प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-२६
हूं।
'तुम मुझे छोड़कर चले जाओगे? कहते लाज नहीं आती?'
'लाज तो घोल कर पी गया।'
'लेकिन मैंने तो अपनी लाज नहीं पी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।'
'तू अपने मन की है, तो मैं तेरी गुलामी क्यों करूं?'
'पंचायत करके मुंह में कालिख लगा दूंगी, इतना समझ लेना।'
'क्या अभी कुछ कम कालिख लगी है? क्या अब भी मुझे धोखे में रखना चाहती है?'
'तुम तो ऐसा ताव दिखा रहे हो, जैसे मुझे रोज गहने ही तो गढ़वाते हो। तो यहां नोहरी किसी का ताव सहनेवाली नहीं है।'
भोला झल्लाकर उठे और सिरहाने से लकड़ी उठाकर चले कि नोहरी ने लपककर उनका पहुँचा पकड़ लिया। उसके बलिष्ठ पंजों से निकलना भोला के लिए मुश्किल था। चुपके से कैदी की तरह बैठ गए। एक जमाना था, जब वह औरतों को अंगुलियों पर नचाया करते थे, आज वह एक औरत के करपाश में बंधे हुए हैं और किसी तरह निकल नहीं सकते। हाथ छुड़ाने की कोशिश करके वह परदा नहीं खोलना चाहते। अपनी सीमा का अनुमान उन्हें हो गया है। मगर वह क्यों उससे निडर होकर नहीं कह देते कि तू मेरे काम की नहीं है, मैं तुझे त्यागता हूँ। पंचायत की धमकी देती है। पंचायत क्या कोई हौवा है, अगर तुझे पंचायत का डर नहीं, तो मैं क्यों पंचायत से डरूं?
लेकिन यह भाव शब्दों में आने का साहस न कर सकता था। नोहरी ने जैसे उन पर कोई वशीकरण डाल दिया हो।
छब्बीस
दो-चार बार उसने तकाजा किया, घुड़का-डांटा भी, मगर होरी की दशा देखकर चुप हो बैठा। अबकी संयोग से होरी की ऊख गाँं भर के ऊपर थी। कुछ नहीं तो उसके दो-ढाई सौ सीधे हो जाएंगे, ऐसा लोगों का अनुमान था। पटेश्वरीप्रसाद ने मंगरू को सुझाया कि अगर इस वक्त होरी पर दावा कर दिया जाय, तो सब रुपए वसूल हो जायं। मंगरू इतना दयालु नहीं, जितना आलसी था। झंझट में पड़ना न चाहता था, मगर जब पटेश्वरी ने जिम्मा लिया कि उसे एक दिन भी कचहरी न जाना पड़ेगा, न कोई दूसरा कष्ट होगा, बैठे-बिठाए उसकी डिगरी हो जाएगी, तो उसने नालिश करने की अनुमति दे दी, और अदालत-खर्च के लिए रुपए भी दे दिए।
होरी को खबर भी न थी कि क्या खिचड़ी पक रही है। कब दावा दायर हुआ, कब डिगरी हुई, उसे बिल्कुल पता न चला। क़ुर्कअमीन उसकी ऊख नीलाम करने आया, तब उसे मालूम हुआ। सारा गांव खेत के किनारे जमा हो गया। होरी मंगरू साह के पास दौड़ा और धनिया पटेश्वरी को गालियां देने लगी। उसकी सहज-बुद्धि ने बता दिया कि पटेश्वरी ही की कारस्तानी है, मगर मंगरू साह पूजा पर थे, मिल न सके और धनिया गालियों की वर्षा करके भी पटेश्वरी का कुछ बिगाड़ न सकी। उधर ऊख डेढ़ सौ रुपए में नीलाम हो गई और बोली भी हो गई मंगरू साह ही के नाम। कोई दूसरा आदमी न बोल सका। दातादीन में भी धनिया की गालियां सुनने का साहस न था।
धनिया ने होरी को उत्तेजित करके कहा-बैठे क्या हो, जाकर पटवारी से पूछते क्यों नहीं, यही धरम है तुम्हारा गांव-घर के आदमियों के साथ?
होरी ने दीनता से कहा -- पूछने के लिए तूने मुंह भी रखा हो। तेरी गालियां क्या उन्होंने न सुनी होंगी?
'जो गाली खाने का काम करेगा, उसे गालियां मिलेंगी ही।'
'तू गालियां भी देगी और भाई-चारा भी निभाएगी?'
'देखूंगी, मेरे खेत के नगीच कौन जाता है।'
'मिल वाले आकर काट ले जायंगे, तू क्या करेगी, और मैं क्या करूंगा। गालियां देकर अपनी जीभ की खुजली चाहे मिटा ले।'
'मेरे जीते-जी कोई मेरा खेत काट ले जायगा?'
'हाँ-हाँ, तेरे और मेरे जीते-जी। सारा गांव मिलकर भी उसे नहीं रोक सकता। अब वह चीज मेरी नहीं, मंगरू साह की है।'
'मँगरू साह ने मर-मरकर जेठ की दुपहरी में सिंचाई और गोड़ाई की थी?'
'वह सब तूने किया, मगर अब वह चीज मंगरू साह की है। हम उनके करजदार नहीं हैं?'
ऊख तो गई, लेकिन उसके साथ ही एक नई समस्या आ पड़ी। दुलारी इसी ऊख पर रुपए देने पर तैयार हुई थी। अब वह किस जमानत पर रुपए दे? अभी उसके पहले ही के दो सौ पड़े हुए थे। सोचा था, ऊख के पुराने रुपए मिल जाएंगे, तो नया हिसाब चलने लगेगा। उसकी नजर में होरी की साख दो सौ तक थी। इससे ज्यादा देना जोखिम था। सहालग सिर पर था। तिथि निश्चित हो चुकी थी। गौरी महतो ने सारी तैयारियां कर ली होंगी। अब विवाह का टलना असम्भव था। होरी को ऐसा क्रोध आता था कि जाकर दुलारी का गला दबा दे। जितनी चिरौरी-बिनती हो सकती थी, वह कर चुका, मगर वह पत्थर की देवी जरा भी न पसीजी। उसने चलते-चलते हाथ बांध कर कहा -दुलारी, मैं तुम्हारे रुपए लेकर भाग न जाऊंगा। न इतनी जल्द
मरा ही जाता हूं। खेत हैं, पेड़-पालों हैं, घर हैं, जवान बेटा है। तुम्हारे रुपए मारे न जायंगे, मेरी इज्जत जा रही है, इसे संभालो। मगर दुलारी ने दया को व्यापार में मिलाना स्वीकार न किया। अगर व्यापार को वह दया का रूप दे सकती, तो उसे कोई आपत्ति न होती। पर दया को व्यापार का रूप देना उसने न सीखा था।
होरी ने घर आकर धनिया से कहा-अब?
धनिया ने उसी पर दिल का गुबार निकाला-यही तो तुम चाहते थे।
होरी ने जख्मी आंखों से देखा-मेरा ही दोस है?
'किसी का दोस हो, हुई तुम्हारे मन की।'
'तेरी इच्छा है कि जमीन रेहन रख दूं?'
'जमीन रेहन रख दोगे, तो करोगे क्या?'
'मजूरी।'
मगर जमीन दोनों को एक-सी प्यारी थी। उसी पर तो उनकी इज्जत और आबरू अवलिम्बत थी। जिसके पास जमीन नहीं, वह गृहस्थ नहीं, मजूर है। होरी ने कुछ जवाब न पाकर पूछा-तो क्या कहती है?
धनिया ने आहत कंठ से कहा-कहना क्या है। गौरी बरात लेकर आयंगे। एक जून खिला देना। सबेरे बेटी बिदा कर देना। दुनिया हंसेगी, हंस ले। भगवान् की यही इच्छा है, कि हमारी नाक कटे, मुंह में कालिख लगे तो हम क्या करेंगे।
सहसा नोहरी चुंदरी पहने सामने से जाती हुई दिखाई दी। होरी को देखते ही उसने जरा-सा घूँघट निकाल लिया। उससे समधी का नाता मानती थी।
धनिया से उसका परिचय हो चुका था। उसने पुकारा-आज किधर चली समधिन? आओ, बैठो।
नोहरी ने दिग्विजय कर लिया था और अब जनमत को अपने पक्ष में बटोर लेने का प्रयास कर रही थी। आकर खड़ी हो गई।
धनिया ने उसे सिर से पांव तक आलोचना की आंखों से देखकर कहा-आज इधर कैसे भूल पड़ीं?
नोहरी ने कातर स्वर में कहा-ऐसे ही तुम लोगों से मिलने चली आई। बिटिया का ब्याह कब तक है?
धनिया स्निग्ध भाव से बोली-भगवान् के अधीन है, जब हो जाय।
'मैंने तो सुना, इसी सहालग में होगा। तिथि ठीक हो गयी है?'
'हां, तिथि तो ठीक हो गई है।'
'मुझे भी नेवता देना।'
'तुम्हारी तो लड़की है, नेवता कैसा?'
'दहेज का सामान तो मंगवा लिया होगा। जरा मैं भी देखूं।'
धनिया असमंजस में पड़ी, क्या कहे। होरी ने उसे संभाला-अभी तो कोई सामान नहीं मंगवाया है, और सामान क्या करना है, कुस-कन्या तो देना है।
नोहरी ने अविश्वास-भरी आंखों से देखा-कुस-कन्या क्यों दोगे महतो, पहली बेटी है, दिल खोलकर करो।
होरी हंसा, मानो कह रहा हो, तुम्हें चारों ओर हरा दिखाई देता होगा, यहां तो सूखा ही पड़ा हुआ है।
'रुपए-पैसे की तंगी है, क्या खोलकर करूं। तुमसे कौन परदा है।'
'बेटा कमाता है, तुम कमाते हो, फिर भी रुपए-पैसे की तंगी? किसे बिस्वास आएगा।'
'बेटा ही लायक होता, तो फिर काहे का रोना था। चिट्ठी-पत्तर तक भेजता नहीं, रुपए क्या भेजेगा। यह दूसरा साल है, एक चिट्ठी नहीं।'
इतने में सोना बैलों के चारे के लिए हरियाली का एक गट्ठा सिर पर लिए, यौवन को अपने अंचल से चुराती, बालिका-सी सरल, आई और गट्ठा वहीं पटककर अन्दर चली गई।
नोहरी ने कहा-लड़की तो खूब सयानी हो गई है।
धनिया बोली-लड़की की बाढ़ रेंड़ की बाढ़ है। नहीं है अभी कै दिन की।
'वर तो ठीक हो गया है न?'
'हाँ, वर तो ठीक है। रुपए का बन्दोबस्त हो गया, तो इसी महीने में ब्याह कर देंगे। नोहरी दिल की ओछी थी। इधर उसने जो थोड़े-से रुपए जोड़े थे, वे उसके पेट में उछल रहे थे। अगर वह सोना के ब्याह के लिए कुछ रुपए दे दे, तो कितना यश मिलेगा। सारे गांव में उसकी चर्चा हो जायगी। लोग चकित होकर कहेंगे, नोहरी ने इतने रुपए दे दिए। बड़ी देवी है। होरी और धनिया दोनों घर-घर उसका बखान करते फिरेंगे। गांव में उसका मान-सम्मान कितना बढ़ जायगा। वह उंगली दिखानेवालों का मुंह सी देगी। फिर किसकी हिम्मत है, जो उस पर हंसे, या उस पर आवाजें कसे। अभी सारा गांव उसका दुश्मन है। तब सारा गांव उसका हितैषी हो जाएगा। इस कल्पना से उसकी मुद्रा खिल गई।'
'थोड़े-बहुत से काम चलता हो, तो मुझसे ले लो, जब हाथ में रुपए आ जायं तो दे देना।'
होरी और धनिया दोनों ही ने उसकी ओर देखा। नहीं, नोहरी दिल्लगी नहीं कर रही है। दोनों की आंखों में विस्मय था, कृतज्ञता थी, सन्देह था और लज्जा थी। नोहरी उतनी बुरी नहीं है, जितना लोग समझते हैं।
नोहरी ने फिर कहा-तुम्हारी और हमारी इज़्जत एक है। तुम्हारी हंसी हो तो क्या मेरी हंसी न होगी? कैसे भी हुआ हो, पर अब तो तुम हमारे समधी हो।
होरी ने सकुचाते हुए कहा-तुम्हारे रुपए तो घर में ही हैं, जब काम पड़ेगा ले लेंगे। आदमी अपनों ही का भरोसा तो करता है, मगर ऊपर से इन्तजाम हो जाय, तो घर के रुपये क्यों छुए।
धनिया ने अनुमोदन किया-हाँ, और क्या।
नोहरी ने अपनापन जताया-जब घर में रुपए हैं, तो बाहर वालों के सामने हाथ क्यों फैलाओ। सूद भी देना पड़ेगा, उस पर इस्टाम लिखो, गवाही कराओ, दस्तूरी दो, खुसामद करो। हां, मेरे रुपए में छूत लगी हो, तो दूसरी बात है।
होरी ने संभाला-नहीं, नहीं नोहरी, जब घर में काम चल जायगा, तो बाहर क्यों हाथ फैलाएंगे, लेकिन आपस वाली बात है। खेती-बारी का भरोसा नहीं। तुम्हें जल्दी कोई काम पड़ा और हम रुपए न जुटा सके, तो तुम्हें भी बुरा लगेगा और हमारी जान भी संकट में पड़ेगी। इससे कहता था। नहीं, लड़की तो तुम्हारी है।
'मुझे अभी रुपए की ऐसी जल्दी नहीं है।'
'तो तुम्हीं से ले लेंगे। कन्यादान का फल भी क्यों बाहर जाए?'
'कितने रुपये चाहिए?'
'तुम कितने दे सकोगी?'
'सौ में काम चल जायगा?'
होरी को लालच आया। भगवान् ने छप्पर फाड़कर रुपये दिए हैं, तो जितना ले सके, उतना क्यों न ले।
'सौ में भी चल जाएगा। पांच सौ में भी चल जाएगा। जैसा हौसला हो।'
'मेरे पास कुल दो सौ रुपये हैं, वह मैं दे दूंगी।'
'तो इतने में बड़ी खुसफेली से काम चल जायगा। अनाज घर में है, मगर ठकुराइन, आज तुमसे कहता हूं, मैं तुम्हें ऐसी लच्छमी न समझता था। इस जमाने में कौन किसकी मदद करता है, और किसके पास है। तुमने मुझे डूबने से बचा लिया।'
दिया-बत्ती का समय आ गया था। ठंडक पड़ने लगी थी। जमीन ने नीली चादर ओढ़ ली थी। धनिया अन्दर जाकर अंगीठी लाई। सब तापने लगे। पुआल के प्रकाश में छबीली, रंगीली, कुलटा नोहरी उनकी सामने वरदान-सी बैठी थी। इस समय उसकी उन आंखों में कितनी सहृदयता थी, कपोलों पर कितनी लज्जा, ओठों पर कितनी सत्प्रेरणा।
कुछ देर तक इधर-उधर की बातें करके नोहरी उठ खड़ी हुई और यह कहती हुई घर चली-अब देर हो रही है। कल तुम आकर रुपए ले लेना महतो।
'चलो, मैं तुम्हें पहुंचा दूं।'
'नहीं-नहीं, तुम बैठो, मैं चली जाऊंगी।'
'जी तो चाहता है, तुम्हें कन्धे पर बैठाकर पहुंचाऊं।'
नोखेराम की चौपाल गांव के दूसरे सिरे पर थी, और बाहर-बाहर जाने का रास्ता साफ था। दोनों उसी रास्ते से चले। अब चारों ओर सन्नाटा था।
नोहरी ने कहा-तनिक समझा देते रावत को। क्यों सबसे लड़ाई किया करते हैं। जब इन्हीं लोगों के बीच में रहना है, तो ऐसे रहना चाहिए न कि चार आदमी अपने हो जायं। और इनका हाल यह है कि सबसे लड़ाई, सबसे झगड़ा। जब तुम मुझे परदे में नहीं रख सकते, मुझे दूसरों की मजूरी करनी पड़ती है, तो यह कैसे निभ सकता है कि मैं न किसी से हंसूं, न बोलूं, न कोई मेरी ओर ताके, न हंसे। यह सब तो परदे में ही हो सकता है। पूछो, कोई मेरी ओर ताकता या घूरता है तो मैं क्या करूं। उसकी आंखें तो नहीं फोड़ सकती। फिर मेल-मुहब्बत से आदमी के सौ काम निकलते हैं। जैसा समय देखो, वैसा व्यवहार करो। तुम्हारे घर हाथी झूमता था, तो अब वह तुम्हारे किस काम का। अब तो तुम तीन रुपए के मजूर हो। मेरे घर तो भैंस लगती थी, लेकिन अब तो मजूरिन हूं, मगर उनकी समझ में कोई बात आती ही नहीं। कभी लड़कों के साथ रहने की सोचते हैं, कभी लखनऊ जाकर रहने की सोचते हैं। नाक में दम कर रखा है मेरे।
होरी ने ठकुरसुहाती की-यह भोला की सरासर नादानी है। बूढ़े हुए, अब तो उन्हें समझ आनी चाहिए। मैं समझा दूंगा।
'तो सबेरे आ जाना, रुपए दे दूंगी।'
'कुछ लिखा पढ़ी....।'
'तुम मेरे रुपए हजम न करोगे, मैं जानती हूं।'
उसका घर आ गया था। वह अंदर चली गई। होरी घर लौटा।