प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-७

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ७३ ]

सात


यह अभिनय जब समाप्त हुआ, तो उधर रंगशाला में धनुष-यज्ञ समाप्त हो चुका था और सामाजिक प्रहसन की तैयारी हो रही थी, मगर इन सज्जनों को उससे विशेष दिलचस्पी न थी। केवल मिस्टर मेहता देखने गए और आदि से अंत तक जमे रहे। उन्हें बड़ा मजा आ रहा था। बीच-बीच में तालियां बजाते थे और 'फिर कहो, फिर कहो' का आग्रह करके अभिनेताओं को प्रोत्साहन भी देते जाते थे। रायसाहब ने इस प्रहसन में एक मुकदमेबाज देहाती जमींदार का खाका उड़ाया था। कहने को तो प्रहसन था, मगर करुणा से भरा हुआ। नायक का बात-बात में कानून की धाराओं का उल्लेख करना, पत्नी पर केवल इसलिए मुकदमा दायर कर देना कि उसने भोजन तैयार करने में जरा-सी देर कर दी, फिर वकीलों के नखरे और देहाती गवाहों की चालाकियां और झांसे, पहले गवाही के लिए चटपट तैयार हो जाना, मगर इजलास पर [ ७४ ] तलबी के समय खूब मनावन कराना और नाना प्रकार की फर्माइशें करके उल्लू बनाना, ये सभी दृश्य देखकर लोग हंसी के मारे लोट जाते थे। सबसे सुंदर वह दृश्य था, जिसमें वकील गवाहों को उनके बयान रटा रहा था। गवाहों का बार-बार भूलें करना, वकील का बिगड़ना, फिर गायक का देहाती बोली में गवाहों का समझाना और अंत में इजलास पर गवाहों का बदल जाना, ऐसा सजीव और सत्य था कि मिस्टर मेहता उछल पड़े और तमाशा समाप्त होने पर नायक को गले लगा लिया और सभी नटों को एक-एक मेडल देने की घोषणा की। रायसाहब के प्रति उनके मन में श्रद्धा के भाव जाग उठे। रायसाहब स्टेज के पीछे ड्रामे का संचालन कर रहे थे। मेहता दौड़कर उनके गले लिपट गए और मुग्ध होकर बोले-आपकी दृष्टि इतनी पैनी है, इसका मुझे अनुमान न था।

दूसरे दिन जलपान के बाद शिकार का प्रोग्राम था। वहीं किसी नदी के तट पर बाग में भोजन बने, खूब जल-क्रीडा की जाय और शाम को लोग घर आवें। देहाती जीवन का आनंद उठाया जाय। जिन मेहमानों को विशेष काम था, वह तो बिदा हो गए, केवल वे ही लोग बच रहे, जिनकी रायसाहब से घनिष्ठता थी। मिसेज खन्ना के सिर में दर्द था, न जा सकीं, और संपादकजी इस मंडली से जले हुए थे और इनके विरुद्ध एक लेखमाला निकालकर इनकी खबर लेने के विचार में मग्न थे। सब-के-सब छटे हुए गुंडे हैं। हराम के पैसे उड़ाते हैं और मूंछों पर ताव देते हैं। दुनिया में क्या हो रहा है, इन्हें क्या खबर। इनके पड़ोस में कौन मर रहा है, इन्हें क्या परवा। इन्हें तो अपने भोग-विलास से काम है। यह मेहता, जो फिलासफर बना फिरता है, उसे यही धुन है कि जीवन को संपूर्ण बनाओ। महीने में एक हजार मार लाते हो, तुम्हें अख्तियार है, जीवन को संपूर्ण बनाओ या परिपूर्ण बनाओ। जिसको यह फिक्र दबाए डालती है कि लड़कों का ब्याह कैसे हो, या बीमार स्त्री के लिए वैद्य कैसे आएं या अबकी घर का किराया किसके घर से आएगा, वह अपना जीवन कैसे संपूर्ण बनाए। छूटे सांड़ बने दूसरों के खेत में मुंह मारते फिरते हो और समझते हो, संसार में सब सुखी हैं। तुम्हारी आंखें तब खुलेंगी, जब क्रांति होगी और तुमसे कहा जायगा-बचा, खेत में चलकर हल जोतो। तब देखें, तुम्हारा जीवन कैसे संपूर्ण होता है। और वह जो है मालती, जो बहत्तर घाटों का पानी पीकर भी मिस बनी फिरती है। शादी नहीं करेगी, इससे जीवन बंधन पड़ जाता है, और बंधन में जीवन का पूरा विकास नहीं होता। बस, जीवन का पूरा विकास इसी में है कि दुनिया को लूटे जाओ और निर्द्वंद्व विलास किए जाओ सारे बंधन तोड़ दो, धर्म और समाज को गोली मारो, जीवन के कर्त्तव्यों को पास न फटकने दो, बस तुम्हारा जीवन संपूर्ण हो गया। इससे ज्यादा आसान और क्या होगा। मां-बाप से नहीं पटती, उन्हें धता बताओ, शादी मत करो, यह बंधन है, बच्चे होंगे, यह मोहपाश है, मगर टैक्स क्यों देते हो? कानून भी तो बंधन है, उसे क्यों नहीं तोड़ते? उससे क्यों कन्नी काटते हो? जानते हो न कि कानून की जरा भी अवज्ञा की और बेड़ियां पड़ जायंगी। बस, वही बंधन तोड़े जिसमें अपनी भोग-लिप्सा में बाधा नहीं पड़ती। रस्सी को सांप बनाकर पीटो और तीसमार खां बनो। जीते सांप के पास जाओ ही क्यों, वह फुंकार भी मारेगा तो लहरें आने लगेंगी। उसे आते देखो, तो दुम दबाकर भागो। यह तुम्हारा संपूर्ण जीवन है।

आठ बजे शिकार-पार्टी चली। खन्ना ने कभी शिकार न खेला था, बंदूक की आवाज से कांपते थे, लेकिन मिस मालती जा रही थीं, वह कैसे रुक सकते थे। मिस्टर तंखा को अभी तक एलेक्शन के विषय में बातचीत करने का अवसर न मिला था। शायद वहां वह अवसर [ ७५ ] मिल जाय। रायसाहब अपने इलाके में बहुत दिनों से नहीं गए थे। वहां का रंग-ढंग देखना चाहते थे। कभी-कभी इलाके में आने-जाने से असामियों से एक संबंध भी तो हो जाता है और रोब भी रहता। कारकुन और प्यादे भी सचेत रहते हैं। मिर्जा खुर्शेद को जीवन के नए अनुभव प्राप्त करने का शौक था, विशेषकर ऐसे, जिनमें कुछ साहस दिखाना पड़े। मिस मालती अकेले कैसे रहतीं। उन्हें तो रसिकों का जमघट चाहिए। केवल मिस्टर मेहता शिकार खेलने के सच्चे उत्साही से जा रहे थे। रायसाहब की इच्छा तो थी कि भोजन की सामग्री, रसोइया, कहार, खिदमतगार, सब साथ चलें, लेकिन मिस्टर मेहता ने इसका विरोध किया।

खन्ना ने कहा-आखिर वहां भोजन करेंगे या भूखों मरेंगे?

मेहता ने जवाब दिया- भोजन क्यों न करेंगे, लेकिन आज हम लोग खुद अपना सारा काम करेंगे। देखना तो चाहिए कि नौकरों के बगैर हम जिंदा रह सकते हैं या नहीं। मिस मालती पकायंगी और हम लोग खायंगे। देहातों में हांड़ियां और पत्तल मिल ही जाते हैं, और ईंधन की कोई कमी नहीं। शिकार हम करेंगे ही।

मालती ने गिला किया-क्षमा कीजिए। आपने रात मेरी कलाई इतने जोर से पकड़ी कि अभी तक दर्द हो रहा है।

'काम तो हम लोग करेंगे, आप केवल बताती जाइएगा।'

मिर्जा खुर्शेद बोले-अजी आप लोग तमाशा देखते रहिएगा, मैं सारा इंतजाम कर दूंगा। बात ही कौन-सी है। जंगल में हांड़ी और बर्तन ढूंढ़ना हिमाकत है। हिरन का शिकार कीजिए, भूनिए, खाइए और वहीं दरख्त के साए में खर्राटे लीजिए।

यही प्रस्ताव स्वीकृत हुआ। दो मोटरें चलीं। एक मिस मालती ड्राइव कर रही थीं,दूसरी खुद रायसाहब। कोई बीस-पच्चीस मील पर पहाड़ी प्रांत शुरू हो गया।दोनों तरफ ऊंची पर्वत माला दौड़ी चली आ रही थी। सड़क भी पेंचदार होती जाती थी। कुछ दूर की चढ़ाई के बाद एकाएक ढाल आ गया और मोटर वेग से नीचे की ओर चली। दूर से नदी का पाट नजर आया, किसी रोगी की भांति दुर्बल, निस्पंद। कगार पर एक घने वट वृक्ष की छांह में कारें रोक दी गई और लोग उतरे। यह सलाह हुई कि दो-दो की टोली बने और शिकार खेलकर बारह बजे तक यहां आ जाय। मिस मालती मेहता के साथ चलने को तैयार हो गई। खन्ना मन में ऐंठकर रह गए। जिस विचार से आए थे, उसमें जैसे पंचर हो गया। अगर जानते, मालती दगा देगी, तो घर लौट जाते, लेकिन रायसाहब का साथ उतना रोचक न होते हुए भी बुरा न था। उनसे बहुत-सी मुआमले की बातें करती थीं। खुर्शेद और तंखा बच रहे। उनकी टोली बनी-बनाई थी। तीनों टोलियां एक-एक तरफ चल दीं।

कुछ दूर तक पथरीली पगडंडी पर मेहता के साथ चलने के बाद मालती ने कहा-तुम तो चले ही जाते हो। जरा दम ले लेने दो।

मेहता मुस्कराए-अभी तो हम एक मील भी नहीं आए। अभी से थक गईं?

'थकी नहीं, लेकिन क्यों न जरा दम ले लो।'

'जब तक कोई शिकार हाथ न आ जाय, हमें आराम करने का अधिकार नहीं।'

'मैं शिकार खेलने न आई थी।'

मेहता ने अनजान बनकर कहा-अच्छा, यह मैं न जानता था फिर क्या करने आई थीं?

'अब तुमसे क्या बताऊं।' [ ७६ ]हिरनों का एक झुंड चरता हुआ नजर आया। दोनों एक चट्टान की आड़ में छिप गए और निशाना बांधकर गोली चलाई। निशाना खाली गया। झुंड भाग निकला। मालती ने पूछा-अब?

'कुछ नहीं, चलो फिर कोई शिकार मिलेगा।'

दोनों कुछ देर तक चुपचाप चलते रहे। फिर मालती ने जरा रुककर कहा—गर्मी के मारे बुरा हाल हो रहा है। आओ, इस वृक्ष के नीचे बैठ जायं।

'अभी नहीं। तुम बैठना चाहती हो, तो बैठो। मैं तो नहीं बैठता।'

'बड़े निर्दयी हो तुम। सच कहती हूं।'

'जब तक कोई शिकार न मिल जाय, मैं बैठ नहीं सकता।'

'तब तो तुम मुझे मार ही डालोगे। अच्छा बताओ, रात तुमने मुझे इतना क्यों सताया? मुझे तुम्हारे ऊपर बड़ा क्रोध आ रहा था। याद है, तुमने मुझे क्या कहा था? तुम हमारे साथ चलेगा दिलदार? मैं न जानती थी , तुम इतने शरीर हो। अच्छा, सच कहना, तुम उस वक्त मुझे अपने साथ ले जाते?'

मेहता ने कोई जवाब न दिया, मानो सुना ही नहीं।

दोनों कुछ दूर चलते रहे। एक तो जेठ की धूप, दूसरे पथरीला रास्ता। मालती थककर बैठ गई।

मेहता खड़े-खड़े बोले-अच्छी बात है, तुम आराम कर लो। मैं यहीं आ जाऊंगा।

'मुझे अकेले छोड़कर चले जाओगे'

'मैं जानता हूं, तुम अपनी रक्षा कर सकती हो?'

'कैसे जानते हो?'

'नए युग की देवियों की यही सिफत है। वह मर्द का आश्रय नहीं चाहतीं, उससे कंधा मिलाकर चलना चाहती हैं।'

मालती ने झेंपते हुए कहा-तुम कोरे फिलासफर हो मेहता, सच।

सामने वृक्ष पर एक मोर बैठा हुआ था। मेहता ने निशाना साधा और बंदूक चलाई। मोर उड़ गया।

मालती प्रसन्न होकर बोली-बहुत अच्छा हुआ। मेरा शाप पड़ा।

मेहता ने बंदूक पर रखकर कहा- तुमने मुझे नहीं,अपने आपको शाप दिया। शिकार मिल जाता, तो मैं दस मिनट की मुहलत देता। अब तो तुमको फौरन चलना पड़ेगा।

मालती उठकर मेहता का हाथ पकड़ती हुई बोली-फिलासफरों के शायद हृदय नहीं होता। तुमने अच्छा किया, विवाह नहीं किया, उस गरीब को मार ही डालते। मगर मैं यों न छोड़ूंगी। तुम मुझे छोड़कर नहीं जा सकते।

मेहता ने एक झटके से हाथ छुड़ा लिया और आगे बढ़े।

मालती सजल नेत्र होकर बोली—मैं कहती हूं, मत जाओ। नहीं मैं इसी चट्टान पर सिर पटक दूंगी।

मेहता ने तेजी से कदम बढ़ाए। मालती उन्हें देखती रही। जब वह बीस कदम निकल गए, तो झुंझलाकर उठी और उनके पीछे दौड़ी। अकेले विश्राम करने में कोई आनंद न था।

समीप आकर बोली मैं तुम्हें इतना पशु न जानती थी।

'मैं जो हिरन मारूंगा, उसकी खाल तुम्हें भेंट करूंगा।' [ ७७ ]'खाल जाय भाड़ में। मैं अब तुमसे बात न करूंगी।'

'कहीं हम लोगों के हाथ कुछ न लगा और दूसरों ने अच्छे शिकार मारे तो मुझे बड़ी झेंप होगी।'

एक चौड़ा नाला मुंह फैलाए बीच में खड़ा था। बीच की चट्टानें उसके दांतों-सी लगती थीं। धार में इतना वेग था कि लहरें उछली पड़ती थीं। सूर्य मध्याह्न पर आ पहुंचा था और उसकी प्यासी किरणें जल में क्रीड़ा कर रही थीं।

मालती ने प्रसन्न होकर कहा-अब तो लौटना पड़ा।

'क्यों? उस पार चलेंगे। यहीं तो शिकार मिलेंगे।'

'धारा में कितना वेगन है। मैं तो बह जाऊंगी।'

'अच्छी बात है। तुम यहीं बैठो, मैं जाता हूं।'

'हां, आप जाइए। मुझे अपनी जान से बैर नहीं है।'

मेहता ने पानी में कदम रखा और पांव साधते हुए चले। ज्यों-ज्यों आगे जाते थे, पानी गहरा होता जाता था। यहां तक कि छाती तक आ गया।

मालती अधीर हो उठी। शंका से मन चंचल हो उठा। ऐसी विकलता तो उसे कभी न होती थी। ऊंचे स्वर में बोली-पानी गहरा है। ठहर जाओ, मैं भी आती हूं।

'नहीं-नहीं, तुम फिसल जाओगी। धार तेज है।'

'कोई हरज नहीं, मैं आ रही हूं। आगे न बढ़ना, खबरदार।'

मालती साड़ी ऊपर चढ़ाकर नाले में पैठी। मगर दस हाथ आते-आते पानी उसकी कमर तक आ गया ।

मेहता घबड़ाए। दोनों हाथ से उसे लौट जाने को कहते हुए बोले-तुम यहां मत आओ मालती। यहां तुम्हारी गर्दन तक पानी है।

मालती ने एक कदम और आगे बढ़कर कहा—होने दो। तुम्हारी यही इच्छा है कि मैं मर जाऊं तो तुम्हारे पास ही मरूंगी।

मालती पेट तक पानी में थी। धार इतनी तेज थी कि मालूम होता था, कदम उखड़ा। मेहता लौट पड़े और मालती को एक हाथ से पकड़ लिया।

मालती ने नशीली आखों में रोष भरकर कहा-मैंने तुम्हारे-जैसा बेदर्द आदमी कभी न देखा था। बिल्कुल पत्थर हो। खैर, आज सता लो, जितना सताते बने, मैं भी कभी समझूंगी।

मालती के पांव उखड़ते हुए मालूम हुए। वह बंदूक संभालती हुई उनसे चिमट गई।

मेहता ने आश्वासन देते हुए कहा-तुम यहां खड़ी नहीं रह सकतीं। मैं तुम्हें अपने कंधे पर बिठाए लेता हूं।

मालती ने भृकुटी टेढ़ी करके कहा-तो उस पार जाना क्या इतना जरूरी है?

मेहता ने कुछ उत्तर न दिया। बंदूक कनपटी से कंधे पर दबा ली और मालती को दोनों हाथों से उठाकर कंधे पर बैठा लिया।

मालती अपनी पुलक को छिपाती हुई बोली-अगर कोई देख ले?

'भद्दा तो लगता है।'

दो पग के बाद उसने करुण स्वर में कहा-अच्छा बताओ, मैं यहीं पानी में डूब जाऊं, [ ७८ ] तो तुम्हें रंज हो या न हो? मैं तो समझती हूं, तुम्हें बिल्कुल रंज न होगा।

मेहता ने आहत स्वर से कहा-तुम समझती हो, मैं आदमी नहीं हूं?

‘मैं तो यही समझती हूं, क्यों छिपाऊं।'

'सच कहती हो मालती?'

'तुम क्या समझते हो?'

'मैं। कभी बतलाऊंगा।'

पानी मेहता की गर्दन तक आ गया। कहीं अगला कदम उठाते ही सिर तक न आ जाय। मालती का हृदय धक्-धक करने लगा। बोली-मेहता, ईश्वर के लिए अब आगे मत जाओ, नहीं, मैं पानी में कूद पड़ूंगी।

उस संकट में पालती को ईश्वर याद आया, जिसका वह मजाक उड़ाया करती थी। जानती थी, ईश्वर कहीं बैठा नहीं है, जो आकर उन्हें उबार लेगा, लेकिन मन को जिस अवलब और शक्ति की जरूरत थी, वह और कहां मिल सकती थी?

पानी कम होने लगा था। मालती ने प्रसन्न होकर कहा-अब तुम मुझे उतार दो।

'नहीं-नहीं, चुपचाप बैठी रहो। कहीं आगे कोई गढ़ा मिल जाय।'

'तुम समझते होगे, यह कितनी स्वार्थिन है।'

'मुझे इसकी मजदूरी दे देना।'

मालती के मन में गुदगुदी हुई।

'क्या मजदूरी लोगे?'

'यही कि जब तुम्हें जीवन में ऐसा ही कोई अवसर आए, तो मुझे बुला लेना।'

किनारे आ गए। मालती ने रेत पर अपनी साड़ी का पानी निचोडा, जूते का पानी निकाला, मुह-हाथ धोया, पर ये शब्द अपने रहस्यमय आशय के साथ उसके सामने नाचते रहे?

उसने इस अनुभव का आनद उठाते हुए कहा-यह दिन याद रहेगा।

मेहता ने पूछा- तुम बहुत डर रही थीं?

'पहले तो डरी, लेकिन फिर मुझे विश्वास हो गया कि तुम हम दोनो की रक्षा कर सकते हो।'

मेहता ने गर्व से मालती को देखा-उनके मुख पर परिश्रम की लाली के साथ तेज था।

'मुझे यह सुनकर कितना आनंद आ रहा है, तुम यह समझ सकोगी मालती?'

'तुमने समझाया कब? उलटे और जंगलों में घसीटते फिरते हो, और अभी फिर लौटती बार यही नाला पार करना पड़ेगा। तुमने कैसी आफत में जान डाल दी। मुझे तुम्हारे साथ रहना पड़े, तो एक दिन न पटे।'

मेहता मुस्कराए। इन शब्दों का संकेत खूब समझ रहे थे।

'तुम मुझे इतना दुष्ट समझती हो और जो मैं कहूं कि मैं तुमसे प्रेम करता हूं, तो तुम मुझसे विवाह करोगी?'

'ऐसे काठ-कठोर से कौन विवाह करेगा। रात-दिन जलाकर मार डालोगे।'

और मधुर नेत्रों से देखा, मानो कह रही हो इसका आशय तुम खूब समझते हो। इतने बुद्धू नहीं हो। [ ७९ ]मेहता ने जैसे सचेत होकर कहा-तुम सच कहती हो मालती। मैं किसी रमणी को प्रसन्न नहीं रख सकता। मुझसे कोई स्त्री प्रेम का स्वांग नहीं कर सकती। उसके अंतस्तल तक पहुंच जाऊंगा। फिर मुझे उससे अरुचि हो जायगी।

मालती कांप उठी। इन शब्दों में कितना सत्य था।

उसने पूछा-अच्छा बताओ, तुम कैसे प्रेम से संतुष्ट होगे?

'बस यही कि जो मन में हो, वही मुख पर हो । मेरे लिए रंग-रूप और हाव-भाव और नाज-अंदाज का मूल्य उतना ही है, जितना होना चाहिए। मैं वह भोजन चाहता हूं, जिससे आत्मा की तृप्ति हो। उत्तेजक और शोषक पदार्थों की मुझे जरूरत नहीं।'

मालती ने होंठ सिकोड़कर ऊपर को सांस खींचते हुए कहा-तुमसे कोई पेश न पाएगा। एक ही घाघ हो। अच्छा बताओ, मेरे विषय में तुम्हारा क्या खयाल है?

मेहता ने नटखटपन से मुस्कराकर कहा-तुम सब कुछ कर सकती हो, बुद्धिमती हो, चतुर हो, प्रतिभावान हो, दयालु हो, चंचल हो, स्वाभिमानी हो, त्याग कर सकती हो, लेकिन प्रेम नहीं कर सकतीं।

मालती ने पैनी दृष्टि से ताककर कहा-झूठे हो तुम, बिल्कुल झूठे। मुझे तुम्हारा यह दावा निस्सार मालूम होता है कि तुम नारी-हृदय तक पहुंच जाते हो।

दोनों नाले के किनारे-किनारे चले जा रहे थे। बारह बज चुके थे, पर अब मालती को न विश्राम की इच्छा थी, न लौटने की। आज के संभाषण में उसे एक ऐसा आनंद आ रहा था, जो उसके लिए बिल्कुल नया था। उसने कितने ही विद्वानों और नेताओं को एक मुस्कान में, एक चितवन में, एक रसीले वाक्य में उल्लू बनाकर छोड़ दिया था। ऐसी बालू की दीवार पर वह जीवन का आधार नहीं रख सकती थी। आज उसे वह कठोर, ठोस, पत्थर-सी भूमि मिल गई थी, जो फावड़ों से चिंगारियां निकाल रही थी और उसकी कठोरता उसे उत्तरोत्तर मोह लेती थी।

धायं की आवाज हुई। एक लालसर नाले पर उड़ा जा रहा था। मेहता ने निशाना मारा। चिड़िया चोट खाकर भी कुछ दूर उड़ी, फिर बीच धार में गिर पड़ी और लहरों के साथ बहने लगी।

'अब?'

'अभी जाकर लाता हूं। जाती कहां है?'

यह कहने के साथ वह रेत में दौड़े और बंदूक किनारे पर रख गड़ाप से पानी में कूद पड़े और बहाव की ओर तैरने लगे, मगर आध मील तक पूरा जोर लगाने पर भी चिड़िया न पा सके। चिड़िया मरकर भी जैसे उड़ी जा रही थी?

सहसा उन्होंने देखा, एक युवती किनारे की एक झोंपड़ी से निकली, चिड़िया को बहते देखकर साड़ी को जांघों तक चढ़ाया और पानी में घुस पड़ी। एक क्षण में उसने चिड़िया पकड़ ली और मेहता को दिखाती हुई बोली-पानी से निकल जाओ बाबूजी, तुम्हारी चिड़िया यह है।

मेहता युवती की चपलता और साहस देखकर मुग्ध हो गए। तुरंत किनारे की ओर हाथ चलाए और दो मिनट में युवती के पास जा खड़े हुए।

युवती का रंग था तो काला और वह भी गहरा, कपड़े बहुत ही मैले और फूहड़, आभूषण के नाम पर केवल हाथों में दो-दो मोटी चूड़ियां, सिर के बाल उलझे अलग-अलग। मुख-मंडल [ ८० ] का कोई भाग ऐसा नहीं, जिसे सुंदर या सुघड़ कहा जा सके। लेकिन उस स्वच्छ, निर्मल जलवायु ने उसके कालेपन में ऐसा लावण्य भर दिया था और प्रकृति की गोद में पलकर उसके अंग इतने सुडौल, सुगठित और स्वच्छंद हो गए थे कि यौवन का चित्र खीचने के लिए उससे सुंदर कोई रूप न मिलता। उसका सबल स्वास्थ्य जैसे मेहता के मन में बल और तेज भर रहा था।

मेहता नेउ से धन्यवाद देते हुए कहा-तुम बड़े मौके से पहुंच गईं, नहीं मुझे न जाने कितनी दूर तैरना पड़ता।

युवती ने प्रसन्नता से कहा-मैंने तुम्हें तैरते आते देखा, तो दौड़ी। सिकार खेलने आए होंगे?'

'हां, आए तो शिकार ही खेलने, मगर दोपहर हो गया और यही चिड़िया मिली है।'

'तेंदुआ मारना चाहो, तो मैं उसका ठौर दिखा दूं। रात को यहां रोज पानी पीने आता है। कभी-कभी दोपहर में भी आ जाता है।'

फिर जरा सकुचाकर सिर झुकाए बोली-उसकी खाल हमें देनी पड़ेगी। चलो, मेरे द्वार पर। वहां पीपल की छाया है। यहां धूप में कब तक खड़े रहोगे? कपड़े भी तो गीले हो गए हैं।

मेहता ने उसकी देह में चिपकी हुई गीली साड़ी की ओर देखकर कहा-तुम्हारे कपड़े भी तो गीले हैं।

उसने लापरवाही से कहा-ऊंह हमारा क्या, हम तो जंगल के हैं। दिन-दिन भर धूप और पानी में खड़े रहते हैं, तुम थोड़े ही रह सकते हो।

लड़की कितनी समझदार है और बिल्कुल गंवार।

'तुम खाल लेकर क्या करोगी?'

'हमारे दादा बाजार में बेचते हैं। यही तो हमारा काम है।'

'लेकिन दोपहरी यहां काटें, तुम खिलाओगी क्या?'

युवती ने लजाते हुए कहा-तुम्हारे खाने लायक हमारे घर में क्या है। मक्के की रोटिया खाओ, तो धरी हैं। चिड़िये का सालन पका दूंगी। तुम बताते जाना, जैसे बनाना हो। थोड़ा-सा। दूध भी है। हमारी गैया को एक बार तेंदुए ने घेरा था। उसे सींगों से भगा कर भाग आई, तब से तेंदुआ उससे डरता है।

'लेकिन मैं अकेला नहीं हूं। मेरे साथ एक औरत भी है।'

'तुम्हारी घरवाली होगी?'

'नहीं, घरवाली तो अभी नहीं है, जान-पहचान की है।'

'तो मैं दौड़कर उनको बुला लाती हूं। तुम चलकर छांह में बैठो।'

'नहीं-नहीं, मैं बुला लाता हूं।'

'तुम थक गए होगे। शहर के रहैया, जंगल में काहे आते होंगे। हम तो जंगली आदमी हैं। किनारे ही तो खड़ी होंगी।'

जब तक मेहता कुछ बोलें, वह हवा हो गई। मेहता ऊपर चढ़कर पीपल की छांह में बैठे, तो इस स्वच्छंद जीवन से उनके मन में अनुराग उत्पन्न हुआ। सामने की पर्वत-माला दर्शन-तत्त्व की भांति अगम्य और अनंत फैली हुई, मानो ज्ञान का विस्तार कर रही हो, मानों आत्मा उस ज्ञान को, उस प्रकाश को, उस अगम्यता को, उसके प्रत्यक्ष विराट रूप में देख रही हो। [ ८१ ] दूर के एक बहुत ऊंचे शिखर पर एक छोटा-सा मंदिर था, जो उस अगम्यता में बुद्धि की भांति ऊंचा, पर खोया हुआ-सा खड़ा था, मानो वहां तक पर मार कर पक्षी विश्राम लेना चाहता है और कहीं स्थान नहीं पाता।

मेहता इन्हीं विचारों में डूबे हुए थे कि युवती मिस मालती को साथ लिए आ पहुंची, एक वन-पुष्प की भांति धूप खिली हुई, दूसरी गमले के फूल की भांति धूप में मुरझाई और निर्जीव।

मालती ने बेदिली के साथ कहा-पीपल की छांह बहुत अच्छी लग रही है, क्यों और यहां भूख के मारे प्राण निकले जा रहे हैं।

युवती दो बड़े-बड़े मटके उठा लाई और बोली-तुम जब तक यहीं बैठो, मैं अभी दौड़कर पानी लाती हूं, फिर चूल्हा जला दूंगी, और मेरे हाथ का खाओ, तो मैं एक छन में बाटियां सेंक दूंगी, नहीं, अपने आप सेंक लेना। हां, गेहूं का आटा मेरे घर में नहीं है और यहां कहीं कोई दुकान भी नहीं है कि ला दें।

मालती को मेहता पर क्रोध आ रहा था। बोली-तुम यहां क्यों आकर पड़ रहे?

मेहता ने चिढ़ाते हुए कहा-एक दिन जरा जीवन का आनंद भी तो उठाओ। देखो, मक्के की रोटियों में कितना स्वाद है।

'मुझसे मक्के की रोटियां खाई ही न जायंगी, और किसी तरह निगल भी जाऊं तो हजम न होंगी। तुम्हारे साथ आकर मैं बहुत पछता रही हूं : रास्ते-भर दौड़ा के मार डाला और अब यहां लाकर पटक दिया।'

मेहता ने कपड़े उतार दिए थे और केवल एक नीला जांघिया पहने बैठे हुए थे। युवती को मटके ले जाते देखा, तो उसके हाथ से मटके छीन लिए और कुएं पर पानी भरने चले। दर्शन के गहरे अध्ययन में भी उन्होने अपने स्वास्थ्य की रक्षा की थी और दोनों मटके लेकर चलते हुए उनकी मांसल और चौड़ी छाती और मछलीदार जाँघें किसी यूनानी प्रतिमा के सुगठित अंगों की भांति उनके पुरुषार्थ का परिचय दे रही थीं। युवती उन्हें पानी खींचते हुए अनुराग-भरी आंखों से देख रही थी। वह अब उसकी दया के पात्र नहीं, श्रद्धा के पात्र हो गए थे।

कुआ बहुत गहरा था, कोई साठ हाथ, मटके भारी थे और मेहता कसरत का अभ्यास करते रहने पर भी एक मटका खीचते-खीचते शिथिल हो गए। युवती ने दौडकर उनके हाथ से रस्सी छीन ली और बोली-तुमसे न खिचेगा। तुम जाकर खाट पर बैठो , मैं खींचे लेती हूं।

मेहता अपने पुरुषत्व का यह अपमान न सह सके। रस्सी उसके हाथ से फिर ले ली और जोर मारकर एक क्षण में दूसरा मटका भी खीच लिया और दोनों हाथो में दोनों मटके लिए, आकर झोंपड़ी के द्वार पर खड़े हो गए। युवती ने चटपट आग जलाई, लालसर के पंख झुलस डाले। छुरे से उसकी बोटियां बनाईं और चूल्हे में आग जलाकर मांस चढ़ा दिया और चूल्हे के दूसरे ऐले पर कढ़ाई में दूध उबालने लगी। और मालती भौंहें चढ़ाए, खाट पर खिन्न-मन पड़ी इस तरह यह दृश्य देख रही थी, मानो उसके आपरेशन की तैयारी हो रही हो।

मेहता झोंपड़ी के द्वार पर खड़े होकर, युवती के गृह-कौशल को अनुरक्त नेत्रों से देखते हुए बोले-मुझे भी तो कोई काम बताओ, मैं क्या करूं? [ ८२ ]युवती ने मीठी झिड़की के साथ कहा-तुम्हें कुछ नहीं करना है, जाकर बाई के पास बैठो। बेचारी बहुत भूखी है, दूध गरम हुआ जाता है, उसे पिला देना।

उसने एक बड़े से बरतन में आटा निकाला और गूंदने लगी। मेहता उसके अंगों का विलास देखते रहे। युवती भी रह-रहकर उन्हें कनखियों से देखकर अपना काम करने लगती थी।

मालती ने पुकारा-तुम वहां क्यों खड़े हो? मेरे सिर में जोर का दर्द हो रहा है। आधा सिर ऐसा फटा पड़ता है, जैसे गिर जायगा।

मेहता ने आकर कहा-मालूम होता है, धूप लग गई है।

'मैं क्या जानती थी, तुम मुझे मार डालने के लिए यहां ला रहे हो।'

'तुम्हारे साथ कोई दवा भी तो नहीं है?'

'क्या मैं किसी मरीज को देखने आ रही थी, जो दवा लेकर चलती? मेरा एक दवाओं का बक्स है, वह सेमरी में है। उफ। सिर फटा जाता है।'

मेहता ने उसके सिर की ओर जमीन पर बैठकर धीरे-धीरे उसका सिर सहलाना शुरू किया। मालती ने आंखें बंद कर लीं।

युवती हाथों में आटा भरे, सिर के बाल बिखेरे, आंखें धुएं से लाल और सजल,सारी देह पसीने में तर, जिससे उसका उभरा हुआ वक्ष साफ झलक रहा था, आकर खड़ी हो गई और मालती को आंखें बंद किए पड़ी देखकर बोली-बाई को क्या हो गया है?

मेहता बोले-सिर में बड़ा दर्द है।

'पूरे सिर में है कि आधे में?'

'आधे में बतलाती हैं।

'दाईं ओर है, कि बाईं ओर?'

'बाईं ओर।'

'मैं अभी दौड़ के एक दवा लाती हूं। घिसकर लगाते ही अच्छा हो जायगा।'

'तुम इस धूप में कहां जाओगी?'

युवती ने सुना ही नहीं। वेग से एक ओर जाकर पहाड़ियों में छिप गई। कोई आधा घंटे बाद मेहता ने उसे ऊंची पहाड़ी पर चढ़ते देखा। दूर से बिल्कुल गुड़िया-सी लग रही थी। मन मे सोचा-इस जंगली छोकरी में सेवा का कितना भाव और कितना व्यावहारिक ज्ञान है। लू और धूप में आसमान पर चढ़ी चली जा रही है।

मालती ने आंखें खोलकर देखा-कहां गई वह कलूटी गजब की काली है, जैसे आबनूस का कुंदा हो। इसे भेज दो, रायसाहब से कह आए, कार यहां भेज दें। इस तपिश में मेरा दम निकल जायगा।

'कोई दवा लेने गई है। कहती है, उससे आधा सिर का दर्द बहुत जल्द आराम हो जाता है।'

'इनकी दवाएं इन्हीं को फायदा करती हैं, मुझे न करेंगी। तुम तो इस छोकरी पर लट्टू हो गए हो। कितने छिछोरे हो। जैसी रूह वैसे फरिश्ते।'

मेहता को कटु सत्य कहने में संकोच न होता था।

'कुछ बातें तो उसमें ऐसी हैं कि अगर तुममें होतीं, तो तुम सचमुच देवी हो जातीं।'

'उसकी खूबियां उसे मुबारक, मुझे देवी बनने की इच्छा नहीं।' [ ८३ ]'तुम्हारी इच्छा हो, तो मैं जाकर कार लाऊं, यद्यपि कार यहां आ भी सकेगी, मैं नहीं कह सकता।'

'उस कलूटी को क्यों नहीं भेज देते?'

'वह तो दवा लेने गई है, फिर भोजन पकाएगी।'

'तो आज आप उसके मेहमान हैं। शायद रात को भी यहीं रहने का विचार होगा। रात को शिकार भी तो अच्छे मिलते हैं।'

मेहता ने इस आक्षेप से चिढ़कर कहा-इस युवती के प्रति मेरे मन में जो प्रेम और श्रद्धा है, वह ऐसी है कि अगर मैं उसकी ओर वासना से देखूं तो आंखें फूट जायं। मैं अपने किसी घनिष्ठ मित्र के लिए भी इस धूप और लू में उस ऊंची पहाड़ी पर न जाता। और हम केवल घड़ी-भर के मेहमान हैं, यह वह जानती है। वह किसी गरीब औरत के लिए भी इसी तत्परता से दौड़ जायगी। मैं विश्व-बंधुत्व और विश्व-प्रेम पर केवल लेख लिख सकता हूं, केवल भाषण दे सकता हूं, वह उस प्रेम और त्याग का व्यवहार करती है। कहने से करना कहीं कठिन है। इसे तुम भी जानती हो।

मालती ने उपहास भाव से कहा-बस-बस, वह देवी है। मैं मान गई। उसके वक्ष में उभार है, नितंबों में भारीपन है, देवी होने के लिए और क्या चाहिए।

मेहता तिलमला उठे। तुरंत उठे और कपड़े पहने, जो सूख गए थे। बंदूक उठाई और चलने को तैयार हुए। मालती ने फुंकार मारी-तुम नहीं जा सकते, मुझे अकेली छोड़कर।

'तब कौन जायगा?

'वही तुम्हारी देवी।'

मेहता हतबुद्धि-से खड़े थे। नारी पुरुष पर कितनी आसानी से विजय पा सकती है, इसका आज उन्हें जीवन में पहला अनुभव हुआ।

वह दौड़ती-हांफती चली आ रही थी। वही कलूटी युवती, हाथ में एक झाड़ लिए हुए। समीप आकर मेहता को कहीं जाने को तैयार देखकर बोली-मैं वह जड़ी खोज लाई। अभी घिसकर लगाती हूं, लेकिन तुम कहां जा रहे हो? मांस तो पक गया होगा, मैं रोटियां सेंक देती हूं । दो-एक खा लेना । बाई दूध पी लेगी। ठंडा हो जाय, तो चले जाना।

उसने निस्संकोच भाव से मेहता के अचकन की बटनें खोल दीं। मेहता अपने को बहुत रोके हुए थे। जी होता था, इस गंवारिन के चरणों को चूम ले।

मालती ने कहा-अपनी दवाई रहने दे। नदी के किनारे, बरगद के नीचे हमारी मोटरकार खड़ी है। वहां और लोग होंगे। उनसे कहना, कार यहां लाएं। दौड़ी हुई जा।

युवती ने दीन नेत्रों से मेहता को देखा। इतनी मेहनत से बूटी लाई, उसका यह अनादर| इस गंवारिन की दवा इन्हें नहीं जंची, तो न सही, उसका मन रखने को ही जरा-सी लगवा लेतीं, तो क्या होता।

उसने बूटी जमीन पर रखकर पूछा-तब तक तो चूल्हा ठंडा हो जायगा बाईजी। कहो तो रोटियां सेंककर रख दूं। बाबूजी खाना खा लें, तुम दूध पी लो और दोनों जने आराम करो। तब तक मैं मोटर वाले को बुला लाऊंगी।

वह झोंपड़ी में गई। बुझी हुई आग फिर जलाई। देखा तो मांस उबल गया था। कुछ जल भी गया था। जल्दी-जल्दी रोटियां सेंकी, दूध गर्म था, उसे ठंडा किया और एक कटोरे [ ८४ ] में मालती के पास लाई। मालती ने कटोरे के भद्देपन पर मुंह बनाया, लेकिन दूध त्याग न सकी। मेहता झोंपड़ी के द्वार पर बैठकर एक थाली में मांस और रोटियां खाने लगे। युवती खड़ी पंखा झल रही थी।

मालती ने युवती से कहा उन्हें खाने दो। कहीं भागे नहीं जाते हैं। तू जाकर गाड़ी ला।

युवती ने मालती की ओर एक बार सवाल की आंखों से देखा, यह क्या चाहती हैं। इनका आशय क्या है? उसे मालती के चेहरे पर रोगियों की-सी नम्रता और कृतज्ञता और याचना न दिखाई दी। उसकी जगह अभिमान और प्रमाद की झलक थी। गंवारिन मनोभावों को पहचानने में चतुर थी। बोली-मैं किसी की लौंडी नहीं हूं बाईजी। तुम बड़ी हो, अपने घर की बड़ी हो। मैं तुमसे कुछ मांगने तो नहीं जाती। मैं गाड़ी लेने न जाऊंगी।

मालती ने डांटा-अच्छा। तूने गुस्ताखी पर कमर बांधी। बता, तू किसके इलाके में रहती है।

'यह रायसाहब का इलाका है।'

'तो तुझे उन्हीं रायसाहब के हाथों हंटरों से पिटवाऊंगी।'

'मुझे पिटवाने से तुम्हें सुख मिले तो पिटवा लेना बाईजी। कोई रानी-महारानी थोड़ी हूं कि लस्कर भेजनी पड़ेगी।'

मेहता ने दो-चार कौर निगले थे कि मालती की यह बातें सुनीं। कौर कंठ में अटक गया। जल्दी से हाथ धोया और बोले-वह नहीं जायगी। मैं जा रहा हूं।

मालती भी खड़ी हो गई-उसे जाना पड़ेगा।

मेहता ने अंग्रेजी में कहा-उसका अपमान करके तुम अपना सम्मान बढ़ा नहीं रही हो मालती।

मालती ने फटकार बताई-ऐसी ही लौंडिया मर्दों को पसंद आती हैं, जिनमें और कोई गुण हो या न हो, उनकी टहल दौड़-दौड़कर प्रसन्न मन से करें और अपना भाग्य सराहें कि इस पुरुष ने मुझसे यह काम करने को तो कहा। वह देवियां हैं, शक्तियां हैं, विभूतियां हैं। मैं समझती थी, वह पुरुषत्व तुममें कम-से-कम नहीं है, लेकिन अंदर से, संस्कारों से, तुम भी वही बर्बर हो।

मेहता मनोविज्ञान के पंडित थे। मालती के मनोरहस्यों को समझ रहे थे। ईर्ष्या का ऐसा अनोखा उदाहरण उन्हें कभी न मिला था। उस रमणी में, जो इतनी मृदु-स्वभाव, इतनी उदार, इतनी प्रसन्ममुख थी, ईर्ष्या की ऐसी प्रचंड ज्वाला।

बोले-कुछ भी कहो, मैं उसे न जाने दूँगा। उसकी सेवाओं और कृपाओं का यह पुरस्कार देकर मैं अपनी नजरों में नीच नहीं बन सकता।

मेहता के स्वर में कुछ ऐसा तेज था कि मालती धीरे-से उठी और चलने को तैयार हो गई। उसने जलकर कहा-अच्छा, तो मैं ही जाती हूं, तुम उसके चरणों की पूजा करके पीछे आना।

मालती दो-तीन कदम चली गई, तो मेहता ने युवती से कहा-अब मुझे आज्ञा दो बहन। तुम्हारा यह नेह, तुम्हारी यह निःस्वार्थ सेवा हमेशा याद रहेगी।

युवती ने दोनों हाथों से सजल नेत्र होकर उन्हें प्रणाम किया और झोंपड़ी के अंदर चली गई। [ ८५ ] दूसरी टोली रायसाहब और खन्ना की थी। रायसाहब तो अपने उसी रेशमी कुरते और रेशमी चादर में थे। मगर खन्ना ने शिकारी सूट डाला था, जो शायद आज ही के लिए बनवाया गया था, क्योंकि खन्ना को असामियों के शिकार से इतनी फुर्सत कहां थी कि जानवरों का शिकार करते। खन्ना ठिगने, इकहरे, रूपवान आदमी थे। गेहुँआ रंग, बड़ी-बड़ी आंखें, मुंह पर चेचक के दाग, बातचीत में बड़े कुशल। कुछ देर चलने के बाद खन्ना ने मिस्टर मेहता का जिक्र छेड़ दिया, जो कल से ही उनके मस्तिष्क में राहु की भांति समाए हुए थे।

बोले-यह मेहता भी कुछ अजीब आदमी है। मुझे तो कुछ बना हुआ मालूम होता है।

रायसाहब मेहता की इज्जत करते थे और उन्हें सच्चा और निष्कपट आदमी समझते थे, पर खन्ना से लेन-देन का व्यवहार था, कुछ स्वभाव से शांतिप्रिय भी थे, विरोध न कर सके। बोले-मैं तो उन्हें केवल मनोरंजन की वस्तु समझता हूं। कभी उनसे बहस नहीं करता और करना भी चाहूं तो उतनी विद्या कहां से लाऊं? जिसने जीवन के क्षेत्र में कभी कदम ही नहीं रखा, वह अगर जीवन के विषय में कोई नया सिद्धांत अलापता है, तो मुझे उस पर हंसी आती है। मजे से एक हजार माहवार फटकारते हैं, न जोरू न जांता, न कोई चिंता न बाधा, वह दर्शन न बघारें तो कौन बघारे? आप निर्द्वंद्व रहकर जीवन को संपूर्ण बनाने का स्वप्न देखते हैं। ऐसे आदमी से क्या बहस की जाय।

'मैंने सुना चरित्र का अच्छा नहीं है।'

'बेफिक्री में चरित्र अच्छा रह ही कैसे सकता है। समाज में रहो और समाज के कर्तव्यों और मर्यादाओं का पालन करो, तब पता चले।

'मालती न जाने क्या देखकर उन पर लट्टू हुई जाती है।'

'मैं समझता हूं, वह केवल तुम्हें जला रही है।'

'मुझे वह क्या जलाएंगीं, बेचारी। मैं उन्हें खिलौने से ज्यादा नहीं समझता।'

'यह तो न कहो मिस्टर खन्ना, मिस मालती पर जान तो देते हो तुम।'

'यों तो मैं आपको भी यह इल्जाम दे सकता हूं।'

'मैं सचमुच खिलौना समझता हूं। आप उन्हें प्रतिमा बनाए हुए हैं।'

खन्ना ने जोर से कहकहा मारा, हालांकि हंसी की कोई बात न थी।

'अगर एक लोटा जल चढ़ा देने से वरदान मिल जाय, तो क्या बुरा है।'

अबकी रायसाहब ने जोर से कहकहा मारा, जिसका कोई प्रयोजन न था।

'तब आपने उस देवी को समझा ही नहीं। आप जितनी ही उसकी पूजा करेंगे, उतना ही वह आपसे दूर भागेंगी। जितना ही दूर भागिएगा, उतना ही आपकी ओर दौड़ेंगी।'

'तब तो उन्हें आपकी ओर दौड़ना चाहिए था।'

'मेरी ओर। मैं उस रसिक-समाज से बिल्कुल बाहर हूं मिस्टर खन्ना, सच कहता हूं। मुझमें जितनी बुद्धि, जितना बल है, वह इस इलाके के प्रबंध में ही खर्च हो जाता है। घर के जितने प्राणी हैं, सभी अपनी-अपनी धुन में मस्त, कोई उपासना में, कोई विषय-वासना में। कोऊ काहू में मगन, कोऊ काहू में मगन। और इन सब अजगरों को भक्ष्य देना मेरा काम है, कर्त्तव्य है। मेरे बहुत से ताल्लुकेदार भाई भोग-विलास करते हैं, यह मैं जानता हूं। मगर वह [ ८६ ] लोग घर फूककर तमाशा देखते हैं। कर्ज का बोझ सिर पर लदा जा रहा है, रोज डिगरियां हो रही हैं। जिससे लेते हैं, उसे देना नहीं जानते, चारों तरफ बदनाम। मैं तो ऐसी जिंदगी से मर जाना अच्छा समझता हूं। मालूम नहीं, किसी संस्कार से मेरी आत्मा में जरा-सी जान बाकी रह गई, जो मुझे देश और समाज के बंधन में बांधे हुए है। सत्याग्रह आंदोलन छिड़ा। मेरे सारे भाई शराब-कबाब में मस्त थे। मैं अपने को न रोक सका। जेल गया और लाखों रुपये की जेरबारी उठाई और अभी तक उसका तावान दे रहा हूं। मुझे उसका पछतावा नहीं है। बिल्कुल नहीं। मुझे उसका गर्व है? मैं उस आदमी को आदमी नहीं समझता, जो देश और समाज की भलाई के लिए उद्योग न करे और बलिदान न करे। मुझे क्या यह अच्छा लगता है कि निर्जीव किसानों का रक्त चूसूं और अपने परिवार वालों की वासनाओं की तृप्ति के साधन जुटाऊं, मगर करूं क्या? जिस व्यवस्था में पला और जिया, उससे घृणा होने पर भी उसका मोह त्याग नहीं सकता और उसी चर्खे में रात-दिन पड़ा हुआ हूं कि किसी तरह आबरू-इज्जत बची रहे, और आत्मा की हत्या न होने पाए। ऐसा आदमी मिस मालती क्या, किसी भी मिस के पीछे नहीं पढ़ सकता, और पड़े तो उसका सर्वनाश ही समझिए। हां, थोड़ा-सा मनोरंजन कर लेना दूसरी बात है।'

मिस्टर खन्ना भी साहसी आदमी थे, संग्राम में आगे बढ़ने वाले। दो बार जेल हो आए थे। किसी से दबना न जानते थे। खद्दर पहनते थे और फ्रांस की शराब पीते थे। अवसर पड़ने पर बड़ी-बड़ी तकलीफें झेल सकते थे। जेल में शराब छुई तक नहीं, और 'ए' क्लास में रहकर भी 'सी' क्लास की रोटियां खाते रहे, हालांकि, उन्हें हर तरह का आराम मिल सकता था, मगर रण-क्षेत्र में जाने वाला रथ भी तो बिना तेल के नहीं चल सकता। उनके जीवन में थोड़ी-सी रसिकता लाजिमी थी। बोले-आप संन्यासी बन सकते हैं, मैं तो नहीं बन सकता। मैं तो समझता हूं, जो भोगी नहीं है, वह संग्राम में भी पूरे उत्साह से नहीं जा सकता। जो रमणी से प्रेम नहीं कर सकता, उसके देशप्रेम में मुझे विश्वास नहीं।

रायसाहब मुस्कराए-आप मुझी पर आवाजें कसने लगे

'आवाज नहीं है, तत्व की बात है।'

'शायद हो।'

'आप अपने दिल के अंदर पैठकर देखिए तो पता चले।'

'मैंने तो पैठकर देखा है, और मैं आपको विश्वास दिलाता हूं, वहां और चाहे जितनी बुराइयां हों, विषय की लालसा नहीं है।'

'तब मुझे आपके ऊपर दया आती है। आप जो इतने दुखी और निराश और चिंतित हैं, इसका एकमात्र कारण आपका निग्रह है। मैं तो यह नाटक खेलकर रहूंगा, चाहे दुखांत ही क्यों न हो। वह मुझसे मजाक करती है, दिखाती है कि मुझे तेरी परवाह नहीं है, लेकिन मैं हिम्मत हारने वाला मनुष्य नहीं हूं। मैं अब तक उसका मिजाज नहीं समझ पाया। कहां निशाना ठीक बैठेगा, इसका निश्चय न कर सका। जिस दिन यह जी मिल गई, बस फतह है।'

'लेकिन वह कुंजी आपको शायद ही मिले। मेहता शायद आपसे बाजी मार ले जायं।'

एक हिरन कई हिरनियों के साथ चर रहा था, बड़ी सींगों वाला, बिल्कुल काला। रायसाहब ने निशाना बांधा। खन्ना ने रोका-क्यों हत्या करते हो यार? बेचारा चर रहा है, चरने दो। धूप तेज हो गई। आइए कहीं बैठ जायं। आपसे कुछ बातें करनी हैं।

रायसाहब ने बंदूक चलाई, मगर हिरन भाग गया। बोले-एक शिकार मिला भी तो निशाना [ ८७ ] खाली गया ।

'एक हत्या से बचे'

'हां कहिए, क्या कहने जा रहे थे।'

'आपके इलाके में ऊख होती है?'

'बड़ी कसरत से।'

'तो फिर क्यों न हमारे शुगर मिल में शामिल हो जाइए? हिस्से धड़ाधड़ बिक रहे हैं। आप ज्यादा नहीं, एक हजार हिस्से खरीद लें?'

'गजब किया, मैं इतने रुपये कहां से लाऊंगा?'

'इतने नामी इलाकेदार और आपको रुपयों की कमी। कुल पचास हजार ही तो होते हैं। उनमें भी अभी 25 फीसदी ही देना है।'

'नहीं भाई साहब, मेरे पास इस वक्त बिल्कुल रुपये नहीं हैं।

'रुपये जितने चाहें, मुझसे लीजिए। बैंक आपका है। हां, अभी आपने अपनी जिंदगी इंश्योर्ड न कराई होगी। मेरी कंपनी में एक अच्छी-सी पालिसी लीजिए। सौ-दो सौ रुपये तो आप बड़ी आसानी से हर महीने दे सकते हैं और इकट्ठी रकम मिल जायगी-चालीस-पचास-हजार। लड़कों के लिए इससे अच्छा प्रबंध आप नहीं कर सकते। हमारी नियमावली देखिए। हम पूर्ण सहकारिता के सिद्धांत पर काम करते हैं। दफ्तर और कर्मचारियों के खर्च के सिवा नफे की एक पाई भी किसी की जेब में नहीं जाती। आपको आश्चर्य होगा कि इस नीति से कंपनी चल कैसे रही हैं। और मेरी सलाह से थोड़ा-सा स्पेकुलेशन का काम भी शुरू कर दीजिए। यह जो सैकड़ों करोड़पति बने हुए हैं, सब इसी स्पेकुलेशन से बने हैं। रुई, शक्कर, गेहूं, रबर किसी जिंस का सट्टा कीजिए। मिनटों में लाखों का वारा-न्यारा होता है। काम जरा अटपटा है। बहुत से लोग गच्चा खा जाते हैं, लेकिन वही, जो अनाड़ी हैं। आप जैसे अनुभवी, सुशिक्षित और दूरंदेश लोगों के लिए इससे ज्यादा नफे का काम ही नहीं बाजार का चढ़ाव-उतार कोई आकस्मिक घटना नहीं। इसका भी विज्ञान है। एक बार उसे गौर से देख लीजिए फिर क्या मजाल कि धोखा हो जाय।'

रायसाहब कंपनियों पर अविश्वास करते थे, दो-एक बार इसका उन्हें कड़वा अनुभव हो भी चुका था, लेकिन मिस्टर खन्ना को उन्होंने अपनी आंखों के सामने बढ़ते देखा था और उनकी कार्यक्षमता के कायल हो गए थे। अभी दस साल पहले जो व्यक्ति बैंक में क्लर्क था, वह केवल न अपने अध्यवसाय, पुरुषार्थ और प्रतिभा से शहर में पुजता है। उसकी सलाहों की उपेक्षा न की जा सकती थी। इस विषय में अगर खन्ना उनके पथ-प्रदर्शक हो जायं, तो उन्हें बहुत कुछ कामयाबी हो सकती है। ऐसा अवसर क्यों छोड़ा जाय? तरह-तरह के प्रश्न करते रहे।

सहसा एक देहाती एक बड़ी-सी टोकरी में कुछ जड़ें, कुछ पत्तियां, कुछ फल लिए, जाता नजर आया । खन्ना ने पूछा-अरे, क्या बेचता है?

देहाती सकपका गया, डरा, कहीं बेगार में न पकड़ जाय। बोला-कुछ तो नहीं मालिक। यही घास-पात है?

'क्या करेगा इनको?' [ ८८ ]'बेचूंगा मालिक। जड़ी-बूटी है।'

'कौन-कौन-सी जड़ी-बूटी है, बता?'

देहाती ने अपना औषधालय खोलकर दिखलाया। मामूली चीजें थीं,जो जंगल के आदमी उखाड़कर ले जाते हैं और शहर में अत्तारों के हाथ दो-चार आने में बेच आते हैं। जैसे मकोय, कंघी, सहदेइया, कुकरौंधे, धतूरे के बीज, मदार के फूल, करंजे, घुमची आदि। हर एक चीज दिखाता था और रटे हुए शब्दों में उनके गुण भी बयान करता जाता था। यह मकोय है सरकार| ताप हो, मंदाग्नि हो, तिल्ली हो, धड़कन हो, शूल हो, खांसी हो, एक खुराक में आराम हो जाता है। यह धतूरे के बीज हैं, मालिक गठिया हो, बाई हो....

खन्ना ने दाम पूछा-उसने आठ आने कहे। खन्ना ने एक रुपया फेंक दिया और उसे पड़ाव तक रख आने का हुक्म दिया। गरीब ने मुंह-मांगा दाम ही नहीं पाया, उसका दुगुना पाया। आशीर्वाद देता चला गया।

रायसाहब ने पूछा-आप यह घास-पात लेकर क्या करेंगे?

खन्ना ने मुस्कराकर कहा-इनकी अशर्फियां बनाऊंगा। मैं कीमियागर हूं। यह आपको शायद नहीं मालूम।

'तो यार, वह मंत्र हमें भी सिखा दो।'

'हां-हां, शौक से। मेरी शागिर्दी कीजिए। पहले सवा सेर लड्डू लाकर चढ़ाइए, तब बतलाऊंगा। बात यह है कि मेरा तरह-तरह के आदमियों से साबका पड़ता है। कुछ ऐसे लोग भी आते हैं, जो जड़ी-बूटियों पर जान देते हैं। उनको इतना मालूम हो जाय कि यह किसी फकीर की दी हुई बूटी है, फिर आपकी खुशामद करेंगे, नाक रगड़ेंगे, और आप वह चीज उन्हें दे दें, तो हमेशा के लिए आपका ऋणी हो जायेंगे। एक रुपये में अगर दस-बीस पर एहसान का नमदा कसा जा सके, तो क्या बुरा है? जरा से एहसान से बड़े-बड़े काम निकल जाते हैं।'

रायसाहब ने कौतूहल से पूछा-मगर इन बूटियों के गुण आपको याद कैसे रहेंगे?

खन्ना ने कहकहा मारा-आप भी रायसाहब बड़े मजे की बातें करते हैं। जिस बूटी में जो भी गुण चाहे बता दीजिए, वह आपकी लियाकत पर मुनहसर है। सेहत तो रुपये में आठ आने विश्वास से होती है। आप जो इन बड़े-बड़े अफसरों को देखते हैं, और इन लंबी पूंछवाले विद्वानों को, और इन रईसों को, ये सब अंधविश्वासी होते हैं। मैं तो वनस्पति-शास्त्र के प्रोफेसर को जानता हूं, जो कुकरौंधे का नाम भी नहीं जानते। इन विद्वानों का मजाक तो हमारे स्वामीजी खूब उड़ाते हैं। आपको तो कभी उनके दर्शन न हुए होंगे। अबकी आप आएंगे, तो उनसे मिलाऊंगा। जब से मेरे बगीचे में ठहरे हैं, रात-दिन लोगों का तांता लगा रहता है। माया तो उन्हें छू भी नहीं गई। केवल एक बार दूध पीते हैं। ऐसा विद्वान् महात्मा मैंने आज तक नहीं देखा। न जाने कितने वर्ष हिमालय पर तप करते रहे। पूरे सिद्ध पुरुष हैं। आप उनसे अवश्य दीक्षा लीजिए। मुझे विश्वास है, आपकी यह सारी कठिनाइयां छूमंतर हो जायंगी। आपको देखते ही आपका भूत-भविष्य सब कह सुनाएंगे। ऐसे प्रसन्न-मुख हैं कि देखते ही मन खिल उठता है। ताज्जुब तो यह है कि खुद इतने बड़े महात्मा हैं, मगर संन्यास और त्याग, मंदिर और मठ, संप्रदाय और पंथी, इन सबको ढोंग कहते हैं, पाखंड कहते हैं। रूढ़ियों के बंधन को तोड़ो और मनुष्य बनो, देवता बनने का खयाल छोड़ो। देवता बनकर तुम मनुष्य न रहोगे।

रायसाहब के मन में शंका हुई। महात्माओं में उन्हें भी वह विश्वास था, जो प्रभुतावालों [ ८९ ] में आमतौर पर होता है। दु:खी प्राणी को आत्मचिंतन में जो शांति मिलती है, उसके लिए वह भी लालायित रहते थे। जब आर्थिक कठिनाइयों से निराश हो जाते, मन में आता, संसार से मुंह मोड़कर एकांत में जा बैठें और मोक्ष की चिंता करें। संसार के बंधनों को वह भी साधारण मनुष्यों की भांति आत्मोन्नति के मार्ग की बाधाएं समझते थे और इनसे दूर हो जाना ही उनके जीवन का भी आदर्श था, लेकिन संन्यास और त्याग के बिना बंधनों को तोड़ने का और क्या उपाय है?

'लेकिन जब वह संन्यास को ढ़ोंग कहते हैं, तो खुद क्यों संन्यास लिया है?'

'उन्होंने संन्यास कब लिया है साहब, वह तो कहते हैं-आदमी को अंत तक काम करते रहना चाहिए। विचार-स्वातंत्र्य उनके उपदेशों का तत्त्व है।'

'मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा है। विचार-स्वातंत्र्य का आशय क्या है?'

'समझ में तो मेरे भी कुछ नहीं आया, अबकी आइए, तो उनसे बातें हों। वह प्रेम को जीवन का सत्य कहते हैं। और इसकी ऐसी सुंदर व्याख्या करते हैं कि मन मुग्ध हो जाता है।'

'मिस मालती को उनसे मिलाया या नहीं?'

'आप भी दिल्लगी करते हैं। मालती को भला इनसे क्या मिलाता....

वाक्य पूरा न हुआ था कि सामने झाड़ी में सरसराहट की आवाज सुनकर चौंक पड़े और प्राण-रक्षा की प्रेरणा से रायसाहब के पीछे आ गए। झाड़ी में से एक तेंदुआ निकला और मंद गति से सामने की ओर चला।

रायसाहब ने बंदूक उठाई और निशाना बांधना चाहते थे कि खन्ना ने कहा-यह क्या करते हैं आप? ख्वाहमख्वाह उसे छेड़ रहे हैं, कहीं लौट पड़े तो ?

'लौट क्या पड़ेगा, वहीं ढेर हो जायगा।'

'तो मुझे उस टीले पर चढ़ जाने दीजिए। मैं शिकार का ऐसा शौकीन नहीं हूं।'

'तब क्या शिकार खेलने चले थे?'

'शामत और क्या।'

रायसाहब ने बंदूक नीचे कर ली।

'बड़ा अच्छा शिकार निकल गया। ऐसे अवसर कम मिलते हैं।'

'मैं तो अब यहां नहीं ठहर सकता। खतरनाक जगह है।'

'एकाध शिकार तो मार लेने दीजिए। खाली हाथ लौटते शर्म आती है।'

'आप मुझे कृपा करके कार के पास पहुंचा दीजिए, फिर चाहे तेंदुए का शिकार कीजिए या चीते का।'

'आप बड़े डरपोक हैं मिस्टर खन्ना, सच।'

'व्यर्थ में अपनी जान खतरे में डालना बहादुरी नहीं है ।'

'अच्छा तो आप खुशी से लौट सकते हैं।'

'अकेला?'

'रास्ता बिल्कुल साफ है।'

'जी नहीं। आपको मेरे साथ चलना पड़ेगा?'

रायसाहब ने बहुत समझाया, मगर खन्ना ने एक न मानी। मारे भय के उनका चेहरा पीला पड़ गया था। उस वक्त अगर झाड़ी में से एक गिलहरी भी निकल आती, तो वह चीख मारकर [ ९० ]
गिर पड़ते। बोटी-बोटी कांप रही थी। पसीने से तर हो गए थे। रायसाहब को लाचार होकर उनके साथ लौटना पड़ा।

जब दोनों आदमी बड़ी दूर निकल आए, तो खन्ना के होश ठिकाने आए।

बोले-खतरे से नहीं डरता, लेकिन खतरे के मुंह में उंगली डालना हिमाकत है।

'अजी, जाओ भी। जरा-सा तेंदुआ देख लिया, तो जान निकल गई।'

'मैं शिकार खेलना उस जमाने का संस्कार समझता हूं, जब आदमी पशु था। तब से संस्कृति बहुत आगे बढ़ गई है।'

'मैं मिस मालती से आपकी कलई खोलूंगा।'

'मैं अहिंसावादी होना लज्जा की बात नहीं समझता।'

'अच्छा, तो यह आपका अहिंसावाद था। शाबाश।'

खन्ना ने गर्व से कहा-जी हां, यह मेरा अहिंसावाद था। आप बुद्ध और शंकर के नाम पर गर्व करते हैं और पशुओं की हत्या करते हैं, लज्जा आपको आनी चाहिए, न कि मुझे।

कुछ दूर दोनों फिर चुपचाप चलते रहे। तब खन्ना बोले-तो आप कब तक आयेंगे? मैं चाहता हूं, आप पालिसी का फार्म आज ही भर दें और शक्कर के हिस्सों का भी। मेरे पास दोनों फार्म भी मौजूद हैं।

रायसाहब ने चिंतित स्वर में कहा-जरा सोच लेने दीजिए

'इसमें सोचने की जरूरत नहीं।'


तीसरी टोली मिर्जा खुर्शेद और मिस्टर तंखा की थी। मिर्जा खुर्शेद के लिए भूत और भविष्य सादे कागज की भांति था। वह वर्तमान में रहते थे। न भूत का पछतावा था, न भविष्य की चिंता। जो कुछ सामने आ जाता था, उसमें जी-जान से लग जाते थे। मित्रों की मंडली में वह विनोद के पुतले थे। कौंसिल में उनसे ज्यादा उत्साही मेंबर कोई न था। जिस प्रश्न के पीछे पड़ जाते, मिनिस्टरों को रुला देते। किसी के साथ रू-रियायत करना जानते थे। बीच-बीच में परिहास भी करते जाते थे। उनके लिए आज जीवन था, कल का पता नहीं। गुस्सेवर भी ऐसे थे कि ताल ठोंककर सामने आ जाते थे। नम्रता के सामने दंडवत करते थे, लेकिन जहां किसी नेशान दिखाई और यह हाथ धोकर उसके पीछे पड़े। न अपना लेना याद रखते थे, न दूसरों का देना। शौक था शायरी का और शराब का। औरत केवल मनोरंजन की वस्तु थी। बहुत दिन हुए हृदय का दिवाला निकाल चुके थे।

मिस्टर तंखा दांव-पेंच के आदमी थे, सौदा पटाने में, मुआमला सुलझाने में, अडंगा लगाने में, बालू से तेल निकालने में, गला दबाने में, दुम झाड़कर निकल जाने में बड़े सिद्धहस्त। कहिए रेत में नाव चला दें, पत्थर पर दूब उगा दें। ताल्लुकेदारों को महाजनों से कर्ज दिलाना, नई कंपनियां खोलना, चुनाव के अवसर पर उम्मेदवार खड़े करना, यही उनका व्यवसाय था। खासकर चुनाव के समय उनकी तकदीर चमकती थी। किसी पोढ़े उम्मेदवार को खड़ा करते, दिलोजान से उसका काम करते और दस-बीस हजार बना लेते। जब कांग्रेस का जोर था, तो कांग्रेस के उम्मेदवार के सहायक थे। जब सांप्रदायिक दल का जोर हुआ, तो हिन्दूसभा की ओर से काम करने लगे,
[ ९१ ]गोदान :1 मगर इस उलटफेर के समर्थन के लिए उनके पास ऐसी दलीलें थीं कि कोई उंगली न दिखा सकता था।शहर के सभी रईस,सभी हुक्काम, सभी अमीरों से उनका याराना था। दिल में चाहे लोग उनकी नीति पसंद न करें, पर वह स्वभाव के इतने नम्र थे कि कोई मुंह पर कुछ न कह सकता था। मिर्जा खुर्शद ने रूमाल से माथे का पसीना पोंछकर कहा-आज तो शिकार खेलने के लायक दिन नहीं है। आज तो कोई मुशायरा होना चाहिए था। वकील ने समर्थन किया-जी हां, वहीं बाग में। बड़ी बहार रहेगी। थोड़ी देर के बाद मिस्टर तंखा ने मामले की बात छेड़ी। 'अबकी चुनाव में बड़े-बड़े गुल खिलेंगे। आपके लिए भी मुश्किल है।' मिर्जा विरक्त मन से बोले--अबकी मैं खड़ा ही न हूंगा। तंखा ने पूछा-क्यों? 'मुफ्त की बकबक कौन करे? फायदा ही क्या! मुझे अब इस डेमॉक्रेसी में भक्ति नहीं रही। जरा-सा काम और महीनों की बहसा हां, जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए अच्छा म्वांग है। इससे तो कहीं अच्छा है कि एक गवर्नर रहे, चाहे वह हिन्दुस्तानी हो, या अंग्रेज, इससे बहस नहीं। एक इंजिन जिस गाड़ी को बड़े मजे से हजारों मील खींच ले जा सकता है, उसे दस हजार आदमी मिलकर भी उतनी तेजी से नहीं खींच सकते। मैं तो यह सारा तमाशा देखकर कौंसिल से बेजार हो गया हूं। मेरा बस चले, तो कौंसिल में आग लगा दूंजिसे हम डेमॉक्रेसी कहते हैं,वह व्यवहार में बड़े-बड़े व्यापारियों और जमींदारों का राज्य है,और कुछ नहीं। चुनाव में वही बाजी ले जाता है, जिसके पास रुपये हैं। रुपये के जोर से उसके लिए सभी सुविधाएं तैयार हो जाती हैं। बड़े-बड़े पंडित, बड़े-बड़े मौलवी, बड़े-बड़े लिखने और बोलने वाले, जो अपनी जबान और कलम से पब्लिक को जिस तरफ चाहें फेर दें, सभी सोने के देवता के पैरों पर माथा रगड़ते हैं, मैंने तो इरादा कर लिया है,अब इलेक्शन के पास न जाऊंगा। मेरा प्रोपेंगडा अब डेमॉक्रेसी के खिलाफ होगा।' मिर्जा साहब केरान की आयतों से सिद्ध किया कि पुराने जमाने के बादशाहों के आदर्श कितने ऊंचे थे। आज तो हम उसकी तरफ ताक भी नहीं सकते। हमारी आंखों में चकाचौंध आ जायगी। बादशाह को खजाने की एक कौडी भी निजी खर्च में लाने का अधिकार न था। वह किताबें नकल करके, कपड़े सीकर,लड़कों को पढ़ाकर अपना गुजर करता था। मिर्जा ने आदर्श महीपों की एक लंबी सची गिना दी। कहां तो वह प्रजा को पालने वाला बादशाह और कहां आजकल के मंत्री और मिनिस्टर, पांच, छ:, सात, आठ हजार माहवार मिलना चाहिए। यह लूट है या डेमॉक्रेसी हिरनों का झंड चरता हआ नजर आया। मिर्जा के मुख पर शिकार का जोश चमक उठा। बंदूक संभाली और निशाना मारा। एक काला-सा हिरन गिर पड़ा। वह मारा | इस उन्मत्त ध्वनि के साथ मिर्जा भी बेतहाशा दौड़े-बिलकुल बच्चों की तरह उछलते, कूदते, तालियां बजाते। समीप ही एक वृक्ष पर एक आदमी लकड़ियां काट रहा था। वह भी चट-पट वृक्ष से उतरकर मिर्जाजी के साथ दौडा। हिरन की गर्दन में गोली लगी थी, उसके पैरों में कंपन हो रहा था और आंखें पथरा गई थीं।। लकड़हारे ने हिरन को करुण नेत्रों से देखकर कहा-अच्छा पट्ठा था, मन-भर से कम [ ९२ ]92 : प्रेमचंद रचनावली-6 न होगा। हुकुम हो, तो मैं उठाकर पहुंचा दूं? ___मिर्जा कुछ बोले नहीं। हिरन की टंगी हुई, दीन, वेदना से भरी आंखें देख रहे थे। अभी एक मिनट पहले इसमें जीवन था। जरा-सा पत्ता भी खड़कता, तो कान खड़े करके चौकड़ियां भरता हुआ निकल भागता। अपने मित्रों और बाल-बच्चों के साथ ईश्वर की उगाई हुई घास खा रहा था, मगर अब निस्पंद पड़ा है। उसकी खाल उधेड़लो, उसकी बोटियां करडालो, उसका कीमा बना डालो, उसे खबर भी न होगी। उसके क्रीड़ामय जीवन में जो आकर्षण था, जो आनंद था,वह क्या इस निर्जीव शव में है? कितनी सुंदर गठन थी,कितनी प्यारी आंखें,कितनी मनोहर छवि | उसकी छलांगें हृदय में आनंद की तंरगें पैदा कर देती थीं, उसकी चौकड़ियों के साथ हमारा मन भी चौकड़ियां भरने लगता था। उसकी स्फूर्ति जीवन-सा बिखेरती चलती थी, जैसे फूल सुगंध बिखेरता है, लेकिन अब । उसे देखकर ग्लानि होती है। लकड़हारे ने पूछा-कहां पहुंचाना होगा मालिक? मुझे भी दो-चार पैसे दे देना। मिर्जाजी जैसे ध्यान से चौंक पड़े। बोले-अच्छा, उठा ले। कहां चलेगा? 'जहां हुकुम हो मालिक।' 'नहीं, जहां तेरी इच्छा हो, वहां ले जा। मैं तुझे देता हूं।' लकड़हारे ने मिर्जा की ओर कौतूहल से देखा। कानों पर विश्वास न आया। 'अरे नहीं मालिक हजर ने सिकार किया है. तो हम कैसे खा लें। 'नहीं-नहीं, मैं खुशी से कहता हूं, तुम इसे ले जाओ। तुम्हारा घर यहां से कितनी दूर है?' 'कोई आधा कोस होगा मालिक।' 'तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगा। देखूगा, तुम्हारे बाल-बच्चे कैसे खुश होते हैं।' 'ऐसे तो मैं न ले जाऊंगा सरकार । आप इतनी दूर से आए, इस कड़ी धूप में सिकार किया, मैं कैसे उठा ले जाऊं?' 'उठा उठा, देर न कर। मुझे मालूम हो गया, तू भला आदमी है।' लकड़हारे ने डरते-डरते और रह-रहकर मिर्जाजी के मुख की ओर सशंक नेत्रों से देखते हुए कि कहों बिगड़ न जायं, हिरन को उठाया। सहसा उसने हिरन को छोड़ दिया और खड़ा होकर बोला-मैं समझ गया मालिक. हजर ने इसकी हलाली नहीं की। मिर्जाजी ने हंसकर कहा-बस-बस, तूने खूब समझा। अब उठा ले और घर चल। मिर्जाजी धर्म के इतने पाबंद न थे। दस साल से उन्होंने नमाज न पढ़ी थी। दो महीने में एक दिन व्रत रख लेते थे। बिल्कुल निराहर, निर्जल, मगर लकड़हारेको इस खयाल से जो संतोष हुआ था कि हिरन अब इन लोगों के लिए अखाद्य हो गया है, उसे फीका न करना चाहते थे। लकड़हारे ने हल्के मन से हिरन को गर्दन पर रख लिया और घर की ओर चला। तंखा अभी तक तटस्थ से वहीं पेड़ के नीचे खड़े थे। धूप में हिरन के पास जाने का कष्ट क्यों उठाते? कुछ समझ में न आ रहा था कि मुआमला क्या है, लेकिन जब लकड़हारे को उल्टी दिशा में जाते देखा, तो आकर मिर्जा से बोले-आप उधर कहां जा रहे हैं हजरत। क्या रास्ता भूल गए? मिर्जा ने अपराधी भाव से मुस्कराकर कहा-मैंने शिकार इस गरीब आदमी को दे दिया। अब ज़रा इसके घर चल रहा है। आप भी आइएन। [ ९३ ]गोदान : 93 तंखा ने मिर्जा को कौतूहल की दृष्टि से देखा और बोले-आप अपने होश में हैं या नहीं? 'कह नहीं सकता। मुझे खुद नहीं मालूम।' 'शिकार इसे क्यों दे दिया?' 'इसलिए कि उसे पाकर इसे जितनी खुशी होगी, मुझे या आपको न होगी।' तखा खिसियाकर बोले-जाइए। सोचा था,खूब कबाब उड़ाएंगे,सो आपने सारा मजा किरकिरा कर दिया। खैर, रायसाहब और मेहता कुछ न कुछ लाएंगे ही। कोई गम नहीं। मैं इस इलेक्शन के बारे में कुछ अर्ज करना चाहता हूं। आप नहीं खड़ा होना चाहते न सही, आपकी जैसी मर्जी, लेकिन आपको इसमें क्या ताम्मुल है कि जो लोग खड़े हो रहे हैं, उनसे इसकी अच्छी कीमत वसूल की जाय। मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप किसी पर यह भेद ने खुलने दें कि आप नहीं खड़े हो रहे हैं। सिर्फ इतनी मेहरबानी कीजिए मेरे साथ ख्वाजा जमाल ताहिर इसी शहर से खड़े हो रहे हैं। रईसों के वोट तो सोलहों आने उनकी तरफ हैं ही, हुक्काम भी उनके मददगार हैं। फिर भी पब्लिक पर आपका जो असर है, इससे उनकी कोर दब रही है। आप चाहें तो आपको उनसे दस-बीस हजार रुपये महज यह जाहिर कर देने के मिल सकते हैं कि आप उनकी खातिर बैठ जाते हैं.... नहीं मुझे अर्ज कर लेने दीजिए। इस मुआमले में आपको कुछ नहीं करना है। आप बेफिक्र बैठे रहिए। मैं आपकी तरफसे एक मेनिफेस्टो निकाल दूंगा और उसी राम को आप मुझसे दस हजार नकद वसूल कर लीजिए। मिर्जा साहब ने उनकी ओर हिकारत से देखकर कहा-मैं ऐसे रुपये पर और आप पर लानत भेजता ह। मिस्टर तंखा ने जरा भी बुरा नहीं माना। माथे पर बल तक न आने दिया। 'मुझपर जितनी लानत चाहें भेजें,मगर रुपये पर लानत भेजकर आप अपना ही नुकसान कर रहे हैं। 'मैं ऐसी रकम को हराम समझता हूं।' 'आप शरीयत के इतने पाबंद तो नहीं हैं।' 'लुट की कमाई को हराम समझने के लिए शस का पाबंद होने की जरूरत नहीं है।' 'तो इस मुआमले में क्या आप फैसला तब्दील नहीं कर सकते? 'जी नहीं। __ 'अच्छी बात है, इसे जाने दीजिए। किसी बीमा कंपनी के डाइरेक्टर बनने में तो आपको कोई एतराज नहीं है? आपको कंपनी का एक हिस्सा भी न खरीदना पडेगा। आप सिर्फ अपना नामदे दीजिएगा।' ___ 'जी नहीं, मुझे यह भी मंजूर नहीं है। मैं कई कंपनियों का डाइरेक्टर, कई का मैनेजिंग एजेंट, कई का चेयरमैन था। दौलत मेरे पांव चूमती थी। मैं जानता हूं, दौलत से आराम और तकल्लुफ के कितने सामान जमा किए जा सकते हैं, मगर यह भी जानता हूं कि दौलत इंसान को कितना खुदगरज बना देती है, कितना ऐश सिंद, कितना मक्कार, कितना बेगैरत।' वकील साहब को फिर कोई प्रस्ताव करने का साहस न हुआ। मिर्जाजी की बुद्धि और प्रभाव में उनका जो विश्वास था, वह बहुत कम हो गया। उनके लिए धन ही सब कुछ था और ऐसे आदमी से. जो लक्ष्मी को ठोकर मारता हो. उनका कोई मेल न हो सकता था। लकड़हारा हिरन को कंधे पर रखे लपका चला जा रहा था। मिर्जा ने भी कदम बढ़ाया, [ ९४ ]94: प्रेमचंद रचनावली-6 पर स्थूलकाय तंखा पीछे रह गए। उन्होंने पुकारा-जरा सुनिए, मिर्जाजी, आप तो भागे जा रहे हैं। मिर्जाजी ने बिना रुके हुए जवाब दिया-वह गरीब बोझ लिए इतनी तेजी से चला जा रहा है। हम क्या अपना बदन लेकर भी उसके बराबर नहीं चल सकते? लकड़हारे ने हिरन को एक ढूंठ पर उतारकर रख दिया था और दम लेने लगा था। कर पूछा-थक गए, क्यों? लकड़हारे ने सकुचाते हुए कहा-बहुत भारी है सरकार । 'तो लाओ, कुछ दूर मैं ले चलूं।' लकड़हारा हंसा। मिर्जा डील-डौल में उससे कहीं ऊंचे और मोटे-ताजे थे, फिर भी वह दुबला-पतला आदमी उनकी इस बात पर हंसा। मिर्जाजी पर जैसे चाबुक पड़ गया। 'तुम हंसे क्यों? क्या तुम समझते हो, मैं इसे नहीं उठा सकता?' लकड़हारे ने मानो क्षमा मांगी-सरकार आप बडे आदमी हैं। बोझ उठाना तो हम-जैसे मजूरों का ही काम है। 'मैं तुम्हारा दुगुना जो हूं।' 'इससे क्या होता है मालिक ।' मिर्जाजी का पुरुषत्व अपना और अपमान न सह सका। उन्होंने बढ़कर हिरन को गर्दन पर उठा लिया और चले, मगर मुश्किल से पचास कदम चले होंगे कि गर्दन फटने लगी, पांव थरथराने लगे और आंखों में तितलियां उड़ने लगीं। कलेजा मजबूत किया और एक बीस कदम और चले।कम्बख्त कहां रह गया? जैसे इस लाश में सीसा भर दिया गया हो। जरा मिस्टर तखा की गर्दन पर रख दूं, तो मजा आए। मशक की तरह जो फूले चलते हैं, जरा इसका मजा भी देखें,लेकिन बोझा उतारेंकैसे? दोनों अपने दिल में कहेंगे,बड़ी जवामर्दी दिखाने चले थे। पचास कदम में ची बोल गए। लकड़हारे ने चुटकी ली-कहो मालिक, कैसे रंग-ढंग हैं? बहुत हलका है न? मिर्जाजी को बोझकुछ हलका मालूम होने लगा। बोले-उतनी दूर तो ले ही जाऊंगा, जितनी दूर तुम लाए हो। 'कई दिन गर्दन दुखेगी मालिक।' 'तुम क्या समझते हो, मैं यों ही फूला हुआ हूं।' 'नहीं मालिक, अब तो ऐसा नहीं समझता। मुदा आप हैरान न हों, वह चट्टान है, उस पर उतार दीजिए।' 'मैं अभी इसे इतनी ही दूर और ले जा सकता हूं।' 'मगर यह अच्छा तो नहीं लगता कि मैं ठाला चलं और आर लदे रहें।' मिर्जा साहब ने चट्टान पर हिरन को उतारकर रख दिया। वकील साहब आ पहुंचे। मिर्जा ने दाना फेंका-अब आपको भी कुछ दूर ले चलना पड़ेगा जनाब। वकील साहब की नजरों में अब मिर्जाजी का कोई महत्त्व न था। बोले-मुआफ कीजिए। मुझे अपनी पहलवानी का दावा नहीं है। 'बहुत भारी नहीं है सच।' 'अजी, रहने भी दीजिए। [ ९५ ]गोदान : 95 'आप अगर इसे सौ कदमले चलें, तो मैं वादा करता हूं, आप मेरे सामने जो तजवीज रखेंगे, उसे मंजूर कर लूंगा।' 'मैं इन चकमों में नहीं आता।' 'मैं चकमा नहीं दे रहा हं.वल्लाह। आप जिस हलके से कहेंगे,खड़ा हो जाऊंगा। जब हक्म देंगे,बैठ जाऊंगा। जिस कंपनी का डाइरेक्टर, मेंबर, मनीम,कनवेसर, जो कुछ कहिएगा बन जाऊंगा। बस, सौ कदमले चलिए। मेरी तो ऐसे ही दोस्तों से निभती है, जो मौका पड़ने पर सब कुछ कर सकते हों।' तंखा का मन चुलबुला उठा। मिर्जा अपने कौल के पक्के हैं। इसमें कोई संदेह न था। हिरन ऐसा क्या बहुत भारी होगा! आखिर मिर्जा इतनी दूरले ही आए। बहुत ज्यादा थके तो नहीं जान पड़ते, अगर इंकार करते हैं, तो सुनहरा अवसर हाथ से जाता है। आखिर ऐसा क्या कोई पहाड़ है। बहुत होगा, चार-पांच पंसेरी होगा। दो-चार दिन गर्दन ही तो दुखेगी। जेब में रुपये हों, तो थोड़ी-सी बीमारी सुख की वस्तु है। 'सौ कदम की रही।' 'हा, सौ कदम। मैं गिनता चलूंगा।' 'देखिए, निकल न जाइएगा।' 'निकल जाने वाले पर लानत भेजता हूं। तंखा ने जूते का फीता फिर से बांधा, कोट उतारकर लकड़हारे को दिया, पतलून ऊपर चढ़ाया, रूमाल से मुंह पोंछा और इस तरह हिरन को देखा, मानो ओखली में सिर देने जा रहे हैं। फिर हिरन को उठाकर गर्दन पर रखने की चेष्टा को दो-तीन बार जोर लगाने पर लाश गर्दन पर तो आ गई,पर गर्दन न उठ सकी।कमर झुक गई.हांफ उठे और लाश को जमीन पर पटकने वाले थे कि मिर्जा ने उन्हें सहारा देकर आगे बढ़ाया। तखा ने एक डग इस तरह उठाया, जैसे दलदल में पांव रख रहे हों। मिर्जा ने बढ़ावा दिया-शाबाश | मेरे शेर, वाह-वाह तंखा ने एक डग और रखा। मालूम हुआ, गर्दन टूटी जाती है। 'मार लिया मैदान 1 शबाश | जीते रहो पढें।' तंखा दो डग और बढ़े। आंखें निकली पड़ती थीं। 'बस, एक बार और जोर मारो दोस्त : सौ कदम की शर्त गलत। पचास कदम की ही रही।' वकील साहब का बुरा हाल था। वह बेजान हिरन शेर की तरह उनको दबोचे हुए, उनका हृदय-रक्त चूस रहा था। सारी शक्तियां जवाब दे चुकी थीं। केवल लोभ, किसी लोहे की धरन की तरह छत को संभाले हुए था। एक से पच्चीस हजार तक की गोटी थी। मगर अंत में वह शहतीर भी जवाब दे गई। लोभी की कमर भी टूट गई। आंखों के सामने अंधेरा छा गया। सिर में चक्कर आया और वह शिकार गर्दन पर लिए पथरी ती जमीन पर गिर पड़े। मिर्जा ने तुरंत उन्हें उठाया और अपने रूमाल से हवा करते हुए उनकी पीठ ठोंकी। 'जोर तो यार तुमने खूब मारा, लेकिन तकदीर के खोटे हो।' तंखा ने हांफते हुए लंबी सांस खींचकर कहा-आपने तो आज मेरी जान ही ले ली थी। दो मन से कम न होगा ससुर [ ९६ ]96 : प्रेमचंद रचनावली-6 मिर्जा ने हंसते हुए कहा-लेकिन भाईजान, मैं भी तो इतनी दूर उठाकर लाया ही था। वकील साहब ने खुशामद करनी शुरू की-मुझे तो आपको फर्माइश पूरी करनी थी। आपको तमाशा देखना था, वह आपने देख लिया। अब आपको अपना वादा पूरा करना होगा। 'आपने मुआहदा (कौल-करार,शत) कब पूरा किया?' 'कोशिश तो जान तोड़कर की।' 'इसकी सनद नहीं।' लकड़हारे ने फिर हिरन उठा लिया और भागा चला जा रहा था। वह दिखा देना चाहता था कि तुम लोगों ने कांख-कूखकर दस कदम इसे उठा लिया, तो यह न समझो कि पास हो गए। इस मैदान में मैं दुर्बल होने पर भी तुमसे आगे रहूंगा। हां, कागद तुम चाहे जितना काला करो और झूठे मुकदमे चाहे जितने बनाओ। एक नाला मिला, जिसमें बहुत थोड़ा पानी था। नाले के उस पार टीले पर एक छोटा- सा पांच-छ: घरों का पुरवा था और कई लड़के इमली के नीचे खेल रहे थे। लकड़हारे को देखते ही सबों ने दौड़कर उसका स्वागत किया और लगे पूछने-किसने मारा बापू? कैसे मारा, कहां मारा,कैसे गोली लगी,कहांलगी, इसी को क्यों लगी, और हिरनों को क्यों न लगी? लकड़हारा हूं-हां करता इमली के नीचे पहुंचा और हिरन को उतारकर पास की झोंपड़ी से दोनों महानुभावों के लिए खाट लेने दौड़ा। उसके चारों लड़कों और लड़कियों ने शिकार को अपने चार्ज में ले लिया और अन्य लड़कों को भगाने की चेष्टा करने लगे। __ सबसे छोटे बालक ने कहा-यह हमारा है। उसकी बड़ी बहन ने, जो चौदह-पंद्रह साल की थी, मेहमानों की ओर देखकर छोटे भाई को डांटा-चुप, नहीं सिपाही पकड़ ले जायगा। मिर्जा ने लडके को छेडा-तम्हारा नहीं. हमारा है। बालक ने हिलपर बैठकर अपना कब्जा सिद्ध कर दिया और बोला- बापू तो लाए हैं। बहन ने सिखाया--कह दे भैया, तुम्हारा है। इन बच्चों की मां बकरी के लिए पत्तियां तोड़रही थी। दो नए भले आदमियों को देखकर जरा-सा चूंघट निकाल लिया और शरमाई कि उसकी साड़ी कितनी मैली, कितनी फटी,कितनी उटंगी है। वह इस वेश में मेहमानों के सामने कैसे जाय? औरगए बिना काम नहीं चलता। पानी वानी देना है। ___अभी दोपहर होने में कुछ कसर थी, लेकिन मिर्जा साहब ने दोपहरी इसी गांव में काटने का निश्चय किया। गांव के आदमियों को जमा किया। शराब मंगवाई,शिकार पका,समीप के बाजार से घी और मैदा मंगाया और सारे गांव को भोज दिया। छोटे-बड़े स्त्री-पुरुष सबों ने दावत उड़ाई। मदों ने खूब शराब पी और मस्त होकर शाम तक गाते रहे और मिर्जाजी बालकों के साथ बालक, शराबियों के साथ शराबी, बूढ़ों के साथ बूढ़े, जवानों के साथ जवान बने हुए थे। इतनी ही देर में सारे गांव से उनका इतना घनिष्ठ परिचय हो गया था, मानो यहीं के निवासी हों। लड़के तो उनपर लदे पड़ते थे। कोई उनकी फुदनेदार टोपी सिर पर रखे लेता था, कोई उनकी राइफल कंधे पर रखकर अकड़ता हुआ चलता था, कोई उनकी कलाई की घड़ी खोलकर अपनी कलाई पर बांध लेता था। मिर्जा ने खदखब देशी शराब पी और झम-झूमकर जंगली आदमियों के साथ गाते रहे। [ ९७ ]जब ये लोग सूर्यास्त के समय यहां से बिदा हुए तो गांव-भर के नर-नारी इन्हें बडी दर तक पहुंचाने आए। कई तो रोते थे। ऐसा सौभाग्य उन गरीबों के जीवन में शायद पहली बार आया हो कि किसी शिकारी ने उनकी दावत की हो। जरूर यह कोई राजा है, नहीं तो इतना दरियाव दिल किसका होता है। इनके दर्शन फिर काहे को होंगे। कुछ दूर चलने के बाद मिर्जा ने पीछे फिरकर देखा और बोले-बेचारे कितने खुश थे। काश, मेरी जिंदगी में ऐसे मौके रोज आते। आज का दिन बड़ा मुबारक था। तन्खा ने बेरुखी के साथ कहा--आपके लिए मुबारक होगा, मेरे लिए तो मनहूस ही था। मतलब की कोई बात न हुई। दिन-भर जंगलों और पहाड़ों की खाक छानने के बाद अपना-सा मुंह लिए लौटे जाते हैं। मिर्जा ने निर्दयता से कहा-मुझे आपके साथ हमदर्दी नहीं है। दोनों आदमी जब बरगद के नीचे पहुंचे, तो दोनों टोलियां लौट चुकी थीं। मेहता मुंह लटकाए हुए थे। मालती विमन-सी अलग बैठी थी,जो नई बात थी। रायसाहब और खन्ना दोनों भूखे रह गए थे और किसी के मुंह से बात न निकलती थी। वकील साहब इसलिए दुःखी थे कि मिर्जा ने उनके साथ बेवफाई की। अकेले मिर्जा साहब प्रसन्न थे और वह प्रसन्नता अलौकिक थी।