प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-३१

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

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जीवन की सार्थकता का ज्ञान हो। मेहता के बुद्धिबल और तेजिस्वता ने उसके ऊपर अपनी मुहर लगा दी और तब से वह अपना संस्कार करती चली जाती थी। जिस प्रेरक शक्ति की उसे जरूरत थी, वह मिल गई थी और अज्ञात रूप से उसे गति और शक्ति दे रही थी। जीवन का नया आदर्श जो उसके सामने आ गया था, वह अपने को उसके समीप पहुंचाने की चेष्टा करती हुई और सफलता का अनुभव करती हुई उस दिन की कल्पना कर रही थी, जब वह और मेहता एकात्म हो जायंगे और यह कल्पना उसे और भी दृढ़ और निष्ठावान बना रही थी।

मगर आज जब मेहता ने उसकी आशाओं को द्वार तक लाकर प्रेम का वह आदर्श उसके सामने रखा, जिसमें प्रेम को आत्मा और समर्पण के क्षेत्र से गिराकर भौतिक धरातल तक पहुंचा दिया गया था, जहां संदेह और ईर्ष्या और भोग का राज है, तब उसकी परिष्कृत बुद्धि आहत हो उठी। और मेहता से जो उसे श्रद्धा थी, उसे एक धक्का-सा लगा, मानो कोई शिष्य अपने गुरु को कोई नीच कर्म करते देख ले। उसने देखा, मेहता की बुद्धि-प्रखरता प्रेमत्व को पशुता की ओर खींचे लिये जाती है और उसके देवत्व की ओर से आंखें बन्द किए लेती है, और यह देखकर उसका दिल बैठ गया।

मेहता ने कुछ लज्जित होकर कहा-आओ, कुछ देर और बैठें।

मालती बोली-नहीं, अब लौटना चाहिए। देर हो रही है।

इकतीस


रायसाहब का सितारा बुलंद था। उनके तीनों मंसूबे पूरे हो गए थे। कन्या की शादी धूम-धाम से हो गई थी, मुकदमा जीत गए थे और निर्वाचन में सफल ही न हुए थे, होम मेम्बर भी हो गए थे। चारों ओर से बधाइयां मिल रही थीं। तारों का तांता लगा हुआ था। इस मुकदमे को जीतकर उन्होंने ताल्लुकेदारों की प्रथम श्रेणी में स्थान प्राप्त कर लिया था। सम्मान तो उनका पहले भी किसी से कम न था, मगर अब तो उसकी जड़ और भी गहरी और मजबूत हो गई थी। सामयिक पत्रों में उनके चित्र और चरित्र दनादन निकल रहे थे। कर्ज की मात्रा बहुत बढ़ गई थी, मगर अब रायसाहब को इसकी परवाह न थी। वह इस नई मिलकियत का एक छोटा-सा टुकड़ा बेचकर कर्ज से मुक्त हो सकते थे। सुख की जो ऊंची-से-ऊंची कल्पना उन्होंने की थी, उससे कहीं ऊंचे जा पहुंचे थे। अभी तक उनका बंगला केवल लखनऊ में था। अब नैनीताल, मंसूरी और शिमला-तीनों स्थानों में एक-एक बंगला बनवाना लाजिम हो गया। अब उन्हें यह शोभा नहीं देता कि इन स्थानों में जाएं, तो होटलों में या किसी दूसरे राजा के बंगले में ठहरें। जब सूर्यप्रतापसिंह के बंगले इन सभी स्थानों में थे, तो रायसाहब के लिए यह बड़ी लज्जा की बात थी कि उनके बंगले न हों। संयोग से बंगले बनवाने की जहमत न उठानी पड़ी। बने-बनाए बंगले सस्ते दामों में मिल गए। हर एक बंगले के लिए माली, चौकीदार, कारिन्दा, खानसामा आदि भी रख लिए गए थे। और सबसे बड़े सौभाग्य की बात यह थी कि अबकी हिज मैजेस्टी के जन्मदिन के अवसर पर उन्हें राजा की पदवी भी मिल गई। अब उनकी महत्वाकांक्षा सम्पूर्ण रूप से सन्तुष्ट हो गई। उस दिन खूब जश्न मनाया
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गया और इतनी शानदार दावत हुई कि पिछले सारे रेकार्ड टूट गये। जिस वक्त हिज़ एक्सेलेंसी गवर्नर ने उन्हें पदवी प्रदान की, गर्व के साथ राज-भक्ति की ऐसी तरंग उनके मन में उठी कि उनका एक-एक रोम उससे प्लावित हो उठा। यह है जीवन! नहीं, विद्रोहियों के फेर में पड़कर व्यर्थ बदनामी ली, जेल गए और अफसरों की नजरों से गिर गए। जिस डी. एस. पी. ने उन्हें पिछली बार गिरफ्तार किया था, इस वक्त वह उनके सामने हाथ बांधे खड़ा था और शायद अपने अपराध के लिए क्षमा मांग रहा था।

मगर जीवन की सबसे बड़ी विजय उन्हें उस वक्त हुई, जब उनके पुराने, परास्त शत्रु, सूर्यप्रतापसिंह ने उनके बड़े लड़के रुद्रपालसिंह से अपनी कन्या के विवाह का संदेशा भेजा। रायसाहब को न मुकदमा जीतने की इतनी खुशी हुई थी, न मिनिस्टर होने की। वह सारी बातें कल्पना में आती थीं, मगर यह बात तो आशातीत ही नहीं, कल्पनातीत थी। वही सूर्यप्रतापसिंह जो अभी कई महीने तक उन्हें अपने कुत्ते से भी नीचा समझता था, वह आज उनके लड़के से अपनी लड़की का विवाह करना चाहता था! कितनी असम्भव बात! रुद्रपाल इस समय एम. ए. में पढ़ता था, बड़ा निर्भीक, पक्का आदर्शवादी, अपने ऊपर भरोसा रखने वाला, अभिमानी, रसिक और आलसी युवक था, जिसे अपने पिता की यह धन और मानलिप्सा बुरी लगती थी।

रायसाहब इस समय नैनीताल में थे। यह संदेशा पाकर फूल उठे। यद्यपि वह विवाह के विषय में लड़के पर किसी तरह का दबाव डालना न चाहते थे, पर इसका उन्हें विश्वास था कि वह जो कुछ निश्चय कर लेंगे, उसमें रुद्रपाल को कोई आपत्ति न होगी और राजा सूर्यप्रतापसिंह से नाता हो जाना एक ऐसे सौभाग्य की बात थी कि रुद्रपाल का सहमत न होना खयाल में भी न आ सकता था। उन्होंने तुरन्त राजा साहब को बात दे दी और उसी वक्त रुद्रपाल को फोन किया।

रुद्रपाल ने जवाब दिया-मुझे स्वीकार नहीं। रायसाहब को अपने जीवन में न कभी इतनी निराशा हुई थी, न इतना क्रोध आया था। पूछा-कोई वजह?

'समय आने पर मालूम हो जायगा।'

'मैं अभी जानना चाहता हूं।'

'मैं नहीं बतलाना चाहता।'

'तुम्हें मेरा हुक्म मानना पड़ेगा।'

'जिस बात को मेरी आत्मा स्वीकार नहीं करती, उसे मैं आपके हुक्म से नहीं मान सकता।'

रायसाहब ने बड़ी नम्रता से समझाया-बेटा, तुम आदर्शवाद के पीछे अपने पैरों में कुल्हाड़ी मार रहे हो। यह संबंध समाज में तुम्हारा स्थान कितना ऊंचा कर देगा, कुछ तुमने सोचा है? इसे ईश्वर की प्रेरणा समझो। उस कुल की कोई दरिद्र कन्या भी मुझे मिलती, तो मैं अपने भाग्य को सराहता, यह तो राजा सूर्यप्रताप की कन्या है, जो हमारे सिरमौर हैं। मैं उसे रोज देखता हूं। तुमने भी देखा होगा। रूप, गुण, शील, स्वभाव में ऐसी युवती मैंने आज तक नहीं देखी। मैं तो चार दिन का और मेहमान हूं। तुम्हारे सामने सारा जीवन पड़ा है। मैं तुम्हारे ऊपर दबाव नहीं डालना चाहता। तुम जानते हो, विवाह के विषय में मेरे विचार कितने उदार हैं, लेकिन मेरा यह भी तो धर्म है कि अगर तुम्हें गलती करते देखूं, तो चेतावनी दे दूं।

रुद्रपाल ने इसका जवाब दिया-मैं इस विषय में बहुत पहले निश्चय कर चुका हूं। उसमें अब कोई परिवर्तन नहीं हो सकता।

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राय साहब को लड़के की जड़ता पर फिर क्रोध आ गया। गरजकर बोले-मालूम होता है, तुम्हारा सिर फिर गया है। आकर मुझसे मिलो। विलंव न करना। मैं राजा साहब को जबान दे चुका हूं।

रुद्रपाल ने जवाब दिया-खेद है, अभी मुझे अवकाश नहीं है।

दूसरे दिन रायसाहब खुद आ गए। दोनों अपने-अपने शस्त्रों से सजे हुए तैयार खड़े थे। एक ओर सम्पूर्ण जीवन का मंजा हुआ अनुभव था, समझौतों से भरा हुआ, दूसरी ओर कच्चा आदर्शवाद था, जिद्दी, उद्दंड और निर्मम।

रायसाहब ने सीधे मर्म पर आघात किया-मैं जानना चाहता हूं, वह कौन लड़की है?

रुद्रपाल ने अचल भाव से कहा-अगर आप इतने उत्सुक हैं, तो सुनिए। वह मालती देवी की बहन सरोज है।

रायसाहब आहत होकर गिर पड़े-अच्छा वह!

'आपने तो सरोज को देखा होगा?'

'खूब देखा है। तुमने राजकुमारी को देखा है या नहीं?'

'जी हाँ, खूब देखा है।'

'फिर भी....'

'मैं रूप को कोई चीज नहीं समझता।'

'तुम्हारी अक्ल पर मुझे अफसोस आता है। मालती को जानते हो, कैसी औरत है? उसकी बहन क्या कुछ और होगी।'

रुद्रपाल ने तेवरी चढ़ाकर कहा-मैं इस विषय में आपसे और कुछ नहीं कहना चाहता, मगर मेरी शादी होगी, तो सरोज से।'

'मेरे जीते जी कभी नहीं हो सकती।'

'तो आपके बाद होगी।'

'अच्छा, तुम्हारे यह इरादे हैं!'

और रायसाहब की आंखें सजल हो गईं। जैसे सारा जीवन उजड़ गया हो। मिनिस्टरी और इलाका और पदवी, सब जैसे बासी फूलों की तरह नीरस, निरानन्द हो गए हों। जीवन की सारी साधना व्यर्थ हो गई। उनकी स्त्री का जब देहांत हुआ था, तो उनकी उम्र छत्तीस साल से ज्यादा न थी। वह विवाह कर सकते थे, और भोगविलास का आनंद उठा सकते थे। सभी उनसे विवाह करने के लिए आग्रह कर रहे थे, मगर उन्होंने इन बालकों का मुंह देखा और विधुर जीवन की साधना स्वीकार कर ली। इन्हीं लड़कों पर अपने जीवन का सारा भोग-विलास न्योछावर कर दिया। आज तक अपने हृदय का सारा स्नेह इन्हीं लड़कों को देते चले आए हैं, और आज यह लड़का इतनी निष्ठुरता से बातें कर रहा है, मानो उनसे कोई नाता नहीं, फिर वह क्यों जायदाद और सम्मान और अधिकार के लिए जान दें। इन्हीं लड़कों ही के लिए तो वह सब कुछ कर रहे थे, जब लड़कों को उनका जरा भी लिहाज नहीं, तो वह क्यों यह तपस्या करें। उन्हें कौन संसार में बहुत दिन रहना है। उन्हें भी आराम से पड़े रहना आता है। उनके और हजारों भाई मूंछों पर ताव देकर जीवन का भोग करते हैं और मस्त घूमते हैं। फिर वह भी क्यों न भोग-विलास में पड़े रहें। उन्हें इस वक्त याद न रहा कि वह जो तपस्या कर रहे हैं, वह लड़कों के लिए नहीं, बल्कि अपने लिए, केवल यश के लिए
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नहीं, बल्कि इसीलिए कि वह कर्मशील हैं और उन्हें जीवित रहने के लिए इसकी जरूरत है। वह विलासी और अकर्मण्य बनकर अपनी आत्मा को संतुष्ट नहीं रख सकते। उन्हें मालूम नहीं, कि कुछ लोगों की प्रकृति ही ऐसी होती है कि विलास का अपाहिजपन स्वीकार ही नहीं कर सकते। वे अपने जिगर का खून पीने ही के लिए बने हैं, और मरते दम तक पिए जाएंगे।

मगर इस चोट की प्रतिक्रिया भी तुरंत हुई। हम जिनके लिए त्याग करते हैं उनसे किसी बदले की आशा न रखकर भी उनके मन पर शासन करना चाहते हैं, चाहे वह शासन उन्हीं के हित के लिए हो, यद्यपि उस हित को हम इतना अपना लेते हैं कि वह उनका न होकर हमारा हो जाता है। त्याग की मात्रा जितनी ही ज्यादा होती है, यह शासन-भावना भी उतनी ही प्रबल होती है और जब सहसा हमें विद्रोह का सामना करना पड़ता है, तो हम क्षुब्ध हो उठते हैं, और वह त्याग जैसे प्रतिहिंसा का रूप ले लेता है। रायसाहब को यह जिद पड़ गई कि रुद्रपाल का विवाह सरोज के साथ न होने पाए, चाहे इसके लिए उन्हें पुलिस की मदद क्यों न लेनी पड़े, नीति की हत्या क्यों न करनी पड़े।

उन्होंने जैसे तलवार खींचकर कहा-हां, मेरे बाद ही होगी और अभी उसे बहुत दिन हैं।

रुद्रपाल ने जैसे गोली चला दी-ईश्वर करे, आप अमर हों! सरोज से मेरा विवाह हो चुका।

'झूठ!'

'बिलकुल नहीं, प्रमाण-पत्र मौजूद है।'

रायसाहब आहत होकर गिर पड़े। इतनी सतृष्ण हिंसा की आंखों से उन्होंने कभी किसी शत्रु को न देखा था। शत्रु अधिक-से-अधिक उनके स्वार्थ पर आघात कर सकता था, या देह पर या सम्मान पर, पर यह आघात तो उस मर्मस्थल पर था, जहां जीवन की सम्पूर्ण प्रेरणा संचित थी। एक आंधी थी जिसने उनका जीवन जड़ से उखाड़ दिया। अब वह सर्वथा अपंग हैं। पुलिस की सारी शक्ति हाथ में रहते हुए अपंग हैं। बल-प्रयोग उनका अन्तिम शस्त्र था। वह शस्त्र उनके हाथ से निकल चुका था। रुद्रपाल बालिग है, सरोज भी बालिग है। और रुद्रपाल अपनी रियासत का मालिक है। उनका उस पर कोई दबाव नहीं। आह! अगर जानते यह लौंडा यों विद्रोह करेगा, तो इस रियासत के लिए लड़ते ही क्यों? इस मुकदमेबाजी के पीछे दो-ढाई लाख बिगड़ गए। जीवन ही नष्ट हो गया। अब तो उनकी लाज इसी तरह बचेगी कि इस लौंडे की खुशामद करते रहें, उन्होंने जरा बाधा दी और इज्जत धूल में मिली। वह जीवन का बलिदान करके भी अब स्वामी नहीं हैं। ओह! सारा जीवन नष्ट हो गया। सारा जीवन।

रुद्रपाल चला गया था। रायसाहब ने कार मंगवाई और मेहता से मिलने चले। मेहता अगर चाहें तो मालती को समझा सकते हैं। सरोज भी उनकी अवहेलना न करेगी, अगर दस-बीस हजार रुपए बल खाने से भी यह विवाह रुक जाए, तो वह देने को तैयार थे। उन्हें उस स्वार्थ के नशे में यह बिल्कुल खयाल न रहा कि वह मेहता के पास ऐसा प्रस्ताव लेकर जा रहे हैं, जिस पर मेहता की हमदर्दी कभी उनके साथ न होगी।

मेहता ने सारा वृत्तांत सुनकर उन्हें बनाना शुरू किया। गम्भीर मुंह बनाकर बोले-यह तो आपकी प्रतिष्ठा का सवाल है।

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रायसाहब भांप न सके। उछलकर बोले-जी हाँ, केवल प्रतिष्ठा का। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो आप जानते हैं?

'मैंने उनकी लड़की को भी देखा है। सरोज उसके पांव की धूल भी नहीं है।'

'मगर इस लौंडे की अक्ल पर पत्थर पड़ गया है।'

'तो मारिए गोली, आपको क्या करना है। वही पछताएगा।'

'ओह! यही तो नहीं देखा जाता मेहताजी? मिलती हुई प्रतिष्ठा नहीं छोड़ी जाती। मैं इस प्रतिष्ठा पर अपनी आधी रियासत कुर्बान करने को तैयार हूं। आप मालती देवी को समझा दें, तो काम बन जाय। इधर से इंकार हो जाय, तो रुद्रपाल सिर पीटकर रह जायगा और यह नशा दस-पांच दिन में आप उतर जायगा। यह प्रेम-व्रेम कुछ नहीं, केवल सनक है।'

'लेकिन मालती बिना कुछ रिश्वत लिए मानेगी नहीं।'

'आप जो कुछ कहिए, मैं उसे दूंगा। वह चाहे तो मैं उसे यहां के डफरिन हास्पिटल का इंचार्ज बना दूं।'

'मान लीजिए, वह आपको चाहे तो आप राजी होंगे। जब से आपको मिनिस्टरी मिली है, आपके विषय में उसकी राय जरूर बदल गई होगी।'

रायसाहब ने मेहता के चेहरे की तरफ देखा। उस पर मुस्कराहट की रेखा नजर आई। समझ गए। व्यथित स्वर में बोले-आपको भी मुझसे मजाक करने का यही अवसर मिला। मैं आपके पास इसलिए आया था कि मुझे यकीन था कि आप मेरी हालत पर विचार करेंगे, मुझे उचित राय देंगे। और आप मुझे बनाने लगे। जिसके दांत नहीं दुखे, वह दांतों का दर्द क्या जाने।

मेहता ने गम्भीर स्वर से कहा-क्षमा कीजिएगा, आप ऐसा प्रश्न ही लेकर आए हैं कि उस पर गम्भीर विचार करना मैं हास्यास्पद समझता हूं। आप अपनी शादी के जिम्मेदार हो सकते हैं। लड़के की शादी का दायित्व आप क्यों अपने ऊपर लेते हैं, खास कर जब आपका लड़का बालिग है और अपना नफा-नुकसान समझता है। कम-से-कम मैं तो शादी-जैसे महत्व के मुआमले में प्रतिष्ठा का कोई स्थान नहीं समझता। प्रतिष्ठा धन से होती तो राजा साहब उस नंगे बाबा के सामने घंटों गुलामों की तरह हाथ बांधे न खड़े रहते। मालूम नहीं कहां तक सही है, पर राजा साहब अपने इलाके के दारोगा तक को सलाम करते हैं, इसे आप प्रतिष्ठा कहते हैं? लखनऊ में आप किसी दूकानदार, किसी अहलकार, किसी राहगीर से पूछिए, उनका नाम सुनकर गालियां ही देगा। इसी को आप प्रतिष्ठा कहते हैं? जाकर आराम से बैठिए। सरोज से अच्छी वधू आपको बड़ी मुश्किल से मिलेगी।

रायसाहब ने आपत्ति के भाव से कहा-बहन तो मालती ही की है।

मेहता ने गर्म होकर कहा-मालती की बहन होना क्या अपमान की बात है? मालती को आपने जाना नहीं, और न जानने की परवाह की। मैंने भी यही समझा था, लेकिन अब मालूम हुआ कि वह आग में पड़कर चमकने वाली सच्ची धातु है। वह उन वीरों में है जो अवसर पड़ने पर अपने जौहर दिखाते हैं, तलवार घुमाते नहीं चलते। आपको मालूम है खन्ना की आजकल क्या दशा है?

रायसाहब ने सहानुभूति के भाव से सिर हिलाकर कहा-सुन चुका हूं, और बार-बार इच्छा हुई कि उनसे मिलूं, लेकिन फुरसत न मिली। उस मिल में आग लगना उनके सर्वनाश का कारण हो गया।

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'जी हां। अब वह एक तरह से दोस्तों की दया पर अपना निवार्ह कर रहे हैं। उस पर गोविन्दी महीनों से बीमार है। उसने खन्ना पर अपने को बलिदान कर दिया, उस पशु पर जिसने हमेशा उसे जलाया, अब वह मर रही है। और मालती रात की रात उसके सिरहाने बैठी रह जाती है-वही मालती जो किसी राजा रईस से पांच सौ फीस पाकर भी रात-भर न बैठेगी। खन्ना के छोटे बच्चों को पालने का भार भी मालती पर है। यह मातृत्व उसमें कहां सोया हुआ था, मालूम नहीं। मुझे तो मालती का यह स्वरूप देखकर अपने भीतर श्रद्धा का अनुभव होने लगा, हालांकि आप जानते हैं, मैं घोर जड़वादी हूं। और भीतर के परिष्कार के साथ उसकी छवि में भी देवत्व की झलक आने लगी है। मानवता इतनी बहुरंगी और इतनी समर्थ है, इसका मुझे प्रत्यक्ष अनुभव हो रहा है। आप उनसे मिलना चाहें तो चलिए, इसी बहाने मैं भी चला चलूंगा।'

रायसाहब ने स्निग्ध भाव से कहा-जब आप ही मेरे दर्द को नहीं समझ सके, तो मालती देवी क्या समझेंगी, मुफ्त में शर्मिंदगी होगी, मगर आपको पास जाने के लिए किसी बहाने की जरूरत क्यों! मैं तो समझता था, आपने उनके ऊपर अपना जादू डाल दिया है।

मेहता ने हसरत भरी मुस्कराहट के साथ जवाब दिया-वह बात अब स्वप्न हो गई। अब तो कभी उनके दर्शन भी नहीं होते। उन्हें अब फुरसत भी नहीं रहती। दो-चार बार गया। मगर मुझे मालूम हुआ, मुझसे मिलकर वह कुछ खुश नहीं हुईं, तब से जाते झेंपता हूं। हां, खूब याद आया, आज महिला-व्यायामशाला का जलसा है, आप चलेंगे?

रायसाहब ने बेदिली के साथ कहा-जी नहीं, मुझे फुरसत नहीं है। मुझे तो यह चिंता सवार है कि राजा साहब को क्या जवाब दूंगा। मैं उन्हें वचन दे चुका हूं।

यह कहते हुए वह उठ खड़े हुए और मंद गति से द्वार की ओर चले। जिस गुत्थी को सुलझाने आए थे, वह और भी जटिल हो गई। अन्धकार और भी असूझ हो गया। मेहता ने कार तक आकर उन्हें बिदा किया। रायसाहब सीधे अपने बंगले पर आए और दैनिक पत्र उठाया था कि मिस्टर तंखा का कार्ड मिला। तंखा से उन्हें घृणा थी, और उनका मुंह भी न देखना चाहते थे, लेकिन इस वक्त मन की दुर्बल दशा में उन्हें किसी हमदर्द की तलाश थी, जो और कुछ न कर सके, पर उनके मनोभावों से सहानुभूति तो करे। तुरंत बुला लिया।

तंखा पांव दबाते हुए रोनी सूरत लिए कमरे में दाखिल हुए और जमीन पर झुककर सलाम करते हुए बोले-मैं तो हुजूर के दर्शन करने नैनीताल जा रहा था। सौभाग्य से यहीं दर्शन हो गये! हुजूर का मिजाज तो अच्छा है।

इसके बाद उन्होंने बड़ी लच्छेदार भाषा में, और अपने पिछले व्यवहार को बिल्कुल भूलकर, रायसाहब का यशोगान आरंभ किया-ऐसी होम-मेम्बरी कोई क्या करेगा, जिधर देखिए हुजूर ही के चर्चे हैं। यह पद हुजूर ही को शोभा देता है।

रायसाहब मन में सोच रहे थे, यह आदमी भी कितना बड़ा धूर्त है, अपनी गरज पड़ने पर गधे को दादा कहने वाला, पहले सिरे का बेवफा और निर्लज्ज, मगर उन्हें उन पर क्रोध न आया, दया आई। पूछा-आजकल आप क्या कर रहे हैं? कुछ नहीं हुजूर, बेकार बैठा हूं। इसी उम्मीद से आपकी खिदमत में हाजिर होने जा रहा था कि अपने पुराने खादिमों पर निगाह रहे। आजकल बड़ी मुसीबत में पड़ा हुआ हूं हुजूर। राजा सूर्यप्रतापसिंह को तो हुजूर जानते हैं, अपने सामने किसी को नहीं समझते। एक [ २९३ ]
दिन आपकी निन्दा करने लगे। मुझसे न सुना गया। मैंने कहा, बस कीजिए महाराज, रायसाहब मेरे स्वामी हैं और मैं उनकी निन्दा नहीं सुन सकता। बस इसी बात पर बिगड़ गए। मैंने भी सलाम किया और घर चला आया। मैंने साफ कह दिया, आप कितना ही ठाट-बाट दिखाएं, पर रायसाहब की जो इज्जत है, वह आपको नसीब नहीं हो सकती। इज्जत ठाट से नहीं होती, लियाकत से होती है। आप में जो लियाकत है वह तो दुनिया जानती है।

रायसाहब ने अभिनय किया-आपने तो सीधे घर में आग लगा दी।

तंखा ने अकड़कर कहा-मैं तो हुजूर साफ कहता हूं, किसी को अच्छा लगे या बुरा। जब हुजूर के कदमों को पकड़े हुए हूं, तो किसी से क्यों डरूं। हुजूर के तो नाम से जलते हैं। जब देखिए हुजूर की बदगोई। जब से आप मिनिस्टर हुए हैं, उनकी छाती पर सांप लोट रहा है। मेरी सारी-की-सारी मजदूरी साफ डकार गए। देना तो जानते नहीं हुजूर। असामियों पर इतना अत्याचार करते हैं कि कुछ न पूछिए। किसी की आबरू सलामत नहीं। दिन दहाड़े औरतों को ..

कार की आवाज आई और राजा सूर्यप्रतापसिंह उतरे। रायसाहब ने कमरे से निकलकर उनका स्वागत किया और इस सम्मान के बोझ से नत होकर बोले-मैं तो आपकी सेवा में आने वाला ही था।

यह पहला अवसर था कि राजा सूर्यप्रतापसिंह ने इस घर को अपने चरणों से पवित्र किया। यह सौभाग्य! मिस्टर तंखा भीगी बिल्ली बने बैठे हुए थे। राजा साहब यहां! क्या इधर इन दोनों महोदयों में दोस्ती हो गई है? उन्होंने राय साहब की ईर्ष्याग्नि को उत्तेजित करके अपना हाथ सेंकना चाहा था, मगर नहीं, राजा साहब यहां मिलने के लिए आ भले ही गए हों, मगर दिलों में जो जलन है वह तो कुम्हार के आंवे की तरह इस ऊपर की लेप-थोप से बुझने वाली नहीं।

राजा साहब ने सिगार जलाते हुए तंखा की ओर कठोर आंखों से देखकर कहा-तुमने तो सूरत ही नहीं दिखाई मिस्टर तंखा। मुझसे उस दावत के सारे रुपए वसूल कर लिए और होटल वालों को एक पाई न दी, वह मेरा सिर खा रहे हैं। मैं इसे विश्वास घात समझता हूं। मैं चाहूं तो अभी तुम्हें पुलीस में दे सकता हूं।

यह कहते हुए उन्होंने रायसाहब को संबोधित करके कहा-ऐसा बेईमान आदमी मैंने नहीं देखा रायसाहब। मैं सत्य कहता हूं, मैं कभी आपके मुकाबले में न खड़ा होता। मगर इसी शैतान ने मुझे बहकाया और मेरे एक लाख रुपए बरबाद कर दिए। बंगला खरीद लिया साहब, कार रख ली। एक वेश्या से आशनाई भी कर रखी है। पूरे रईस बन गए और अब दगाबाजी शुरू की है। रईसों की शान निभाने के लिए रियासत चाहिए। आपकी रियासत अपने दोस्तों की आंखों में धूल झोंकना है।

रायसाहब ने तंखा की ओर तिरस्कार की आंखों से देखा। और बोले-आप चुप क्यों हैं मिस्टर तंखा, कुछ जवाब दीजिए। राजा साहब ने तो आपका सारा मेहनताना दबा लिया। है इसका कोई जवाब आपके पास? अब कृपा करके यहां से चले जाइए और खबरदार फिर अपनी सूरत न दिखाइएगा। दो भले आदमियों में लड़ाई लगाकर अपना उल्लू सीधा करना बेपूंजी का रोजगार है, मगर इसका घाटा और नफा दोनों ही जान-जोखिम है समझ लीजिए।

तंखा ने ऐसा सिर गड़ाया कि फिर न उठाया। धीरे से चले गए। जैसे कोई चोर कुत्ता मालिक के अन्दर आ जाने पर दबकर निकल जाए।

जब वह चले गए, तो राजा साहब ने पूछा-मेरी बुराई करता होगा?

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'जी हां, मगर मैंने भी खूब बनाया।'

'शैतान है।'

'पूरा।'

'बाप-बेटे में लड़ाई करवा दे, मियां-बीबी में लड़ाई करवा दे। इस फन में उस्ताद है। ख़ैर, आज बचा को अच्छा सबक़ मिल गया।'

इसके बाद रुद्रपाल के विवाह की बातचीत शुरू हुई। राय साहब के प्राण सूखे जा रहे थे। मानो उन पर कोई निशाना बांधा जा रहा हो। कहां छिप जायं। कैसे कहें कि रुद्रपाल पर उनका कोई अधिकार नहीं रहा, मगर राजा साहब को परिस्थिति का ज्ञान हो चुका था। राय साहब को अपनी तरफ से कुछ न कहना पड़ा। जान बच गई।

उन्होंने पूछा-आपको इसकी क्योंकर खबर हुई?

'अभी-अभी रुद्रपाल ने लड़की के नाम एक पत्र भेजा है जो उसने मुझे दे दिया।'

'आजकल के लड़कों में और तो कोई खूबी नजर नहीं आती, बस स्वच्छन्दता की सनक सवार है।'

'सनक तो है ही, मगर इसकी दवा मेरे पास है। मैं उस छोकरी को ऐसा गायब कर दूं कि कहीं पता न लगेगा। दस-पांच दिन में यह सनक ठंडी हो जाएगी। समझाने से कोई नतीजा नहीं।'

रायसाहब कांप उठे। उनके मन में भी इस तरह की बात आई थी, लेकिन उन्होंने उसे आकार न लेने दिया था। संस्कार दोनों व्यक्तियों के एक-से थे। गुफावासी मनुष्य दोनों ही व्यक्तियों में जीवित था। राय साहब ने उसे ऊपर वस्त्रों से ढंक दिया था। राजा साहब में वह नग्न था। अपना बड़प्पन सिद्ध करने के उस अवसर को राय साहब छोड़ न सके।

जैसे लज्जित होकर बोले-लेकिन यह बीसवीं सदी है, बारहवीं नहीं। रुद्रपाल के ऊपर इसकी क्या प्रतिक्रिया होगी, मैं नहीं कह सकता, लेकिन मानवता की दृष्टि से...

राजा साहब ने बात काटकर कहा-आप मानवता लिए फिरते हैं और यह नहीं देखते कि संसार में आज मनुष्य की पशुता ही उसकी मानवता पर विजय पा रही है। नहीं, राष्ट्रों में लड़ाइयां क्यों होतीं? पंचायतों से मामले न तय हो जाते? जब तक मनुष्य रहेगा, उसकी पशुता भी रहेगी।

छोटी-मोटी बहस छिड़ गई और विवाह के रूप में आकर अंत में वितंडा बन गई और राजा साहब नाराज होकर चले गए। दूसरे दिन रायसाहब ने भी नैनीताल को प्रस्थान किया। और उसके एक दिन बाद रुद्रपाल ने सरोज के साथ इंग्लैंड की राह ली। अब उनमें पिता-पुत्र का नाता न था। प्रतिद्वन्द्वी हो गए थे। मिस्टर तंखा अब रुद्रपाल के सलाहकार और पैरोकार थे। उन्होंने रुद्रपाल की तरफ से रायसाहब पर हिसाब-फहमी का दावा किया। रायसाहब पर दस लाख की डिग्री हो गई। उन्हें डिग्री का इतना दुःख न हुआ जितना अपने अपमान का। अपमान से भी बढ़कर दुःख था जीवन की संचित अभिलाषाओं के धूल में मिल जाने का और सबसे बड़ा दुःख था इस बात का कि अपने बेटे ने ही दगा दी। आज्ञाकारी पुत्र के पिता बनने का गौरव बड़ी निर्दयता के साथ उनके हाथ से छीन लिया गया था।

मगर अभी शायद उनके दुःख का प्याला भरा न था। जो कुछ कसर थी, वह लड़की और दामाद के संबंध-विच्छेद ने पूरी कर दी। साधारण हिन्दू बालिकाओं की तरह मीनाक्षी भी बेजबान थी। बाप ने जिसके साथ ब्याह कर दिया, उसके साथ चली गई, लेकिन स्त्री-पुरुष
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में प्रेम न था। दिग्विजयसिंह ऐयाश भी थे, शराबी भी। मीनाक्षी भीतर ही भीतर कुढ़ती रहती थी। पुस्तकों और पत्रिकाओं से मन बहलाया करती थी। दिग्विजय की अवस्था तो तीस से अधिक न थी। पढ़ा-लिखा भी था, मगर बड़ा मगरूर, अपनी कुल-प्रतिष्ठा की डींग मारनेवाला, स्वभाव का निर्दयी और कृपण। गांव की नीच जाति की बहू-बेटियों पर डोरे डाला करता था। सोहबत भी नीचों की थी, जिनकी खुशामदों ने उसे और भी खुशामद पसंद बना दिया था। मीनाक्षी ऐसे व्यक्ति का सम्मान दिल से न कर सकती थी। फिर पत्रों में स्त्रियों के अधिकारों की चर्चा पढ़-पढ़कर उसकी आंखें खुलने लगी थीं। वह जनाना क्लब में आने-जाने लगी। वहां कितनी ही शिक्षित ऊंचे कुल की महिलाएं आती थीं। उनमें वोट और अधिकार और स्वाधीनता और नारी-जागृति की खूब चर्चा होती थी, जैसे पुरुषों के विरुद्ध कोई षड्यंत्र रचा जा रहा हो। अधिकतर वही देवियां थीं जिनकी अपने पुरुषों से न पटती थी, जो नई शिक्षा पाने के कारण पुरानी मयार्दाओं को तोड़ डालना चाहती थीं। कई युवतियां भी थीं, जो डिग्रियां ले चुकी थीं और विवाहित जीवन को आत्मसम्मान के लिए घातक समझकर नौकरियों की तलाश में थीं। उन्हीं में एक मिस सुलतान थीं, जो विलायत से बार-ऐट-ला होकर आई थीं और यहां परदानशीन महिलाओं को कानूनी सलाह देने का व्यवसाय करती थीं। उन्हीं की सलाह से मीनाक्षी ने पति पर गुजारे का दावा किया। वह अब उसके घर में न रहना चाहती थी। गुजारे की मीनाक्षी को जरूरत न थी। मैके में वह बड़े आराम से रह सकती थी, मगर वह दिग्विजयसिंह के मुख में कालिख लगाकर यहां से जाना चाहती थी। दिग्विजयसिंह ने उस पर उलटा बदचलनी का आक्षेप लगाया। रायसाहब ने इस कलह को शांत करने की भरसक बहुत चेष्टा की, पर मीनाक्षी अब पति की सूरत भी नहीं देखना चाहती थी। यद्यपि दिग्विजयसिंह का दावा खारिज हो गया और मीनाक्षी ने उस पर गुजारे की डिग्री पाई, मगर यह अपमान उसके जिगर में चुभता रहा। वह अलग एक कोठी में रहती थी, और समिष्टवादी आंदोलन में प्रमुख भाग लेती थी, पर वह जलन शांत न होती थी।

एक दिन वह क्रोध में आकर हंटर लिये दिग्विजयसिंह के बंगले पर पहुंची। शोहदे जमा थे और वेश्या का नाच हो रहा था। उसने रणचंडी की भांति पिशाचों की इस चंडाल चौकड़ी में पहुंचकर तहलका मचा दिया। हंटर खा-खाकर लोग इधर-उधर भागने लगे। उसके तेज के सामने वह नीच शोहदे क्या टिकते, जब दिग्विजयसिंह अकेले रह गए, तो उसने उन पर सड़ासड़ हंटर जमाने शुरू किए और इतना मारा कि कुंवर साहब बेदम हो गए। वेश्या अभी तक कोने में दुबकी खड़ी थी। अब उसका नम्बर आया। मीनाक्षी हंटर तानकर जमाना ही चाहती थी कि वेश्या उसके पैरों पर गिर पड़ी और रोकर बोली-दुलहिनजी, आज आप मेरी जान बख्श दें। मैं फिर कभी यहां न आऊंगी। मैं निरपराध हूं।

मीनाक्षी ने उसकी ओर घृणा से देखकर कहा-हां, तू निरपराध है। जानती है न, मैं कौन हूं! चली जा। अब कभी यहां न आना। हम स्त्रियां भोग-विलास की चीजें हैं ही, तेरा कोई दोष नहीं!

वेश्या ने उसके चरणों पर सिर रखकर आवेश में कहा-परमात्मा आपको सुखी रखे। जैसा आपका नाम सुनती थी, वैसा ही पाया।

'सुखी रहने से तुम्हारा क्या आशय है?'

'आप जो समझें महारानीजी!'

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'नहीं, तुम बताओ।'

वेश्या के प्राण नखों में समा गए। कहां से कहां आशीर्वाद देने चली। जान बच गई थी, चुपके से अपनी राह लेनी चाहिए थी, दुआ देने की सनक सवार हुई। अब कैसे जान बचे?

डरती-डरती बोली-हुजूर का एकबाल बढ़े, नाम बढ़े।

मीनाक्षी मुस्करायी-हां, ठीक है।

वह आकर अपनी कार में बैठी, हाकिम-जिला के बंगले पर पहुंचकर इस कांड की सूचना दी और अपनी कोठी में चली आई। तब से स्त्री-पुरुष दोनों एक दूसरे के खून के प्यासे थे। दिग्विजयसिंह रिवालवर लिए उसकी ताक में फिरा करते और वह भी अपनी रक्षा के लिए दो पहलवान ठाकुरों को अपने साथ लिए रहती थी। और रायसाहब ने सुख का जो स्वर्ग बनाया था, उसे अपनी जिंदगी में ही ध्वंस होते देख रहे थे। और अब संसार से निराश होकर उनकी आत्मा अंतमुर्खी होती जाती थी। अब तक अभिलाषाओं से जीवन के लिए प्रेरणा मिलती रहती थी। उधर का रास्ता बन्द हो जाने पर उनका मन आप ही आप भक्ति की ओर झुका, जो अभिलाषाओं से कहीं बढ़कर सत्य था। जिस नई जायदाद के आसरे कर्ज लिए थे, वह जायदाद कर्ज की पुरौती किए बिना ही हाथ से निकल गई थी और वह बोझ सिर पर लदा हुआ था। मिनिस्टरी से जरूर अच्छी रकम मिलती थी, मगर वह सारी की सारी उस मर्यादा का पालन करने में ही उड़ जाती थी और रायसाहब को अपना राजसी ठाट निभाने के लिए वही असामियों पर इजाफा और बेदखली और नजराना करना और लेना पड़ता था, जिससे उन्हें घृणा थी। वह प्रजा को कष्ट न देना चाहते थे। उनकी दशा पर उन्हें दया आती थी, लेकिन अपनी जरूरतों से हैरान थे। मुश्किल यह थी कि उपासना और भक्ति में भी उन्हें शान्ति न मिलती थी। वह मोह को छोड़ना चाहते थे, पर मोह उन्हें न छोड़ता था और इस खींच-तान में उन्हें अपमान, ग्लानि और अशान्ति से छुटकारा न मिलता था। और जब आत्मा में शान्ति नहीं, तो देह कैसे स्वस्थ रहती? निरोग रहने का सब उपाय करने पर भी एक न एक बाधा गले पड़ी रहती थी। रसोई में सभी तरह के पकवान बनते थे, पर उनके लिए वही मूंग की दाल और फुलके थे। अपने और भाइयों को देखते थे जो उनसे भी ज्यादा मकरूज, अपमानित और शोकग्रस्त थे, जिनके भोग-विलास में, ठाट-बाट में किसी तरह की कमी न थी, मगर इस तरह की बेहयाई उनके बस में न थी। उनके मन के ऊंचे संस्कारों का ध्वंस न हुआ था। पर-पीड़ा, मक्कारी, निर्लज्जता और अत्याचार को वह ताल्लुकेदारी की शोभा और रोब-दाब का नाम देकर अपनी आत्मा को सन्तुष्ट न कर सकते थे, और यही उनकी सबसे बड़ी हार थी।

बत्तीस


मिर्जा खुर्शेद ने अस्पताल से निकलकर एक नया काम शुरू कर दिया था। निश्चिंत बैठना उनके स्वभाव में न था। यह काम क्या था? नगर की वेश्याओं की एक नाटक-मंडली बनाना। अपने अच्छे दिनों में उन्होंने खूब ऐयाशी की थी और इन दिनों अस्पताल के एकांत में घावों की पीड़ाएं सहते-सहते उनकी आत्मा निष्ठावान् हो गई थी। उस जीवन की याद करके उन्हें गहरी