थे। एक-एक क्लास में दो-दो, तीन-तीन साल पड़े रहते। तीनों की शादियां हो चुकी थीं। पटेश्वरी के सपूत बिंदेसरी तो एक पुत्र के पिता भी हो चुके थे। तीनों दिन भर ताश खेलते, भंग पीते और लैला बने घूमते। वे दिन में कई कई बार होरी के द्वार की ओर ताकते हुए निकलते और कुछ ऐसा संयोग था कि जिस वक्त वे निकलते, उसी वक्त सोना भी किसी-न-किसी काम से द्वार पर आ खड़ी होती। इन दिनों वह वही साड़ी पहनती थी, जो गोबर उसके लिए लाया था। यह सब तमाशा देख-देखकर होरी का खून सूखता जाता था, मानों उसकी खेती चौपट करने के लिए आकाश में ओले वाले पीले बादल उठे चले आते हों।

एक दिन तीनों उसी कुएं पर नहाने जा पहुंचे, जहां होरी ऊख सींचने के लिए पुर चला रहा था। सोना मोट ले रही थी। होरी का खून खौल उठा।

उसी सांझ को वह दुलारी सहुआइन के पास गया। सोचा, औरतों में दया होती है, शायद इसका दिल पसीज जाय और कम सूद पर रुपये दे दे। मगर दुलारी अपना ही रोना ले बैठी। गांव में ऐसा कोई घर न था, जिस पर उसके कुछ रुपये न आते हों, यहा तक कि झिंगुरीसिंह पर भी उसके बीस रुपये आते थे, लेकिन कोई देने का नाम न लेता था। बेचारी कहां से रुपये लाए?

होरी ने गिड़गिड़ाकर कहा-भाभी, बड़ा पुन्न होगा। तुम रुपये न दोगी, मेरे गले की फांसी खोल दोगी, झिंगुरी और पटेसरी मेरे खेतों पर दांत लगाए हुए हैं। मैं सोचता हूं, [ २३६ ]
बाप-दादा की यही तो निसानी है, यह निकल गई, तो जाऊंगा कहां? एक सपूत वह होता है कि घर की संपत बढ़ाता है, मैं ऐसा कपूत हो जाऊँ कि बाप-दादों की कमाई पर झाडू फेर दूं?

दुलारी ने कसम खाई-होरी, मैं ठाकुरजी के चरन छूकर कहती हूं कि इस समय मेरे पास कुछ नहीं है। जिसने लिया, वह देता नहीं, तो मैं क्या करूं? तुम कोई गैर तो नहीं हो। सोना भी मेरी ही लड़की है, लेकिन तुम्हीं बताओ, मैं क्या करूं? तुम्हारा ही भाई हीरा है। बैल के लिए पचास रुपये लिए। उसका तो कहीं पता-ठिकाना नहीं, उसकी घरवाली से मांगो तो लड़ने के लिए तैयार। सोभा भी देखने में बड़ा सीधा-सादा है, लेकिन पैसा देना नहीं जानता। और असल बात तो यह है कि किसी के पास है ही नहीं, दें कहां से। सबकी दशा देखती हूं, इसी मारे सबर कर जाती हूं। लोग किसी तरह पेट पाल रहे हैं, और क्या? खेती-बारी बेचने की मैं सलाह न दूंगी। कुछ नहीं है, मरजाद तो है।

फिर कनफुसकियों में बोली-पटेसरी लाला का लड़का तुम्हारे घर की ओर बहुत चक्कर लगाया करता है। तीनों का वही हाल है। इनसे चौकस रहना। यह सहरी हो गए, गांव का भाई-चारा क्या समझें? लड़के गांव में भी हैं, मगर उनमें कुछ लिहाज है, कुछ अदब है, कुछ डर है। ये सब तो छूटे सांड हैं। मेरी कौसल्या ससुराल से आई थी, मैंने इन सबों के ढंग देखकर उसके ससुर को बुलाकर विदा कर दिया। कोई कहां तक पहरा दे।

होरी को मुस्कराते देखकर उसने सरस ताड़ना के भाव से कहा-हंसोगे होरी, तो मैं भी कुछ कह दूंगी। तुम क्या किसी से कम नटखट थे? दिन में पचीसों बार किसी-न-किसी बहाने मेरी दुकान पर आया करते थे, मगर मैंने कभी ताका तक नहीं।

होरी ने मीठे प्रतिवाद के साथ कहा-यह तो तुम झूठ बोलती हो भाभी। मैं बिना कुछ रस पाए थोड़े ही आता था। चिड़िया एक बार परच जाती है, तभी दूसरी बार आंगन में आती है।

'चल झठे।'

'आंखों से न ताकती रही हो, लेकिन तुम्हारा मन तो ताकता ही था, बल्कि बुलाता था।'

'अच्छा रहने दो, बड़े आए अंतरजामी बनके। तुम्हें बार-बार मंडराते देखके मुझे दया आ जाती थी, नहीं तुम कोई ऐसे बांके जवान न थे।'

हुसेनी एक पैसे का नमक लेने आ गया और यह परिहास बंद हो गया। हुसेनी नमक लेकर चला गया, तो दुलारी ने कहा-गोबर के पास क्यों नहीं चले जाते? देखते भी आओगे और साइत कुछ मिल भी जाय।

होरी निराश मन से बोला-वह कुछ न देगा। लड़के चार पैसे कमाने लगते हैं, तो उनकी आंखें फिर जाती हैं। मैं तो बेहयाई करने को तैयार था, लेकिन धनिया नहीं मानती। उसकी मरजी बिना चला जाऊं, तो घर में रहना अपाढ़ कर दे। उसका सुभाव तो जानती हो।

दुलारी ने कटाक्ष करके कहा-तुम तो मेहरिया के जैसे गुलाम हो गए।

'तुमने पूछा ही नहीं तो क्या करता?'

'मेरी गुलामी करने को कहते तो मैंने लिखा लिया होता, सच।'

'तो अब से क्या बिगड़ा है, लिखा लो न। दो सौ मैं लिखता हूं, इन दामों मंहगा नहीं हूं।'

'तब धनिया से तो न बोलोगे?'

'नहीं, कहो कसम खाऊं।' [ २३७ ]

'और जो बोले?'

'तो मेरी जीभ काट लेना।'

'अच्छा तो जाओ, बर ठीक-ठाक करोमैं रुपये दे दूंगी।'

होरी ने सजल नेत्रों से दुलारी के पांव पकड़ लिए। भावावेश से मुंह बंद हो गया।

सहुआइन ने पांव खींचकर कहा-अब यही सरारत मुझे अच्छी नहीं लगती। मैं साल भर के भीतर अपने रुपये सूद-समेत कान पकड़कर लूंगी। तुम तो व्यवहार के ऐसे सच्चे नहीं हो, लेकिन धनिया पर मुझे विश्वास है। सुना पंडित तुमसे बहुत बिगड़े हुए हैं। कहते हैं इसे गांव से निकालकर नहीं छोड़ा तो बांभन नहीं। तुम सिलिया को निकाल बाहर क्यों नहीं करते? बैठे-बैठाए झगड़ा मोल ले लिया।

'धनिया उसे रखे हुए है, मैं क्या करूं?'

'सुना है, पंडित कासी गए थे। वहां एक बड़ा नामी विद्वान पंडित है। वह पांच सौ मांगता है। तय परासचित कराएगा? भला, पूछो ऐसा अंधेर कहीं हुआ है। जब धरम नस्ट हो गया तो एक नहीं, हजार परासचित करो, इससे क्या होता है। तुम्हारे हाथ का छुआ पानी कोई न पिएगा। चाहे जितना परासचित करो।'

होरी यहां से घर चला, तो उसका दिल उछल रहा था। जीवन में ऐसा सुखद अनुभव उसे न हुआ था। रास्ते में सोभा के घर गया और सगाई लेकर चलने के लिए नेवता दे आया। फिर दोनों दातादीन के पास सगाई की सायत पूछने गए। वहां से आकर द्वार पर सगाई की तैयारियों की सलाह करने लगे।

धनिया ने बाहर आकर कहा-पहर रात गई, अभी रोटी खाने की बेला नहीं आई? खाकर बैठो। गपड़चौथ करने को तो सारी रात पड़ी है।

होरी ने उसे भी परामर्श में शरीक होने का अनुरोध करते हुए कहा-इसी सहालग में लगन ठीक हुआ है। बता, क्या-क्या सामान लाना चाहिए? मुझे तो कुछ मालूम नहीं।

'जब कुछ मालूम ही नहीं, तो सलाह करने क्या बैठे हो? रुपये-पैसे का डौल भी हुआ कि मन में मिठाई खा रहे हो?'

होरी ने गर्व से कहा-तुझे इससे क्या मतलब? तू इतना बता दे, क्या-क्या सामान लाना होगा?

'तो मैं ऐसी मन की मिठाई नहीं खाती।'

'तू इतना बता दे कि हमारी बहनों के ब्याह में क्या-क्या सामान आया था?'

'पहले यह बता दो, रुपये मिल गए।'

'हां मिल गये, और नहीं क्या भंग खायी है।'

'तो पहले चलकर खा लो। फिर सलाह करेंगे।'

मगर जब उसने सुना कि दुलारी से बातचीत हुई है, तो नाक सिकोड़कर बोली-उससे रुपये लेकर आज तक कोई उरिन हुआ है? चुडैल कितना कसकर सूद लेती है।

'लेकिन करता क्या? दूसरा देता कौन है?'

'यह क्यों नहीं कहते कि इसी बहाने दो गाल हंसने-बोलने गया था। बूढ़े हो गए, पर यह बान न गई।'

'तू तो धनिया, कभी-कभी बच्चों की-सी बातें करने लगती है। मेरे-जैसे फटेहालों से [ २३८ ]
वह हंसे-बोलेगी? सीधे मुंह बात तो करती नहीं।'

'तुम-जैसों को छोड़कर उसके पास और जायगा ही कौन?'

'उसके द्वार पर अच्छे-अच्छे नाक रगड़ते हैं, धनिया, तू क्या जाने। उसके पास लच्छमी है।'

'उसने जरा-सी हामी भर दी, तुम चारों ओर खुसखबरी लेकर दौड़े।'

'हामी नहीं भर दी, पक्का वादा किया है।'

होरी रोटी खाने गया और सोभा अपने घर चला गया तो सोना सिलिया के साथ बाहर निकली। वह द्वार पर खड़ी सारी बातें सुन रही थी। उसकी सगाई के लिए दो सौ रुपये दुलारी से उधार लिए जा रहे हैं, यह बात उसके पेट में इस तरह खलबली मचा रही थी, जैसे ताजा चूना पानी में पड़ गया हो। द्वार पर एक कुप्पी जल रही थी, जिससे ताक के ऊपर की दीवार काली पड़ गई थी। दोनों बैल नांद में सानी खा रहे थे और कुत्ता जमीन पर टुकड़े के इंतजार में बैठा हुआ था। दोनों युवतियां बैलों की चरनी के पास आकर खड़ी हो गईं।

सोना बोली-तूने कुछ सुना? दादा सहुआइन से मेरी सगाई के लिए दो सौ रुपये उधार ले रहे हैं।

सिलिया घर का रत्ती-रत्ती हाल जानती थी। बोली-घर में पैसा नहीं हैं, तो क्या करते?

सोना ने सामने के काले वृक्षों की ओर ताकते हुए कहा-मैं ऐसा ब्याह नहीं करना चाहती जिससे मां-बाप को कर्ज लेना पड़े। कहां से देंगे बेचारे, बता पहले ही कर्ज के बोझ से दबे हुए हैं। दो सौ और ले लेंगे, तो बोझा और भारी होगा कि नहीं?

'बिना दान-दहेज के बड़े आदमियों का कहीं ब्याह होता है पगली? बिना दहेज के तो कोई बूढ़ा-ठेला ही मिलेगा। जायगी बूढे के साथ?'

'बूढ़े के साथ क्यों जाऊं? भैया बूढ़े थे जो झुनिया को ले आए? उन्हें किसने कै पैर दहेज में दिए थे?'

'उसमें बाप-दादा का नाम डूबता है।'

'मैं तो सोनारी वालों से कह दूंगी, अगर तुमने एक पैसा भी दहेज लिया, तो मैं तुमसे ब्याह न करूंगी।'

सोना का विवाह सोनारी के एक धनी किसान के लड़के से ठीक हुआ था।

'और जो वह कह दे, कि मैं क्या करूं, तुम्हारे बाप देते हैं, मेरे बाप लेते हैं, इसमें मेरा क्या अख्तियार है?'

सोना ने जिस अस्त्र को रामबाण समझा था, अब मालूम हुआ कि वह बांस की कैन है। हताश होकर बोली-मैं एक बार उससे कहके देख लेना चाहती हूं, अगर उसने कह दिया, मेरा कोई अख्तियार नहीं हैं, तो क्या गोमती यहां से बहुत दूर है? डूब मरूंगी। मां-बाप ने मर-मरके पाला-पोसा। उसका बदला क्या यही है कि उनके घर से जाने लगूं, तो उन्हें करजे से और लादती जाऊं? मां-बाप को भगवान् ने दिया हो, तो खुसी से जितना चाहें लड़की को दें, मैं मना नहीं करती, लेकिन जब वह पैसे-पैसे को तंग हो रहे हैं, आज महाजन नालिस करके लिल्लास करा ले, तो कल मजूरी करनी पड़ेगी, तो कन्या का धरम यही है कि डूब मरे। घर की जमीन-जैजात तो बच जायमी, रोटी का सहारा तो रह जायगा। मां-बाप चार दिन मेरे नाम को रोकर संतोष कर लेंगे। यह तो न होगा कि मेरा ब्याह करके उन्हें जनम-भर रोना पड़े। तीन-चार साल में दो सौ के दूने हो जाएंगे, दादा कहां से लाकर देंगे? [ २३९ ]

सिलिया को जान पड़ा, जैसे उसकी आंख में नई ज्योति आ गई है। आवेश में सोना को छाती से लगाकर बोली-तूने इतनी अक्कल कहां से सीख ली सोना? देखने में तो तू बड़ी भोली भाली है।

'इसमें अक्कल की कौन बात हैं चुड़ैल। क्या मेरे आंखें नहीं हैं कि मैं पागल हूं? दो सौ मेरे ब्याह में लें। तीन-चार साल में वह दूना हो जाय। तब रुपिया के ब्याह में दो सौ और लें। जो कुछ खेती-बारी है, सब लिलाम-तिलाम हो जाय, और द्वार-द्वार पर भीख मांगते फिरें। यही न? इससे तो कहीं अच्छा है कि मैं अपनी जान दे दूं। मुंह अंधेरे सोनारी चली जाना और उसे बुला लाना। मगर नहीं, बुलाने का काम नहीं। मुझे उससे बोलते लाज आएगी। तू ही मेरा यह संदेसा कह देना। देख क्या जवाब देते हैं। कौन दूर है? नदी के उस पार ही तो है। कभी-कभी ढोर लेकर इधर आ जाता है। एक बार उसकी भैंस मेरे खेत में पड़ गई थी, तो मैंने उसे बहुत गालियां दी थीं, हाथ जोड़ने लगा। हां, यह तो बता, इधर मतई से तेरी भेंट नहीं हुई? सुना, बांभन लोग उन्हें बिरादरी में नहीं ले रहे हैं।

सिलिया ने हिकारत के साथ कहा-बिरादरी में क्यों न लेंगे, हां, बूढ़ा रुपये नहीं खरच करना चाहता। इसको पैसा मिल जाय, तो झूठी गंगा उठा ले। लड़का आजकल बाहर ओसारे में टिक्कड लगाता है।

'उसे छोड़ क्यों नहीं देती? अपनी बिरादरी में किसी के साथ बैठ जा और आराम से रह। वह तेरा अपमान तो न करेगा।'

'हां रे, क्यों नहीं, मेरे पीछे उस बेचारे की इतनी दुरदसा हुई, अब मैं उसे छोड़ दूं? अब वह चाहे पंडित बन जाय, चाहे देवता बन जाय, मेरे लिए तो वही मतई है, जो मेरे पैरों पर सिर रगड़ा करता था, और बांभन भी हो जाय और बांभनी से ब्याह भी कर ले, फिर भी जितनी उसकी सेवा मैंने की है, वह कोई बांभनी क्या करेंगी। अभी मान मरजाद के मोह में वह चाहे मुझे छोड़ दे, लेकिन देख लेना, फिर दौड़ा आएगा।'

'आ चुका अब, तुझे पा जाय तो कच्चा ही खा जाय।'

'तो उसे बुलाने ही कौन जाता है? अपना-अपना धरम अपने-अपने साथ है। वह अपना धरम तोड़ रहा है, तो मैं अपना भरम क्यों तोड़ूं?'

प्रातःकाल सिलिया सोनारी की ओर चली, लेकिन होरी ने रोक लिया। धनिया के सिर में दर्द था। उसकी जगह क्यारियों को बराना था। सिलिया इंकार न कर सकी। यहां से जब दोपहर को छुट्टी मिली तो वह सोनारी चली।

इधर तीसरे पहर होरी फिर कुएं पर चला तो सिल्लिया का पता न था। बिगड़कर बोला-सिलिया कहां उड़ गई? रहती है, रहती है, न जाने किधर चल देती है, जैसे किसी काम में जी ही नहीं लगता। तू जानती है सोना, कहां गई है?

सोना ने बहाना किया-मुझे तो कुछ मालूम नहीं कहती थी, धोबिन के घर कपड़े लेने जाना है, वहीं चली गई होगी।

धनिया ने खाट से उठकर कहा-चलो, मैं क्यारी बराए देती हूं। कौन उसे मजूरी देते हो जो बिगड़ रहे हो?

'हमारे घर में रहती नहीं है? उसके पीछे सारे गांव में बदनाम नहीं हो रहे हैं?'

'अच्छा, रहने दो, एक कोने में पड़ी हुई है, तो उससे किराया लोगे?' [ २४० ]

'एक कोने में नहीं पड़ी हुई है, एक पूरी कोठरी लिए हुए है।'

'तो उस कोठरी का किराया होगा कोई पचास रुपये महीना।'

'उसका किराया एक पैसा नहीं। हमारे घर में रहती है, जहां जाय पूछकर जाय। आज आती है तो खबर लेता हूं।'

पुर चलने लगा। धनिया को होरी ने न आने दिया। रूपा क्यारी बराती थी और सोना मोट ले रही थी। रूपा गीली मिट्टी के चूल्हे और बरतन बना रही थी, और सोना सशंक आंखो से सोनारी की ओर ताक रही थी। शंका भी थी, आशा भी थी, शंका अधिक थी, आशा कम, सोचती थी, उन लोगों को रुपये मिल रहे हैं, तो क्यों छोड़ने लगे? जिनके पास पैसे हैं, वे तो पैसे पर और भी जान देते हैं। और गौरी महतो तो एक ही लालची हैं। मथुरा में दया है, धरम है, लेकिन बाप की जो इच्छा होगी, वही उसे माननी पड़ेगी, मगर सोना भी बचा को ऐसा फटकारेगी कि याद करेंगे। वह साफ कहेगी, जाकर किसी धनी की लड़की से ब्याह कर, तुझ जैसे पुरुष के साथ मेरा निबाह न होगा कहीं गौरी महतो मान गए, तो वह उनके चरन धो-दोकर पिएगी। उनकी ऐसी सेवा करेगी कि अपने बाप की भी न की होगी। और सिलिया को भर-पेट मिठाई खिलाएगी। गोबर ने उसे जो रुपया दिया था, उसे वह अभी तक संचे हुए थी। इस मृदु कल्पना से उसकी आंखें चमक उठीं और कपोलों पर हल्की-सी लाली दौड़ गई।

मगर सिलिया अभी तक आई क्यों नहीं? कौन बड़ी दूर है। न आने दिया होगा उन लोगों ने। अहा। वह आ रही है, लेकिन बहुत धीरे-धीरे आती है। सोना का दिल बैठ गया। अभागे नहीं माने साइत, नहीं सिलिया दौड़ती आती। तो सोना से हो चुका ब्याह। मुंह धो रखो।

सिलिया आई जरूर, पर कुएं पर न आकर खेत में क्यारी बराने लगी। डर रही थी होरी पूछेंगे कहां थी अब तक, तो क्या जवाब देगी। सोना ने यह दो घंटे का समय बड़ी मुश्किल से काटा। पर छूटते ही वह भागी हुई सिलिया के पास पहुंची।

'वहां जाकर तू मर गई थी क्या। ताकते-ताकते आंखें फूट गईं।'

सिलिया को बुरा लगा-तो क्या मैं वहां सोती थी? इस तरह की बातचीत राह चलते थोड़े ही हो जाती है। अवसर देखना पड़ता है। मथुरा नदी की ओर ढोर चराने गए थे। खोजती-खोजती उसके पास गई और तेरा संदेसा कहा। ऐसा परसन हुआ कि तुझसे क्या कहूं। मेरे पांव पर गिर पड़ा और बोला-सिल्लो, मैंने जब से सुना है कि सोना मेरे घर में आ रही है, तब से आंखों की नींद हर गई है। उसकी वह गालियां मुझे फल गईं, लेकिन काका को क्या करूं? किसी को नहीं सुनते।

सोना ने टोका-तो न सुनें। सोना भी जिद्दिन है। जो कहा है, वह कर दिखाएगी। फिर हाथ मलते रह जायंगे।

'बस, उसी छन ढोरों को वहीं छोड़, मुझे लिए हुए गौरी महतो के पास गया। महतो के चार पुर चलते हैं। कुआं भी उन्हीं का है। दस बीघे का ऊख है। महतो को देखके मुझे हंसी आ गई, जैसे कोई घसियारा हो। हां, भाग का बली है। बाप-बेटे में खूब कहा-सुनी हुई। गौरी महतो कहते थे, तुझसे क्या मतलब, मैं चाहे कुछ लूं या न लें, तू कौन होता है बोलने वाला? मथुरा कहता था, तुमको लेना-देना है, तो मेरा ब्याह मत करो, मैं अपना ब्याह जैसे चाहूंगा, कर लूंगा। बात बढ़ गई और गौरी महतो ने पनहियां उतारकर मथुरा को खूब पीटा। कोई दूसरा लड़का इतनी मार खाकर बिगड़ खड़ा होता। मथुरा एक घूसा भी जमा देता, तो महतो फिर न [ २४१ ]
उठते मगर बेचारा पचासों जूते खाकर भी कुछ न बोला। आंखों में आंसू भरे, मेरी ओर गरीबों की तरह ताकता हुआ चला गया। तब महतो मुझ पर बिगड़ने लगे। सैकड़ों गालियां दीं, मगर मैं क्यों सुनने लगी थी? मुझे उनका क्या डर था? मैंने सफा कह दिया-महतो, दो तीन सौ कोई भारी रकम नहीं है, और होरी महतो इतने में बिक न जायंगे, न तुम्हीं धनवान हो जाओगे, वह सब धन नाच-तमासे में ही उड़ जायगा। हां, ऐसी बहू न पाओगे।

सोना ने सजल नेत्रों से पूछा-महतो इतनी ही बात पर उन्हें मारने लगे?

सिलिया ने यह बात छिपा रखी थी। ऐसी अपमान की बात सोना के कानों में न डालना चाहती थी, पर यह प्रश्न सुनकर संयम न रख सकी। बोलो-वही गोबर भैया वाली बात थी। महतो ने कहा-आदमी जूठा तभी खाता है, जब मीठा हो। कलंक चांदी से ही धुलता है। इस पर मथुरा बोला-काका, कौन घर कलंक से बचा हुआ है? हां, किसी का खुल गया, किसी का छिपा हुआ है। गौरी महतो भी पहले एक चमारिन से फंसे थे। उससे दो लड़के भी हैं। मथुरा के मुंह से इतना निकलना था कि डोकरे पर जैसे भूत सवार हो गया। जितना लालची है, उतना ही क्रोधी भी है। बिना लिए न मानेगा।

दोनों घर चलीं। सोना के सिर पर चरखा, रस्सा और जुए का भारी बोझ था, पर इस समय वह उसे फूल से भी हल्का लग रहा था। इसके अंतस्तल में जैसे आनंद और स्फूर्ति का सोता खुल गया हो। मथुरा की वह वीर मूर्ति सामने खड़ी थी, और वह जैसे उसे अपने हृदय में बैठाकर उसके चरण आंसुओं से पखार रही थी। जैसे आकाश की देवियां उसे गोद में उठाए, आकाश में छाई हुई लालिमा लिए चली जा रही हों।

उसों रात का सोना को बड़े जोर का ज्वर चढ़ आया।

तीसरे दिन गौरी महतो ने नाई के हाथ एक पत्र भेजा-

'स्वस्ती श्री सर्वोपमा जोग श्री होरी महतो को गौरीराम का राम राम बांचना। आगे जो हम लोगों में दहेज की बातचीत हुई थी, उस पर हमने सांत मन से विचार किया, समझ में आया कि लेन-देन से वर और कन्या दोनों ही के घरवाले जेरवार होते हैं। जब हमारा-तुम्हारा संबंध हो गया, तो हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि किसी को न अखरे। तुम दान-दहेज की कोई फिकर मत करना, हम तुमको सौगंध देते हैं। जो कुछ मोटा-महीन जुरे, बरातियों को खिला देना। हम वह भी न मांगेंगे। रसद का इंतजाम हमने कर लिया है। हां, तुम खुसी-खुर्रमी से हमारी जो खातिर करोगे। वह सिर झुकाकर स्वीकार करेंगे।'

होरी ने पत्र पढ़ा और दौड़े हुए भीतर जाकर धनिया को सुनाया। हर्ष के मारे उछला पड़ता था, मगर धनिया किसी विचार में डूबी बैठी रही। एक क्षण के बाद बोली-यह गौरी महतो की भलमनसी है, लेकिन हमें भी तो अपने मरजाद का निबाह करना है। संसार क्या कहेगा। रुपया हाथ का मैल है। उसके लिए कुल-मरजाद नहीं छोड़ा जाता। जो कुछ हमसे हो सकेगा, देंगे और गौरी महतो को लेना पड़ेगा। तुम यही जवाब लिख दो। मां-बाप की कमाई में क्या लड़की का कोई हक नहीं है? नहीं, लिखना क्या है, चलो, मैं नाई से संदेसा कहलाए देती हूं।

होरी हतबुद्धि-सा आंगन में खड़ा था और धनिया उस उदारता की प्रतिक्रिया में, जो गौरी महतो की सज्जनता ने जगा दी थी, संदेशा कह रही थी। फिर उसने नाई को रस पिलाया और बिदाई देकर विदा किया।

वह चला गया तो होरी ने कहा-यह तूने क्या कर डाला धनिया? तेरा मिजाज आज तक [ २४२ ]
मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है, पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लो, कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है और जब भगवान् ने गौरी के भीतर बैठकर यह पत्र लिखवाया, तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान् ही जाने।

धनिया बोली-मुंह देखकर बीड़ा दिया जाता है, जानते हो कि नहीं? तब गौरी अपनी सान दिखाते थे, अब वह भलमनसी दिखा रहे हैं। ईंट का जवाब चाहे पत्थर हो, लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नहीं है।

होरी ने नाक सिकोड़कर कहा-तो दिखा अपनी भलमनसी। देखें, कहां से रुपये लाती है।

धनिया आंखें चमकाकर बोली-रुपये लाना मेरा काम नहीं, तुम्हारा काम है।

'मैं तो दुलारी से ही लूंगा।'

'ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है, तो क्या तालाब और क्या गंगा?'

होरी बाहर आकर चिलम पीने लगा। कितने मजे से गला छूटा जाता था, लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जब देखो, उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दसा देखकर भी इसकी आंखें नहीं खुलतीं।

पच्चीस

भोला इधर दूसरी सगाई लाए थे। औरत के बगैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी उन्हें हुक्का-पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ से हो गए थे। बहुओं को घर के काम-धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करती। इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गई थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गई, जिसके पति का देहांत हुए केवल तीन महीने हुए थे। एक लड़का भी था। भाला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाए। जब तक सगाई न हुई, उसका घर खोद डाला।

अभी तक उसके घर में जो कुछ था, बहुओं का था। जो चाहती थींं, करती थी, जैसे चाहती थी, रहती थी। जंगी जब से अपनी स्त्री को लेकर लखनऊ चला गया था, कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पांच छ: महीनों में ही उसने तीस-चालीस रुपये अपने हाथ में कर लिए थे। सेर-आध सेर दूध-दही चोरी से बेच लेती थी। अब स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियंत्रण बहू को बुरा लगता था और आए दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहां तक कि औरतों के पीछे भोला और कामता में भी कहा-सुनी हो गई। झगड़ा इतना बढ़ा कि अलग्योझे की नौबत आ गई और यह रीति सनातन से चली आाई है कि अलग्योझे के समय मार-पीट अवश्य हो। यहां भी उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाव था, वह पिता के नाते था, मगर नई स्त्री लाकर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक न रहा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटककर कई लातें जमाई और घर से निकाल दिया। घर की चीजें न छूने दीं। गांव वालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नई सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्हीं ने