प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-२५

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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मेरी समझ में न आया। तू आगे भी चलती है, पीछे भी चलती है। पहले तो इस बात पर लड़ रही थी कि किसी से एक पैसा करज मत लो, कुछ देने-दिलाने का काम नहीं है और जब भगवान् ने गौरी के भीतर बैठकर यह पत्र लिखवाया, तो तूने कुल-मरजाद का राग छेड़ दिया। तेरा मरम भगवान् ही जाने।

धनिया बोली-मुंह देखकर बीड़ा दिया जाता है, जानते हो कि नहीं? तब गौरी अपनी सान दिखाते थे, अब वह भलमनसी दिखा रहे हैं। ईंट का जवाब चाहे पत्थर हो, लेकिन सलाम का जवाब तो गाली नहीं है।

होरी ने नाक सिकोड़कर कहा-तो दिखा अपनी भलमनसी। देखें, कहां से रुपये लाती है।

धनिया आंखें चमकाकर बोली-रुपये लाना मेरा काम नहीं, तुम्हारा काम है।

'मैं तो दुलारी से ही लूंगा।'

'ले लो उसी से। सूद तो सभी लेंगे। जब डूबना ही है, तो क्या तालाब और क्या गंगा?'

होरी बाहर आकर चिलम पीने लगा। कितने मजे से गला छूटा जाता था, लेकिन धनिया जब जान छोड़े तब तो। जब देखो, उल्टी ही चलती है। इसे जैसे कोई भूत सवार हो जाता है। घर की दसा देखकर भी इसकी आंखें नहीं खुलतीं।

पच्चीस

भोला इधर दूसरी सगाई लाए थे। औरत के बगैर उनका जीवन नीरस था। जब तक झुनिया थी उन्हें हुक्का-पानी दे देती थी। समय से खाने को बुला ले जाती थी। अब बेचारे अनाथ से हो गए थे। बहुओं को घर के काम-धाम से छुट्टी न मिलती थी। उनकी क्या सेवा-सत्कार करती। इसलिए अब सगाई परमावश्यक हो गई थी। संयोग से एक जवान विधवा मिल गई, जिसके पति का देहांत हुए केवल तीन महीने हुए थे। एक लड़का भी था। भाला की लार टपक पड़ी। झटपट शिकार मार लाए। जब तक सगाई न हुई, उसका घर खोद डाला।

अभी तक उसके घर में जो कुछ था, बहुओं का था। जो चाहती थींं, करती थी, जैसे चाहती थी, रहती थी। जंगी जब से अपनी स्त्री को लेकर लखनऊ चला गया था, कामता की बहू ही घर की स्वामिनी थी। पांच छ: महीनों में ही उसने तीस-चालीस रुपये अपने हाथ में कर लिए थे। सेर-आध सेर दूध-दही चोरी से बेच लेती थी। अब स्वामिनी हुई उसकी सौतेली सास। उसका नियंत्रण बहू को बुरा लगता था और आए दिन दोनों में तकरार होती रहती थी। यहां तक कि औरतों के पीछे भोला और कामता में भी कहा-सुनी हो गई। झगड़ा इतना बढ़ा कि अलग्योझे की नौबत आ गई और यह रीति सनातन से चली आाई है कि अलग्योझे के समय मार-पीट अवश्य हो। यहां भी उस रीति का पालन किया गया। कामता जवान आदमी था। भोला का उस पर जो कुछ दबाव था, वह पिता के नाते था, मगर नई स्त्री लाकर बेटे से आदर पाने का अब उसे कोई हक न रहा था। कम-से-कम कामता इसे स्वीकार न करता था। उसने भोला को पटककर कई लातें जमाई और घर से निकाल दिया। घर की चीजें न छूने दीं। गांव वालों में भी किसी ने भोला का पक्ष न लिया। नई सगाई ने उन्हें नक्कू बना दिया था। रात तो उन्हीं ने [ २४३ ]
किसी तरह एक पेड़ के नीचे काटी, सुबह होते ही नोखेराम के पास जा पहुंचे और अपनी फरियाद सुनाई। भोला का गांव भी उन्हीं के इलाके में था और इलाके-भर के मालिक-मुखिया जो कुछ थे, वही थे। नोखेराम को भोला पर तो क्या दया आती, पर उनके साथ एक चटपटी, रंगीली स्त्री देखी तो चटपट आश्रय देने पर राजी हो गए। जहां उनकी गाएं बंधती थीं, वहीं एक कोठरी रहने को दे दी। अपने जानवरों की देख-भाल, सानी-भूसे के लिए उन्हें एकाएक एक जानकार आदमी की जरूरत मालूम होने लगी। भोला को तीन रुपया महीना और सेर-भर रोजाना पर नौकर रख लिया।

नोखेराम नाटे, मोटे, खल्वाट, लम्बी नाक और छोटी-छोटी आंखों वाले सांवले आदमी थे। बड़ा-सा पग्गड़ बांधते, नीचा कुरता पहनते और जाड़ों में लिहाफ ओढ़कर बाहर आते-जाते थे। उन्हें तेल की मालिश कराने में बड़ा आनन्द आता था, इसलिए उनके कपड़े हमेशा मैले, चीकट रहते थे। उनका परिवार बहुत बड़ा था। सात भाई और उनके बाल-बच्चे सभी उन्हीं पर आश्रित थे। उस पर स्वयं उनका लड़का नवें दरजे में अंग्रेजी पढ़ता था और उसका बबुआई ठाठ निभाना कोई आसान काम न था। राय साहब से उन्हें केवल बारह रुपए वेतन मिलता था, मगर खर्च सौ रुपए से कौड़ी कम न था। इसलिए आसामी किसी तरह उनके चंगुल में फंस जाए, तो बिना उसे अच्छी तरह चूसे छोड़ते न थे। पहले छः रुपए वेतन मिलता था, तब असामियों से इतनी नोच-खसोट न करते थे, जब से बारह रुपए हो गये थे, तब से उनकी तृष्णा और भी बढ़ गयी थी, इसलिए राय साहब उनकी तरक्की न करते थे।

गांव में और तो सभी किसी-न-किसी रूप में उनका दवाब मानते थे, यहां तक कि दातादीन और झिंगुरीसिंह भी उनकी खुशामद करते थे, केवल पटेश्वरी उनसे ताल ठोकने को हमेशा तैयार रहते थे। नोखेराम को अगर यह जोम था कि हम ब्राह्मण हैं और कायस्थों को उंगली पर नचाते हैं, तो पटेश्वरी को भी घमंड था कि हम कायस्थ हैं, कलम के बादशाह, इस मैदान में कोई हमसे क्या बाजी ले जाएगा? फिर वह जमींदार के नौकर नहीं, सरकार के नौकर हैं, जिसके राज में सूरज कभी नहीं डूबता। नोखेराम अगर एकादशी को व्रत रखते हैं और पांच ब्राह्मणों को भोजन कराते हैं तो पटेश्वरी हर पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा सुनेंगे और दस ब्राह्मणों को भोजन कराएंगे। जब से उनका जेठा लड़का सजावल हो गया था, नोखेराम इस ताक में रहते थे कि उनका लड़का किसी तरह दसवां पास कर ले, तो उसे भी कहीं नकल-नवीसी दिला दें। इसलिए हुक्काम के पास फसली सौगातें लेकर बराबर सलामी करते रहते थे। एक और बात में पटेश्वरी उनसे बढ़े हुए थे। लोगों का खयाल था कि वह अपनी विधवा कहारिन को रखे हुए हैं। अब नोखेराम को भी अपनी शान में यह कसर पूरी करने का अवसर मिलता हुआ जान पड़ा।

भोला को ढाढ़स देते हुए बोले-तुम यहाँ आराम से रहो भोला, किसी बात का खटका नहीं। जिस चीज की जरूरत हो, हमसे आकर कहो। तुम्हारी घरवाली है, उसके लिए भी कोई न कोई काम निकल आएगा। बखारों में अनाज रखना, निकालना, पछोरना, फटकना क्या थोड़ा काम है?

भोला ने अरज की-सरकार, एक बार कामता को बुलाकर पूछ लो, क्या बाप के साथ बेटे का यही सलूक होना चाहिए? घर हमने बनवाया, गायें-भैंसें हमने लीं। अब उसने सब कुछ हथिया लिया और हमें निकाल बाहर किया। यह अन्याय नहीं तो क्या है? हमारे मालिक तो
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तुम्हीं हो। तुम्हारे दरबार में इसका फैसला होना चाहिए।

नोखेराम ने समझाया-भोला, तुम उससे लड़कर पेश न पाओगे। उसने जैसा किया है, उसकी सजा उसे भगवान् देंगे। बेईमानी करके कोई आज तक फलीभूत हुआ है? संसार में अन्याय न होता, तो इसे नरक क्यों कहा जाता? यहां न्याय और धर्म को कौन पूछता है? भगवान सब देखते हैं। संसार का रत्ती-रत्ती हाल जानते हैं। तुम्हारे मन में इस समय क्या बात है, यह उनसे क्या छिपा है? इसी से तो अंतरजामी कहलाते हैं। उनसे बचकर कोई कहां जाएगा? तुम चुप होके बैठो। भगवान् की इच्छा हुई तो यहां तुम उससे बुरे न रहोगे।

यहां से उठकर भोला ने होरी के पास जाकर अपना दुखड़ा रोया। होरी ने अपनी बीती सुनाई-लड़कों की आजकल कुछ न पूछो भोला भाई। मर-मरकर पालो, जवान हों तो दुसमन हो जायं। मेरे ही गोबर को देखो। मां से लड़कर गया, और सालों हो गए, न चिट्ठी, न पत्तर। उसके लेखे तो मां-बाप मर गए। बिटिया का विवाह सिर पर है, लेकिन उससे कोई मतलब नहीं। खेत रेहन रखकर दो सौ रुपये लिए हैं। इज्जत-आबरू का निबाह तो करना ही होगा।

कामता ने बाप को निकाल बाहर तो किया, लेकिन अब उसे मालूम होने लगा कि बुड्ढा कितना कामकाजी आदमी था। सबेरे उठकर सानी-पानी करना, दूध दुहना, फिर दूध लेकर बाजार जाना, वहां से आकर फिर सानी-पानी करना, फिर दूध दुहना, एक पखवारे में उसका हुलिया बिगड़ गया। स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री ने कहा-मैं जान देने के लिए तुम्हारे घर नहीं आई हूं। मेरी रोटी तुम्हें भारी हो, तो मैं अपने घर चली जाऊँ। कामता डरा, यह कहीं चली जाए, तो रोटी का ठिकाना भी न रहे, अपने हाथ से ठोकना पड़े। आखिर एक नौकर रखा, लेकिन उससे काम न चला। नौकर खली-भूसा चुरा-चुराकर बेचने लगा। उसे अलग किया। फिर स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई। स्त्री रूठकर मैके चली गई। कामता के हाथ-पांव फूल गए। हारकर भोला के पास आया और चिरौरी करने लगा-दादा, मुझसे जो कुछ भूल-चूक हुई हो क्षमा करो। अब चलकर घर संभालो, जैसे तुम रखोगे, वैसे ही रहूंगा।

भोला को यहां मजूरों की तरह रहना अखर रहा था। पहले महीने-दो-महीने उसकी जो खातिर हुई, वह अब न थी। नोखेराम कभी-कभी उससे चिलम भरने या चारपाई बिछाने को भी कहते थे। तब बेचारा भोला जहर का घूंट पीकर रह जाता था। अपने घर में लड़ाई-दंगा भी हो, तो किसी की टहल तो न करनी पड़ेगी।

उसकी स्त्री नोहरी ने यह प्रस्ताव सुना तो ऐंठकर बोली-जहां से लात खाकर आए, वहां फिर जाओगे? तुम्हें लाज भी नहीं आती।

भोला ने कहा-तो यहीं कौन सिंहासन पर बैठा हुआ हूं?

नोहरी ने मटककर कहा-तुम्हें जाना हो तो जाओ, मैं नहीं जाती।

भोला जानता था, नोहरी विरोध करेगी। इसका कारण भी वह कुछ-कुछ समझता था, कुछ देखता भी था, उसके यहां से भागने का एक कारण यह भी था। यहां उसकी तो कोई बात न पूछता था, पर नोहरी की बड़ी खातिर होती थी। प्यादे और शहने तक उसका दबाव मानते थे। उसका जवाब सुनकर भोला को क्रोध आया, लेकिन करता क्या? नोहरी को छोड़कर चले जाने का साहस उसमें होता तो नोहरी भी झख मारकर उसके पीछे-पीछे चली जाती। अकेले उसे यहां अपने आश्रय में रखने की हिम्मत नोखेराम में न थी। वह टट्टी की आड़ से शिकार
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खेलने वाले जीव थे, मगर नोहरी भोला के स्वभाव से परिचित हो चुकी थी।

भोला मिन्नत करके बोला-देख नोहरी, दिक मत कर। अब तो वहां बहुएं भी नहीं हैं। तेरे ही हाथ में सब कुछ रहेगा। यहां मजूरी करने से बिरादरी में कितनी बदनामी हो रही है, यह सोच।

नोहरी ने ठेंगा दिखाकर कहा-तुम्हें जाना है जाओ, मैं तुम्हें रोक तो नहीं रही हूं। तुम्हें बेटे की लातें प्यारी लगती होंगी, मुझे नहीं लगतीं। मैं अपनी मजदूरी में मगन हूं।

भोला को रहना पड़ा और कामता अपनी स्त्री की खुशामद करके उसे मना लाया। इधर नोहरी के विषय में कनबतियाँ होती रहीं-नोहरी ने आज गुलाबी साड़ी पहनी है। अब क्या पूछना है, चाहे रोज एक साड़ी पहने। सैयां भये कोतवाल अब डर काहे का। भोला की आंखें फूट गई हैं क्या?

सोभा बड़ा हंसोड़ था। सारे गांव का विदूषक, बल्कि नारद। हर एक बात की टोह लगाता रहता था। एक दिन नोहरी उसे घर में मिल गई। कुछ हंसी कर बैठा। नोहरी ने नोखेराम से जड़ दिया। सोभा की चौपाल में तलबी हुई और ऐसी डांट पड़ी कि उम्र-भर न भूलेगा।

एक दिन लाला पटेश्वरी प्रसाद की शामत आ गई। गमिर्यों के दिन थे। लाला बगीचे में बैठे आम तुड़वा रहे थे। नोहरी बनी-ठनी उधर से निकली। लाला ने पुकारा-नोहरा रानी, इधर आओ, थोड़े से आम लेती जाओ, बड़े मीठे हैं।

नोहरी को भ्रम हुआ, लाला मेरा उपहास कर रहे हैं। उसे अब घमंड होने लगा था। वह चाहती थी, लोग उसे जमींदारिन समझें और उसका सम्मान करें। घमंडी आदमी प्रायः शक्की हुआ करता है। और जब मन में चोर हो तो शक्कीपन और भी बढ़ जाता है। वह मेरी ओर देखकर क्यों हंसा? सब लोग मुझे देखकर जलते क्यों हैं? मैं किसी से कुछ मांगने नहीं जाती। कौन बड़ी सतवंती है। जरा मेरे सामने आए, तो देखूं। इतने दिनों में नोहरी गांव के गुप्त रहस्यों से परिचित हो चुकी थी। यही लाला कहारिन को रखे हुए हैं और मुझे हंसते हैं। इन्हें कोई कुछ नहीं कहता। बड़े आदमी हैं न। नोहरी गरीब है, जात की हेठी है, इसलिए सभी उसका उपहास करते हैं। और जैसा बाप है, वैसा ही बेटा। इन्हीं का रमेसरी तो सिलिया के पीछे पागल बना फिरता है। चमारियों पर तो गिद्ध की तरह टूटते हैं, उस पर दावा है कि हम ऊंचे हैं।

उसने वहीं खड़े होकर कहा-तुम दानी कब से हो गए लाला। पाओ तो दूसरों की थाली की रोटी उड़ा जाओ। आज बड़े आमवाले हुए हैं। मुझसे छेड़ की तो अच्छा न होगा, कहे देती

ओ हो! इस अहीरिन का इतना मिजाज। नोखेराम को क्या फांस लिया, समझती है सारी दुनिया पर उसका राज है। बोले-तू तो ऐसी तिनक रही है नोहरी, जैसे अब किसी को गांव में रहने न देगी। जरा जबान संभालकर बातें किया कर, इतनी जल्द अपने को न भूल जा।

'तो क्या तुम्हारे द्वार कभी भीख मांगने आई थी?'

'नोखेराम ने छांह न दी होती, तो भीख भी मांगती।'

नोहरी को लाल मिर्च-सा लगा। जो कुछ मुंह में आया बका-दाढ़ीजार, लम्पट, मुंह-झौंसा और जाने क्या-क्या कहा और उसी क्रोध में भरी हुई कोठरी में गई और अपने बरतन-भांड़े निकाल-निकालकर बाहर रखने लगी।

नोखेराम ने सुना तो घबराए हुए आए और पूछा-वह क्या कर रही है नोहरी, कपड़े-लत्ते क्यों निकाल रही है? किसी ने कुछ कहा है क्या?

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नोहरी मर्दों को नचाने की कला जानती थी। अपने जीवन में उसने यही विद्या सीखी थी। नोखेराम पढ़े-लिखे आदमी थे। कानून भी जानते थे। धर्म की पुस्तकें भी बहुत पढ़ी थीं। बड़े-बड़े वकीलों, बैरिस्टरों की जूतियां सीधी की थीं, पर इस मूर्ख नोहरी के हाथ का खिलौना बने हुए थे। भौंहें सिकोड़कर बोली-समय का फेर है, यहां आ गई, लेकिन अपनी आबरू न गवाऊंगी।

ब्राह्मण सतेज हो उठा। मूंछें खड़ी करके बोला-तेरी ओर जो ताके, उसकी आँखें निकाल लूं।

नोहरी ने लोहे को लाल करके घन जमाया-लाला पटेसरी जब देखो मुझसे बेबात की बात किया करते हैं। मैं हरजाई थोड़े ही हूं कि कोई मुझे पैसे दिखाए। गांव-भर में सभी औरतें तो हैं, कोई उनसे नहीं बोलता। जिसे देखो, मुझी को छेड़ता है।

नोखेराम के सिर पर भूत सवार हो गया। अपना मोटा डंडा उठाया और आंधी की तरह हरहराते हुए बाग में पहुंचकर लगे ललकारने-आ जा बड़ा मर्द है तो। मूंछें उखाड़ लूंगा, खोदकर गाड़ दूंगा। निकल आ सामने। अगर फिर कभी नोहरी को छेड़ा तो खून पी जाऊंगा। सारी पटवारगिरी निकाल दूंगा। जैसा खुद है, वैसा ही दूसरों को समझता है। तू है किस घमंड में?

लाला पटेश्वरी सिर झुकाए, दम साधे जड़वत् खड़े थे। जरा भी जबान खोली और शामत आ गई। उनका इतना अपमान जीवन में कभी न हुआ था। एक बार लोगों ने उन्हें ताल के किनारे रात को घेरकर खूब पीटा था, लेकिन गांव में उसकी किसी को खबर न हुई थी। किसी के पास कोई प्रमाण न था। लेकिन आज तो सारे गांव के सामने उनकी इज्जत उतर गई। कल जो औरत गांव में आशय मांगती आई थी, आज सारे गांव पर उसका आतंक था। अब किसकी हिम्मत है जो उसे छेड़ सके। जब पटेश्वरी कुछ नहीं कर सके, तो दूसरों की बिसात ही क्या।

अब नोहरी गांव की रानी थी। उसे आते देखकर किसान लोग उसके रास्ते से हट जाते थे। यह खुला हुआ रहस्य था कि उसकी थोड़ी-सी पूजा करके नोखेराम से बहुत काम निकल सकता है। किसी को बटवारा कराना हो, लगान के लिए मुहलत मांगनी हो, मकान बनाने के लिए जमीन की जरूरत हो, नोहरी की पूजा किए बगैर उसका काम सिद्ध नहीं हो सकता। कभी-कभी वह अच्छे-अच्छे आसामियों को डांट देती थी।

आसामी ही नहीं, अब कारकुन साहब पर भी रोब जमाने लगी थी। भोला उसके आश्रित बनकर न रहना चाहते थे। औरत की कमाई खाने से ज्यादा अधम उनकी दृष्टि में दूसरा काम न था। उन्हें कुल तीन, रुपये माहवार मिलते थे, यह भी उनके हाथ न लगते। नोहरी ऊपर ही ऊपर उड़ा लेती। उन्हें तमाखू पीने को धेला मयस्सर नहीं, और नोहरी दो आने रोज के पान खा जाती थी। जिसे देखो, वही उन पर रोब जमाता था। प्यादे उससे चिलम भरवाते, लकड़ी कटवाते, बेचारा दिन-भर का हारा-थका आता और द्वार पर पेड़ के नीचे झिलंगे खाट पर पड़ा रहता। कोई एक लुटिया पानी देनेवाला भी नहीं। दोपहर की बासी रोटियां रात को खानी पड़तीं और वह भी नमक या पानी और नमक के साथ।

आखिर हारकर उसने घर जाकर कामता के साथ रहने का निश्चय किया। कुछ न होगा एक टुकड़ा रोटी तो मिल ही जायगी, अपना घर तो है।

नोहरी बोली-मैं वहां किसी की गुलामी करने न जाऊंगी।

भोला ने जी कड़ा करके कहा-तुम्हें जाने को तो मैं नहीं कहता। मैं तो अपने को कहता

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हूं।

'तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? कहते लाज नहीं आती?'

'लाज तो घोल कर पी गया।'

'लेकिन मैंने तो अपनी लाज नहीं पी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।'

'तू अपने मन की है, तो मैं तेरी गुलामी क्यों करूं?'

'पंचायत करके मुंह में कालिख लगा दूंगी, इतना समझ लेना।'

'क्या अभी कुछ कम कालिख लगी है? क्या अब भी मुझे धोखे में रखना चाहती है?'

'तुम तो ऐसा ताव दिखा रहे हो, जैसे मुझे रोज गहने ही तो गढ़वाते हो। तो यहां नोहरी किसी का ताव सहनेवाली नहीं है।'

भोला झल्लाकर उठे और सिरहाने से लकड़ी उठाकर चले कि नोहरी ने लपककर उनका पहुँचा पकड़ लिया। उसके बलिष्ठ पंजों से निकलना भोला के लिए मुश्किल था। चुपके से कैदी की तरह बैठ गए। एक जमाना था, जब वह औरतों को अंगुलियों पर नचाया करते थे, आज वह एक औरत के करपाश में बंधे हुए हैं और किसी तरह निकल नहीं सकते। हाथ छुड़ाने की कोशिश करके वह परदा नहीं खोलना चाहते। अपनी सीमा का अनुमान उन्हें हो गया है। मगर वह क्यों उससे निडर होकर नहीं कह देते कि तू मेरे काम की नहीं है, मैं तुझे त्यागता हूँ। पंचायत की धमकी देती है। पंचायत क्या कोई हौवा है, अगर तुझे पंचायत का डर नहीं, तो मैं क्यों पंचायत से डरूं?

लेकिन यह भाव शब्दों में आने का साहस न कर सकता था। नोहरी ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल दिया हो।

छब्बीस

लाला पटेश्वरी पटवारी-समुदाय के सद्गुणों के साक्षात् अवतार थे। वह यह न देख सकते थे कि कोई असामी अपने दूसरे भाई की इंच भर भी जमीन दबा ले। न वह यही देख सकते थे कि असामी किसी महाजन के रुपए दबा ले। गांव के समस्त प्राणियों के हितों की रक्षा करना उनका परम धर्म था। समझौते या मेल-जोल में उनका विश्वास न था, यह तो निजीर्विता के लक्षण हैं। वह तो संघर्ष के पुजारी थे, जो सजीवता का लक्षण है। आए दिन इस जीवन को उत्तेजना देने का प्रयास करते रहते थे। एक-न-एक फुलझड़ी छोड़ते रहते थे। मंगरू साह पर इन दिनों उनकी विशेष कृपा-दृष्टी थी। मंगरू साह गांव का सबसे धनी आदमी था, पर स्थानीय राजनीति में बिलकुल भाग न लेता था। रोब या अधिकार की लालसा उसे न थी। मकान भी उसका गांव के बाहर था, जहां उसने एक बाग और एक कुआं और एक छोटा-सा शिव-मन्दिर बनवा लिया था। बाल-बच्चा कोई न था, इसलिए लेन-देन भी कम कर दिया था और अधिकतर पूजा-पाठ में ही लगा रहता था। कितने ही असामियों ने उसके रुपए हजम कर लिए थे, पर उसने किसी पर नालिश-फरियाद न की। होरी पर भी उसके सूद-ब्याज मिलाकर कोई डेढ़ सौ हो गए थे, मगर न होरी को ऋण चुकाने की कोई चिन्ता थी और न उसे वसूल करने की। दो-