प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-३०

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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था, मानो खून सवार हो।

सोना ने उसकी ओर बरछी की-सी चुभने वाली आंखों से देखा और मानो कटार का आघात करती हुई बोली-ठीक-ठीक कहती हो?

'बिल्कुल ठीक। अपने बच्चे की कसम।'

'कुछ छिपाया तो नहीं?'

'अगर मैंने रत्ती-भर छिपाया हो तो आंखें फूट जाएं'

'तुमने उस पापी को लात क्यों नहीं मारी? उसे दांत क्यों नहीं काट लिया? उसका खून क्यों नहीं पी लिया, चिल्लाई क्यों नहीं?'

सिल्लो क्या जवाब दे।

सोना ने उन्मादिनी की भांति अंगारे की-सी आंखें निकालकर कहा-बोलती क्यों नहीं? क्यों तूने उसकी नाक दांतों से नहीं काट ली? क्यों नहीं दोनों हाथों से उसका गला दबा दिया? तब मैं तेरे चरणों पर सिर झुकाती। अब तो तुम मेरी आंखों में हरजाई हो, निरी बेसवा! अगर यही करना था, तो मातादीन का नाम क्यों कलंकित कर रही है, क्यों किसी को लेकर बैठ नहीं जाती, क्यों अपने घर नहीं चली गई? यही तो तेरे घर वाले चाहते थे। तू उपले और घास लेकर बाजार जाती, वहां से रुपये लाती और तेरा बाप बैठा, उसी रुपये की ताड़ी पीता। फिर क्यों उस ब्राहन का अपमान कराया? क्यों उसकी आबरू में बट्टा लगाया? क्यों सतवंती बनी बैठी हो? जब अकेले नहीं रहा जाता, तो किसी से सगाई क्यों नहीं कर लेती। क्यों नदी-तालाब में डूब नहीं मरती? क्यों दूसरों के जीवन में बिस घोलती है? आज मैं तुझसे कह देती हूं कि अगर इस तरह की बात फिर हुई और मुझे पता लगा, तो तीनों में से एक भी जीते न रहेंगे। बस, अब मुंह में कालिख लगाकर जाओ। आज से मेरे और तुम्हारे बीच में कोई नाता नहीं रहा।

सिल्लो धीरे से उठी और संभलकर खड़ी हुई। जान पड़ा, उसकी कमर टूट गई है। एक क्षण साहस बटोरती रही, किंतु अपनी सफाई में कुछ सूझ न पड़ा। आंखों के सामने अंधेरा था, सिर में चक्कर, कंठ सूख रहा था, और सारी देह सुन्न हो गई थी, मानो रोम छिद्रों से प्राण उड़े जा रहे हों। एक-एक पग इस तरह रखती हुई, मानो सामने गड्ढा है, तब बाहर आई और नदी की ओर चली।

द्वार पर मथुरा खड़ा था। बोला-इस वक्त कहां जाती हो सिल्लो? सिल्लो ने कोई जवाब न दिया। मथुरा ने भी फिर कुछ न पूछा। वही रुपहली चांदनी अब भी छाई हुई थी। नदी की लहरें अब भी चांद की किरणों में नहा रही थीं। और सिल्लो विक्षिप्त-सी स्वप्न-छाया की भांति नदी में चली जा रही थी।


तीस

मिल करीब-करीब पूरी जल चुकी है, लेकिन उसी मिल को फिर से खड़ा करना होगा। मिस्टर खन्ना ने अपनी सारी कोशिशें इसके लिए लगा दी हैं। मजदूरों की हड़ताल जारी है, मगर अब उससे मिल-मालिकों को कोई विशेष हानि नहीं है। नए आदमी कम वेतन पर मिल गए हैं और [ २७८ ]
जी तोड़कर काम करते हैं, क्योंकि उनमें सभी ऐसे हैं, जिन्होंने बेकारी के कष्ट भोग लिये हैं और अब अपना बस चलते ऐसा कोई काम करना नहीं चाहते जिससे उनकी जीविका में बाधा पड़े। चाहे जितना काम लो, चाहे जितनी कम छुट्टियां दो, उन्हें कोई शिकायत नहीं। सिर झुकाए बैलों की तरह काम में लगे रहते हैं। घुड़कियां, गालियां, यहां तक कि डंडों की मार भी उनमें ग्लानि नहीं पैदा करती, और अब पुराने मजदूरों के लिए इसके सिवा कोई मार्ग नहीं रह गया है कि वह इसी घटी हुई मजूरी पर काम करने आएं और खन्ना साहब की खुशामद करें। पंडित ओंकारनाथ पर तो उन्हें अब रत्ती भर भी विश्वास नहीं है। उन्हें वे अकेले-दुकेले पाएं तो शायद उनकी बुरी गत बनाएं, पर पंडितजी बहुत बचे हुए रहते हैं। चिराग जलने के बाद अपने कार्यालय से बाहर नहीं निकलते और अफसरों की खुशामद करने लगे हैं। मिर्जा खुर्शेद की धाक अब भी ज्यों-की-त्यों हैं, लेकिन मिर्जाजी इन बेचारों का कष्ट और उसके निवारण का अपने पास कोई उपाय देखकर दिल से चाहते हैं कि सब-के-सब बहाल हो जायं, मगर इसके साथ ही नए आदमियों के कष्ट का खयाल करके जिज्ञासुओं से यही कह दिया करते हैं कि जैसी इच्छा हो,वैसा करो।

मिस्टर खन्ना ने पुराने आदमियों को फिर नौकरी के लिए इच्छुक देखा तो और भी अकड़ गए, हालांकि वह मन से चाहते थे कि इस वेतन पर पुराने आदमी नयों से कहीं अच्छे हैं। नए आदमी अपना सारा जोर लगाकर भी पुराने आदमियों के बराबर काम न कर सकते थे। पुराने आदमियों में अधिकांश तो बचपन से ही मिल में काम करने के अभ्यस्त थे और खूब मंजे हुए। नए आदमियों में अधिकतर देहातों के दु:खी किसान थे, जिन्हें खुली हवा और मैदान में पुराने जमाने के लकड़ी के औजारों से काम करने की आदत थी। मिल के अंदर उनका दम घुटता था और मशीनरी के तेज चलने वाले पुर्जों से उन्हें भय लगता था।

आखिर जब पुराने आदमी खूब परास्त हो गए, तब खन्ना उन्हें बहाल करने पर राजी हुए, मगर नए आदमी इससे भी कम वेतन पर भी काम करने के लिए तैयार थे और अब डायरेक्टरों के सामने यह सवाल आया कि वह पुरानों को बहाल करें या नयों को रहने दें। डायरेक्टरों में आधे तो नये आदमियों का वेतन घटाकर रखने के पक्ष में थे, आधों की यह धारणा थी कि पुराने आदमियों को हाल के वेतन पर रख लिया जाय। थोड़े-से रुपये ज्यादा खर्च होंगे जरूर, मगर काम उससे कहीं ज्यादा होगा। खन्ना मिल के प्राण थे, एक तरह से सर्वेसर्वा। डायरेक्टर तो उनके हाथ की कठपुतलियां थे। निश्चय खन्ना ही के हाथों में था और वह अपने मित्रों से नहीं, शत्रुओं से भी इस विषय में सलाह ले रहे थे। सबसे पहले तो उन्होंने गोविन्दी की सलाह ली। जब से मालती की ओर से उन्हें निराशा हो गई थी और गोविन्द को मालूम हो गया था कि मेहता जैसा विद्वान और अनुभवी और ज्ञानी आदमी मेरा कितना सम्मान करता है और मुझसे किस प्रकार की साधना को आशा रखता है, तब से दंपति में स्नेह फिर जाग उठा था। स्नेह न कहो, मगर साहचर्य तो था ही। आपस में वह जलन और अशांति न थी। बीच की दीवार टूट गई थी।

मालती के रंग-ढंग की भी कायापलट होती जाती थी। मेहता का जीवन अब तक स्वाध्याय और चिंतन में गुजरा था, और सब कुछ पढ़ चुकने के बाद और आत्मवाद और अनात्मवाद की खूब छान-बीन कर लेने पर वह इसी तत्व पर पहुंच जाते थे कि प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों के बीच में जो सेवा-मार्ग है, चाहे उसे कर्मयोग ही कहो, वही जीवन को सार्थक कर सकता है, वही जीवन को ऊंचा और पवित्र बना सकता है। किसी सर्वज्ञ ईश्वर में उनका [ २७९ ]
विश्वास न था। यद्यपि वह अपनी नास्तिकता को प्रकट न करते थे, इसलिए कि इस विषय में निश्चित रूप से कोई मत स्थिर करना वह अपने लिए असंभव समझते थे, पर यह धारणा उनके मन में दृढ़ हो गई थी कि प्राणियों के जन्म-मरण, सुख-दु:ख,पाप-पुण्य में कोई ईश्वरीय विधान नहीं है। उनका खयाल था कि मनुष्य ने अपने अहंकार में अपने को इतना महान् बना लिया है कि उसके हर एक काम की प्रेरणा ईश्वर की ओर से होती है। इसी तरह वह टिड्डियां भी ईश्वर को उत्तरदायी ठहराती होंगी, जो अपने मार्ग में समुद्र आ जाने पर अरबों की संख्या में नष्ट हो जाती हैं। मगर ईश्वर के यह विधान इतने अजेय हैं कि मनुष्य की समझ में नहीं आते, तो उन्हें मानने से ही मनुष्य को क्या संतोष मिल सकता है। ईश्वर की कल्पना का एक ही उद्देश्य उनकी समझ में आता था और वह था मानव-जीवन की एकता। एकात्मवाद या सर्वात्मवाद या अहिंसा-तत्व को वह आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं, भौतिक दृष्टि से ही देखते थे, यद्यपि इन तत्वों का इतिहास के किसी काल में भी आधिपत्य नहीं रहा, फिर भी मनुष्य-जाति के सांस्कृतिक विकास में उनका स्थान बड़े महत्व का है। मानव-समाज की एकता में मेहता का दृढ़ विश्वास था, मगर इस विश्वास के लिए उन्हें ईश्वर-तत्त्व के मानने की जरूरत न मालूम होती थी। उनका मानव प्रेम इस आधार पर अवलंबित न था कि प्राणि-मात्र में एक आत्मा का निवास है। द्वैत और अद्वैत व्यावहारिक महत्त्व के सिवा वह और कोई उपयोग न समझते थे, और वह व्यावहारिक महत्त्व उनके लिए मानव-जाति को एक दूसरे के समीप लाना, आपस के भेद-भाव को मिटाना और भ्रातृ-भाव को दृढ़ करना ही था। यह एकता, यह अभिन्नता उनकी आत्मा में इस तरह जम गई थी कि उनके लिए किसी आध्यात्मिक आधार की सृष्टि उनकी दृष्टि में व्यर्थ थी और एक बार इस तत्व को पाकर वह शांत न बैठ सकते थे। स्वार्थ से अलग अधिक-से-अधिक काम करना उनके लिए आवश्यक हो गया था। इसके बगैर उनका चित्त शांत न हो सकता था। यश, लाभ या कर्तव्यपालन के भाव उनके मन में आते ही न थे। इनकी तुच्छता ही उन्हें इनसे बचाने के लिए काफी थी। सेवा ही अब उनका स्वार्थ होती जाती थी। और उनकी इस उदार वृत्ति का असर अज्ञात रूप से मालती पर भी पड़ता जाता था। अब तक जितने मर्द उसे मिले, सभी ने उसकी विलास वृत्ति को ही उकसाया। उसकी त्याग वृत्ति दिन-दिन क्षीण होती जाती थी, पर मेहता के संसर्ग में आकर उसकी त्याग-भावना सजग हो उठी थी। सभी मनस्वी प्राणियों में यह भावना छिपी रहती है और प्रकाश पाकर चमक उठती है। आदमी अगर धन या नाम के पीछे पड़ा है, तो समझ लो कि अभी तक वह किसी परिष्कृत आत्मा के संपर्क में नहीं आया। मालती अब अक्सर गरीबों के घर बिना फीस लिए ही मरीजों को देखने चली जाती थी। मरीजों के साथ उसके व्यवहार में मृदुता आ गई थी। हां, अभी तक वह शौक-सिंगार से अपना मन न हटा सकती थी। रंग और पाउडर का त्याग उसे अपने आंतरिक परिवर्तनों से भी कहीं ज्यादा कठिन जान पड़ता था।

इधर कभी-कभी दोनों देहातों की ओर चले जाते थे और किसानों के साथ दो-चार घंटे रहकर कभी-कभी उनके झोंपड़ों में रात काटकर और उन्हीं का-सा भोजन करके, अपने को धन्य समझते। एक दिन वह सेमरी तक पहुंच गए और, घूमते-घामते बेलारी जा निकले। होरी द्वार पर बैठा चिलम पी रहा था कि मालती और मेहता आकर खड़े हो गए। मेहता ने होरी को देखते ही पहचान लिया और बोला-यही तुम्हारा गांव है? याद है, हम लोग रायसाहब के यहां आए थे और तुम धनुषयज्ञ की लीला में माली बने थे। [ २८० ]

होरी की स्मृति जाग उठी। पहचाना और पटेश्वरी के घर की ओर कुरसियां लाने चला।

मेहता ने कहा-कुरसियों का कोई काम नहीं। हम लोग इसी खाट पर बैठे जाते हैं। यहां कुरसी पर बैठने नहीं, तुमसे कुछ सीखने आए हैं।

दोनों खाट पर बैठे। होरी हतबुद्धि-सा खड़ा था। इन लोगों की क्या खातिर करे! बड़े-बड़े आदमी हैं। उनकी खातिर करने लायक उसके पास है ही क्या?

आखिर उसने पूछा-पानी लाऊं?

मेहता ने कहा-हां, प्यास तो लगी है।

'कुछ मीठा भी लेता आऊं?'

'लाओ, अगर घर में हो।'

होरी घर में मीठा और पानी लेने गया तब तक गांव के बालकों ने आकर इन दोनों आदमियों को घेर लिया और लगे निरखने, मानो चिड़ियाघर के अनोखे जंतु आ गए हों।

सिल्लो बच्चे को लिए किसी काम से चली जा रही थी? इन दोनों आदमियों को देखकर कौतूहलवश ठिठक गई।

मालती ने आकर उसके बच्चे को गोद में ले लिया और प्यार करती हुई बोली-कितने दिनों का है?

सिल्लो को ठीक न मालूम था। एक दूसरी औरत ने बताया-कोई साल भर का होगा, क्यों री?

सिल्लो ने समर्थन किया।

मालती ने विनोद किया-प्यारा बच्चा है। इसे हमें दे दो।

सिल्लो ने गर्व से फूलकर कहा-आप ही का तो है।

'तो मैं इसे ले जाऊं?'

'ले जाइए। आपके साथ रहकर आदमी हो जायगा।'

गांव की और महिलाएं आ गईं और मालती को होरी के घर में ले गईं। यहां मरदों के सामने मालती से वार्तालाप करने का अवसर उन्हें न मिलता। मालती ने देखा, खाट बिछी है, और उस पर एक दरी पड़ी हुई है, जो पटेश्वरी के घर से मांगकर आई थी, मालती जाकर बैठी। संतान-रक्षा और शिशु-पालन की बातें होने लगीं। औरतें मन लगाकर सुनती रहीं।

धनिया ने कहा-यहां यह सब सफाई और संजम कैसे होगा सरकार। भोजन तक का ठिकाना तो है नहीं।

मालती ने समझाया-सफाई में कुल खर्च नहीं केवल थोड़ी-सी मेहनत और होशियारी से काम चल सकता है।

दुलारी सहुआइन ने पूछा-यह सारी बातें तुम्हें कैसे मालूम हुईं सरकार, आपका तो अभी ब्याह ही नहीं हुआ?

मालती ने मुस्कराकर पूछा-तुम्हें कैसे मालूम हुआ कि मेरा ब्याह नहीं हुआ है?

सभी स्त्रियां मुह फेरकर मुस्कराईं। पुनिया बोली-भला, यह भी छिपा रहता है, मिस साहब, मुंह देखते ही पता चल जाता है।

मालती ने झेंपते हुए कहा-इसलिए ब्याह नहीं किया कि आप लोगों की सेवा कैसे करती! [ २८१ ]

सबने एक स्वर में कहा-धन्य हो सरकार, धन्य हो।

सिलिया मालती के पांव दबाने लगी-सरकार कितनी दूर से आई हैं, थक गई होंगी।

मालती ने पांव खींचकर कहा-नहीं-नहीं, मैं थकी नहीं हूं। में तो हवागाड़ी पर आई हूं। मैं चाहती हूं, आप लोग अपने बच्चे लाएं, तो मैं उन्हें देखकर आप लोगों को बता दूं कि आप इन्हें कैसे तंदुरुस्त और नीरोग रख सकती हैं।

जरा देर में बीस पच्चीस बच्चे आ गए। मालती उनकी परीक्षा करने लगी। कई बच्चों की आंखें उठी थीं, उनकी आंखों में दवा डाली। अधिकतर बच्चे दुर्बल थे, जिसका कारण था, माता-पिता को भोजन अच्छा न मिलना। मालती को यह जानकर आश्चर्य हुआ कि बहुत कम घरों में दूध होता था। घी के तो सालों दर्शन नहीं होते।

मालती ने यहां भी उन्हें भोजन करने का महत्व समझाया, जैसा वह सभी गांवों में किया करती थी। उसका जी इसलिए जलता था कि ये लोग अच्छा भोजन क्यों नही करते? उसे ग्रामीणों पर क्रोध आ जाता था। क्या तुम्हारा जन्म इसलिए हुआ है कि तुम मर मरकर कमाओ और जो कुछ पैदा हो, उसे खा न सको, जहां दो चार बैलों के लिए भाजन है, एक-दो गाय भैसों के लिए चारा नहीं है? क्यों ये लोग भोजन को जीवन की मुख्य वस्तु न समझकर उसे केवल प्राण रक्षा की वस्तु समझते हैं? क्यों सरकार से नहीं कहते कि नाम-मात्र के ब्याज पर रुपये देकर उन्हें सूदखोर महाजनों के पंजे से बचाए? उसने जिस किसी से पूछा, वहां मालूम हुआ कि उनकी कमाई बड़ा भाग महाजनों का कर्ज चुकाने में खर्च हो जाता है। बटवारे का मरज भी बढ़ता जाता है। आपस में इतना वैमनम्य था कि शायद ही कोई दो भाई एक साथ रहते हों, उनकी इस दुर्दशा का कारण बहुत कुछ उनकी संकीणर्ता और स्वार्थपरता थी। मालती इन्ही विषयों पर महिलाओं से बातें करती रही। उनकी श्रद्धा देख-देख कर उसके मन में सेवा की प्रेरणा और भी प्रबल हो रही थी। इस त्यागमय जीवन के सामने वह विलासी जीवन कितना तुच्छ और बनावटी था। आज उसके वह रेशमी कपड़े, जिन पर जरी का काम था, और वह सुगन्ध से महकता हुआ शरीर, और वह पाउडर से अलंकृत मुख-मंडल, उसे लज्जित करने लगा। उसकी कलाई पर बंधी सोने की घड़ी जैसे अपने अपलक नेत्रों से उसे घूर रही थी। उसके गले में चमकता हुआ जड़ाऊ नेकलेस मानो उसका गला घोंट रहा था। इन त्याग और श्रद्धा की देवियों के सामने वह अपनी दृष्टि में नीची लग रही थी। वह इन ग्रामीणों से बहुत-सी बातें ज्यादा जानती थी, समय की गति ज्यादा पहचानती थी, लेकिन जिन परिस्थितियों में ये गरीबिनें जीवन को सार्थक कर रही हैं, उनमें क्या वह एक दिन भी रह सकती है? जिनमें अहंकार का नाम नहीं, दिन भर काम करती हैं, उपवास करती हैं, रोती हैं, फिर भी इतनी प्रसन्न मुख! दूसरे उनके लिए इतने अपने हो गए हैं कि अपना अस्तित्व ही नहीं रहा। उनका अपनापन अपने लड़कों में, अपने पति में, अपने सम्बन्धियों में है। इस भावना की रक्षा करते हुए-इसी भावना का क्षेत्र और बढ़ाकर-भावी नारीत्व का आदर्श निर्माण होगा। जाग्रत देवियों में इसकी जगह आत्म-सेवन का जो भाव आ बैठा है-सब कुछ अपने लिए, अपने भोग-विलास के लिए-उससे तो यह सुषुप्तावस्था ही अच्छी। पुरुष निर्दयी है, माना, लेकिन है तो इन्हीं माताओं का बेटा। क्यों माता ने पुत्र को ऐसी शिक्षा नहीं दी कि वह माता की, स्त्री-जाति की पूजा करता? इसीलिए कि माता को यह शिक्षा देनी नहीं आती, इसलिए कि उसने अपने को इतना मिटाया कि उसका रूप ही बिगड़ गया, उसका व्यक्तित्व ही नष्ट हो गया।

नहीं, अपने को मिटाने से काम न चलेगा। नारी को समाज कल्याण के लिए अपने अधिकारों की रक्षा करनी पड़ेगी, उसी तरह जैसे इन किसानों की अपनी रक्षा के लिए इस देवत्व का कुछ [ २८२ ]
त्याग करना पड़ेगा ।

संध्या हो गई थी। मालती को औरतें अब तक घेरे हुए थीं। उसकी बातों से जैसे उन्हें तृप्ति ही न होती थी। कई औरतों ने उससे रात को यहीं रहने का आग्रह किया। मालती को भी उसका सरल स्नेह ऐसा प्यारा लगा कि उसने उनका निमंत्रण स्वीकार कर लिया। रात को औरत उसे अपना गाना सुनाएंगी। मालती ने भी प्रत्येक घर में जा-जाकर उनकी दशा से परिचय प्राप्त करने में अपने समय का सदुपयोग किया। उसकी निष्कपट सद्भावना और सहानुभूति हैं। गंवारिनों के लिए देवी के वरदान से कम न थी।

उधर मेहता साहब खाट पर आसन जमाए किसानों की कुश्ती देख रहे थे। पछता रहे थे, मिर्जाजी को क्यों न साथ ले लिया, नहीं उनका भी एक जोड़ हो जाता। उन्हें आश्चर्य हो रहा था, ऐसे प्रौढ़ और निरीह बालकों के साथ शिक्षित कहलाने वाले लोग कैसे निर्दयी हो जाते हैं। अज्ञान की भांति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है। मानवता में उसका विश्वास इतना दृढ़ इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषिक समझने लगता है। वह यह भूल जाता है कि भेड़ियों ने भेड़ों की निरीहता का जवाब सदैव गले और दांतों से दिया है। वह अपना एक आदर्श-संसार बनाकर उसको आदर्श मानवता से आका करता है और उसी में मग्न रहता है। यथार्थता कितनी अगम्य, कितनी दुर्बोध, कितनी अप्राकृतिक है, उसकी ओर विचार करना उसके लिए मुश्किल हो जाता है। मेहताजी इस समय इन गलियों के बीच में बैठे हुए इसी प्रश्न को हल कर रहे थे कि इनकी दशा इतनी दयनीय क्यों है? वह इस सत्य से आंखें मिलाने का साहस न कर सकते थे कि उनका देवत्व ही इनकी दुर्दशा का कारण है। काश, ये आदमी ज्यादा और देवता कम होते, तो यों न ठुकराए जाते। देश में कुछ भी हो, क्रांति ही क्यों न आ जाय, इनसे कोई मतलब नहीं। कोई दल उनके सामने सबल के रूप में आए उसके सामने सिर झुकाने को तैयार। उनकी निरीहता जड़ता की हद तक पहुंच गई है, जिसे कठोर आघात ही वह बना सकता है। उनकी आत्मा जैसे चारों ओर से निराश होकर अब अपने अंदर ही टांगे तोड़कर बैठ गई है। उनमें अपने जीवन की चतना ही जैसे लुप्त हो गई है।

संध्या हो गई थी। जो लोग अब तक खेतों में काम कर रहे थे, वे दौड़े चले आ रह थे। उसी समय मेहता ने मालती को गांव की कई औरतों के साथ इस तरह तल्लीन होकर एक बच्चे को गोद में लिए देखा, मानो वह भी उन्हीं में से एक है। मेहता का हृदय आनंद से गद्गद् हो उठा। मालती ने एक प्रकार से अपने को मेहता पर अर्पण कर दिया था। इस विषय में महता को अब कोई संदेह न था, मगर अभी तक उनके हृदय में मालती के प्रति वह उत्कट भावना जागृत न हुई थी, जिसके बिना विवाह का प्रस्ताव करना उनके लिए हास्यजनक था। मालती बिना बुलाए मेहमान की भांति उनके द्वार पर आकर खड़ी हो गई थी, और मेहता ने उसका स्वागत किया था। इसमें प्रेम का भाव न था, पुरुषत्व का भाव था। अगर मालती उन्हें इस योग्य समझती है कि उन पर अपनी कृपा-दृष्टि फेरे, तो मेहता उसकी इस कृपा को अस्वीकार न कर सकते थे। इसके साथ ही वह मालती को गोविन्दी के रास्ते से हटा देना चाहते थे और वह जानते थे, मालती जब तक आगे पांव न जमा लेगी, वह पिछला पांव न उठाएगी। वह जानते थे, मालती के साथ छल करके वह अपनी नीचता का परिचय दे रहे हैं। इसके लिए उनकी आत्मा उन्हें बराबर धिक्कारती रही थी, मगर ज्यों-ज्यों वह मालती को निकट से देखते थे, उनके मन में आकर्षण बढ़ता जाता था। रूप का आकर्षण तो उन पर कोई असर न कर सकता था। [ २८३ ]
यह गुण का आकर्षण था। वह यह जानते थे, जिसे सच्चा प्रेम कह सकते हैं, केवल एक बंधन में बंध जाने के बाद ही पैदा हो सकता है। इसके पहले जो प्रेम होता है, वह तो रूप की आसक्ति-मात्र है, जिसका कोई टिकाव नहीं, मगर इसके पहले यह निश्चय तो करना ही था कि जो पत्थर साहचर्य के खराद पर चढ़ेगा, उसमें खरादे जाने की क्षमता है भी या नहीं। सभी पत्थर तो खराद पर चढ़कर सुंदर मूर्तियां नहीं बन जाते। इतने दिनों में मालती ने उनके हृदय के भिन्न-भिन्न भागों में अपनी रश्मियां डाली थीं, पर अभी तक वे केंद्रित होकर उस ज्वाला के रूप में न फूट पड़ी थीं, जिसमे उनका सारा अंतस्तल प्रज्ज्वलित हो जाता। आज मालती ने ग्रामीणों में मिलकर और सारे भेद-भाव मिटाकर इन रश्मियों को मानो केंद्रित कर दिया। और आज पहली बार मेहता को मालती से एकात्मता का अनुभव हुआ। ज्योंही मालती गांव का चक्कर लगाकर लौटी, उन्होंने उसे साथ लेकर नदी की ओर प्रस्थान किया। रात यहीं काटने का निश्चय हो गया। मालती का कलेजा आज न जाने क्यों धक-धक करने लगा। मेहता के मुख पर आज उसे एक विचित्र ज्योति और इच्छा झलकती हुई नजर आई।

नदी के किनारे चांदी का फर्श बिछा हुआ था और नदी रत्न-जटित आभूषण पहने मीठे स्वरों में गाती, चांद को और तारों को और सिर झुकाए नींद में सोते वृक्षों को अपना नृत्य दिखा रही थी। मेहता प्रकृति की उस मादक शोभा से जैसे मस्त हो गए। जैसे उनका बालपन अपनी सारी क्रीड़ाओं के साथ लौट आया हो। बालू पर कई कुलाटें मारीं। फिर दौड़े हुए नदी में जाकर घुटनों तक पानी में खड़े हो गए।

मालती ने कहा-पानी में न खड़े हो। कहीं ठंड न लग जाए।

मेहता ने पानी डालकर कहा-मेरा तो जी चाहता है, नदी के उस पार तैरकर चला जाऊं।

'नहीं-नहीं, पानी से निकल आओ। मैं न जाने दूंगी।'

'तुम मेरे साथ म चलोगी उस सूनी बस्ती में, जहां स्वप्नों का राज्य है?'

'मुझे तो तैरना नहीं आता।'

'अच्छा, आओ, एक नाव बनाएं, और उस पर बैठकर चलें।'

वह बाहर निकल आए। आस-पास बड़ी दूर तक झाऊ का जंगल खड़ा था। मेहता ने जेब से चाकू निकाला और बहुत-सी टहनियां काटकर जमा कीं। करार पर सरपत के जूटे खड़े थे। ऊपर चढ़कर सरपत का एक गट्टा काट लाए और वहीं बालू के फर्श पर बैठकर सरपत की रस्सी बटने लगे। ऐसे प्रसन्न थे, मानो स्वर्गारोहण की तैयारी कर रहे हैं। कई बार उंगलियां चिर गईं, खून निकला। मालती बिगड़ रही थी, बार-बार गांव लौट चलने के लिए आग्रह कर रही थी, पर उन्हें कोई परवाह न थी। वही बालकों का-सा उल्लास था, वही अल्हड़पन, वही हठ। दर्शन और विज्ञान सभी इस प्रवाह में बह गए थे।

रस्सी तैयार हो गई। झाऊ का बड़ा-सा तख्ता बन गया, टहनियां दोनों सिरों पर रस्सी से जोड़ दी गई थीं। उसके छिद्रों में झाऊ की टहनियां भर दी गईं, जिससे पानी ऊपर न आए। नौका तैयार हो गई। रात और भी स्वप्निल हो गई थी।

मेहता ने नौका को पानी में डालकर मालती का हाथ पकड़कर कहा-आओ, बैठो।

मालती ने सशंक होकर कहा-दो आदमियों का बोझ संभाल लेगी?

मेहता ने दार्शनिक मुस्कान के साथ कहा-जिस तरी पर बैठे हम लोग जीवन-यात्रा कर हैं, वह तो इससे कहीं निस्सार है मालती? क्या डर रही हो? [ २८४ ]

'डर किस बात का, जब तुम साथ हो।'

'सच कहती हो?'

अब तक, मैंने बगैर किसी की सहायता के बाधाओं को जीता है। अब तो तुम्हारे संग हूं।

दोनों उस झाऊ के तख्ते पर बैठे और मेहता ने झाऊ के एक डंडे से ही उसे खेना शुरू किया। तख्ता डगमगाता हुआ पानी में चला।

मालती ने मन को इस तख्ते से हटाने के लिए पूछा-तुम हो हमेशा शहरों में रहे, गांव के जीवन का तुम्हें कैसे अभ्यास हो गया? मैं तो ऐसा तख्ता कभी न बना सकती।

मेहता ने उसे अनुरक्त नेत्रों से देखकर कहा-शायद यह मेरे पिछले जन्म का संस्कार है। प्रकृति से स्पर्श होते ही जैसे मुझमें नया जीवन-सा आ जाता है, नस-नस में स्फूर्ति दौड़ने लगती है। एक-एक पक्षी, एक-एक पशु, जैसे मुझे आनंद का निमंत्रण देता हुआ जान पड़ता है, मानो भूले हुए सुखों की याद दिला रहा हो। यह आनंद मुझे और कहीं नहीं मिलता मालती, सवप्न के रुलानेवाले स्वरों में भी नहीं, दर्शन की ऊंची उड़ानों में भी नहीं। जैसे ये सब मेरे अपने सगे हों, प्रकृति के बीच आकर मैं जैसे अपने-आपको पा जाता हूं, जैसे पक्षी अपने घोंसले में आ जाए।

तख्ता डगमगाता, कभी तिरछा, कभी सीधा, कभी चक्कर खाता हुआ चला जा रहा था।

सहसा मालती ने कातर-कंठ से पूछा-और मैं तुम्हारे जीवन में कभी नहीं आती?

मेहता ने उसका हाथ पकड़कर कहा-आती हो, बार-बार आती हो, सुगंध के एक झौंके की तरह, कल्पना की एक छाया की तरह और फिर अदृश्य हो जाती हो। दौड़ता हूँ कि तुम्हें करपाश में बांध लूं पर हाथ खुले रह जाते हैं। और तुम गायब हो जाती हो।

मालती ने उन्माद की दशा में कहा-लेकिन तुमने इसका कारण भी सोचा, समझना चाहा?

'हां मालती, बहुत सोचा, बार- बार सोचा।'

'तो क्या मालूम हुआ?'

'यही कि मैं जिस आधार पर जीवन का भवन खड़ा करना चाहता हूं, वह अस्थिर है। यह कोई विशाल भवन नहीं है, केवल एक छोटी-सी शांत कुटिया है, लेकिन उसके लिए भी तो कोई स्थिर आधार चाहिए।'

मालती ने अपना हाथ छुड़ाकर जैसे मान करते हुए कहा-यह झूठा आक्षेप है। तुमने हमेशा मुझे परीक्षा की आंखों देखा, कभी प्रेम की आंखों से नहीं। क्या तुम इतना भी नहीं जानते कि नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है। परीक्षा गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीज है, प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुंदर को सुंदर। मैंने तुमसे प्रेम किया, मैं कल्पना ही नहीं कर सकती कि तुममें काई बुराई भी है, मगर तुमने मेरी परीक्षा की और तुम मुझे अस्थिर, चंचल और जाने क्या-क्या समझकर मुझसे हमेशा दूर भागते रहे। नहीं, मैं जो कुछ कहना चाहती हूं, वह मुझे कह लेने दो। मैं क्यों अस्थिर और चंचल हूं? इसलिए कि मुझे वह प्रेम नहीं मिला जो मुझे स्थिर और अचंचल बनाता। अगर तुमने मेरे सामने उसी तरह आत्मसमर्पण किया होता जैसे मैंने तुम्हारे सामने किया है, तो तुम आज मुझ पर यह आक्षेप न रखते।

मेहता ने मालती के मान का आनंद उठाते हुए कहा-तुमने मेरी परीक्षा कभी नहीं की? सच कहती हो?

'कभी नहीं?'

'तो तुमने गलती की।'

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'मैं इसकी परवा नहीं करती।'

'भावुकता में न आओ मालती। प्रेम देने के पहले हम सब परीक्षा करते हैं और तुमने की, चाहे अप्रत्यक्ष रूप से ही की हो। मैं आज तुमसे स्पष्ट कहता हूं कि पहले मैंने तुम्हें इसी तरह देखा, जैसे रोज ही हजारों देवियों को देखा करता हूं, केवल विनोद के भाव से। अगर मैं गलती नहीं करता, तो तुमने भी मुझे मनोरंजन के लिए एक नया खिलौना समझा।'

मालती ने टोका-गलत कहते हो। मैंने कभी तुम्हें इस नजर से नहीं देखा। मैंने पहले ही दिन तुम्हें अपना देव बनाकर अपने हृदय....

मेहता बात काटकर बोले-फिर वही भावुकता। मुझे ऐसे महत्त्च के विषय में भावुकता पसंद नहीं, अगर तुमने पहले ही दिन से मुझे इस कृपा के योग्य समझा तो इसका यही कारण हो सकता है, कि मैं रूप भरने में तुमसे ज्यादा कुशल हूं, वरना जहां तक मैंने नारियों का स्वभाव देखा है, वह प्रेम के विषय में काफी छान-बीन करती हैं। पहले भी तो स्वयंवर से पुरुषों की परीक्षा होती थी? वह मनोवृत्ति अब भी मौजूद है चाहे उसका रूप कुछ बदल गया हो। मैंने तब से बराबर यही कोशिश की है कि अपने को सम्पूर्ण रूप से तुम्हारे सामने रख दूं और उसके साथ ही तुम्हारी आत्मा तक भी पहुंच जाऊं। और मैं ज्यों-ज्यों तुम्हारे अन्तस्तल की गहराई में उतरा हूं, मुझे रत्न ही मिले हैं। मैं विनोद के लिए आया और आज उपासक बना हुआ हूं। तुमने मेरे भीतर क्या पाया यह मुझे मालूम नहीं।

नदी का दूसरा किनारा आ गया। दोनों उतरकर उसी बालू के फर्श पर जा बैठे और मेहता फिर उसी प्रवाह में बोले-और आज मैं यहां वही पूछने के लिए तुम्हें लाया हूं?

मालती ने कांपते हुए स्वर में कहा-क्या अभी तुम्हें मुझसे यह पूछने की जरूरत बाकी है?

'हां, इसलिए कि मैं आज तुम्हें अपना वह रूप दिखाऊंगा, जो शायद अभी तक तुमने नहीं देखा और जिसे मैंने भी छिपाया है। अच्छा, मान लो, मैं तुमसे विवाह करके कल तुमसे बेवफाई करूं तो तुम मुझे क्या सजा दोगी?'

मालती ने उसकी ओर चकित होकर देखा। इसका आशय उसकी समझ में न आया।

'ऐसा प्रश्न क्यों करते हो?'

'मेरे लिए यह बड़े महत्व की बात है।'

'मैं इसकी सम्भावना नहीं समझती।'

'संसार में कुछ भी असम्भव नहीं है। बड़े-से-बड़ा महात्मा भी एक क्षण में पतित हो सकता है।'

'मैं उसका कारण खोजूंगी और उसे दूर करूंगी।'

'मान लो, मेरी आदत न छूटे।'

'फिर मैं नहीं कह सकती, क्या करूंगी। शायद विष खाकर सो रहूं।'

'लेकिन यदि तुम मुझसे यही प्रश्न करो, तो मैं उसका दूसरा जवाब दूंगा।'

मालती ने सशंक होकर पूछा-बतलाओ!

मेहता ने दृढ़ता के साथ कहा-मैं पहले तुम्हारा प्राणान्त कर दूंगा, फिर अपना।

मालती ने जोर से कहकहा मारा और सिर से पांव तक सिहर उठी। उसकी हंसी केवल उसकी सिहरन को छिपाने का आवरण थी।

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मेहता ने पूछा-तुम हंसी क्यों?

'इसीलिए कि तुम तो ऐसे हिंसावादी नहीं जान पड़ते।'

'नहीं मालती, इस विषय में मैं पूरा पशु हूं और उस पर लज्जित होने का कोई कारण नहीं देखता। आध्यात्मिक प्रेम और त्यागमय प्रेम और नि:स्वार्थ प्रेम, जिसमें आदमी अपने को मिटाकर केवल प्रेमिका के लिए जीता है, उसके आनंद से आनंदित होता है और उसके चरणों पर अपना आत्मसमर्पण कर देता है, ये मेरे लिए निरर्थक शब्द हैं। मैंने पुस्तकों में ऐसी प्रेम-कथाएं पढ़ी हैं, जहां प्रेमी ने प्रेमिका के नए प्रेमियों के लिए अपनी जान दे दी है, मगर उस भावना को मैं श्रद्धा कह सकता हूं, सेवा कह सकता हूं, प्रेम कभी नहीं। प्रेम सीधी-सादी गऊ नहीं, खूंख्वार शेर है, जो अपने शिकार पर किसी की आंख भी नहीं पड़ने देता'

मालती ने उनकी आंखों में आंखें डालकर कहा-अगर प्रेम खूंख्वार शेर है तो मैं उससे दूर ही रहूंगी। मैंने तो उसे गाय ही समझ रखा था। मैं प्रेम को संदेह से ऊपर समझती हूं। वह देह की वस्तु नहीं, आत्मा की वस्तु है। संदेह का वहां जरा भी स्थान नहीं और हिंसा तो संदेह का ही परिणाम है। वह संपूर्ण आत्म-समर्पण है। उसके मंदिर में तुम परीक्षक बनकर नहीं उपासक बनकर ही वरदान पा सकते हो।

वह उठकर खड़ी हो गई और तेजी से नदी की तरफ चली, मानो उसने अपना खोया हुआ मार्ग पा लिया हो। ऐसी स्फूर्ति का उसे कभी अनुभव न हुआ। उसने स्वतंत्र जीवन में भी अपने में एक दुर्बलता पाई थी, जो उसे सदैव आंदोलित करती रहती थी, सदैव अस्थिर रखती थी। उसका मन जैसे कोई आश्रय खोजा करता था, जिसके बल पर टिक सके, संसार का सामना कर सके। अपने में उसे यह शक्ति न मिलती थी। बुद्धि और चरित्र की शक्ति देखकर वह उसकी ओर लालायित होकर जाती थी। पानी की भांति हर एक पात्र का रूप धारण कर लेती थी। उसका अपना कोई रूप न था।

उसकी मनोवृत्ति अभी तक किसी परीक्षार्थी छात्र की-सी थी। छात्र को पुस्तकों से प्रेम हो सकता है और हो जाता है, लेकिन वह पुस्तक के उन्हीं भागों पर ज्यादा ध्यान देता है, जो परीक्षा में आ सकते हैं। उसकी पहली गरज परीक्षा में सफल होना है। ज्ञानार्जन इसके बाद। अगर उसे मालूम हो जाय कि परीक्षक बड़ा दयालु है या अन्धा है और छात्रों को यों ही पास कर दिया करता है, तो शायद वह पुस्तकों की ओर आंख उठाकर भी न देखे। मालती जो कुछ करती थी, मेहता को प्रसन्न करने के लिए। उसका मतलब था, मेहता का प्रेम और विश्वास प्राप्त करना, उसके मनोराज्य की रानी बन जाना, लेकिन उसी छात्र की तरह अपनी योग्यता का विश्वास जमाकर। लियाकत आ जाने से परीक्षक आप-ही-आप उससे संतुष्ट हो जाएगा, इतना धैर्य उसे न था। मगर आज मेहता ने जैसे उसे ठुकराकर उसकी आत्म-शक्ति को जगा दिया। मेहता को जब से उसने पहली बार देखा था, तभी से उसका मन उनकी ओर झुका था। उसे वह अपने परिचितों में सबसे समर्थ जान पड़े। उसके परिष्कृत जीवन में बुद्धि की प्रखरता और विचारों की दृढ़ता ही सबसे ऊंची वस्तु थी। धन और ऐश्वर्य को तो वह केवल खिलौना समझती थी, जिसे खेलकर लड़के तोड़-फोड़ डालते हैं। रूप में भी अब उसके लिए विशेष आकर्षण न था, यद्यपि कुरूपता के लिए घृणा थी। उसको तो अब बुद्धि-शक्ति ही अपनी ओर झुका सकती थी, जिसके आश्रय में उसमें आत्म-विश्वास जगे, अपने विकास की प्रेरणा मिले, अपने में शक्ति का संचार हो, अपने
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जीवन की सार्थकता का ज्ञान हो। मेहता के बुद्धिबल और तेजिस्वता ने उसके ऊपर अपनी मुहर लगा दी और तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी। जिस प्रेरक शक्ति की उसे जरूरत थी, वह मिल गई थी और अज्ञात रूप से उसे गति और शक्ति दे रही थी। जीवन का नया आदर्श जो उसके सामने आ गया था, वह अपने को उसके समीप पहुंचाने की चेष्टा करती हुई और सफलता का अनुभव करती हुई उस दिन की कल्पना कर रही थी, जब वह और मेहता एकात्म हो जायंगे और यह कल्पना उसे और भी दृढ़ और निष्ठावान बना रही थी।

मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिराकर भौतिक धरातल तक पहुंचा दिया गया था, जहां संदेह और ईर्ष्या और भोग का राज है, तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थी, उसे एक धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने गुरु को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर खींचे लिये जाती है और उसके देवत्व की ओर से आंखें बन्द किए लेती है, और यह देखकर उसका दिल बैठ गया।

मेहता ने कुछ लज्जित होकर कहा-आओ, कुछ देर और बैठें।

मालती बोली-नहीं, अब लौटना चाहिए। देर हो रही है।

इकतीस


रायसाहब का सितारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गए थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गई थी, मुकदमा जीत गए थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गए थे। चारों ओर से बधाइयां मिल रही थीं। तारों का तांता लगा हुआ था। इस मुकदमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था, मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गई थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। कर्ज की मात्रा बहुत बढ़ गई थी, मगर अब रायसाहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नई मिलकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर कर्ज से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊंची-से-ऊंची कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊंचे जा पहुंचे थे। अभी तक उनका बंगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसूरी और शिमला-तीनों स्थानों में एक-एक बंगला बनवाना लाजिम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जाएं, तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बंगले में ठहरें। जब सूर्यप्रतापसिंह के बंगले इन सभी स्थानों में थे, तो रायसाहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बंगले न हों। संयोग से बंगले बनवाने की जहमत न उठानी पड़ी। बने-बनाए बंगले सस्ते दामों में मिल गए। हर एक बंगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, खानसामा आदि भी रख लिए गए थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज मैजेस्टी के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गई। अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गई। उस दिन खूब जश्न मनाया