प्रेमचंद रचनावली ६/गोदान-८

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गोदान  (1936) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ९७ ]

आठ

जब से होरी के घर में गाय आ गई है, घर की श्री ही कुछ और हो गई है। धनिया का घमंड तो उसके संभाल से बाहर हो-हो जाता है। जब देखो, गाय की चर्चा। भूसा छिज गया था। ऊख में थोड़ी-सी चरी बो दी गई थी। उम्मी की कुट्टी काटकर जानवरों को खिलाना पड़ता था। आंखें आकाश की ओर लगी रहती थी कि पानी बरसे और घास निकले। आधा असाढ बीत गया और वर्षा न हुई। सहसा एक दिन बादल उठे और असाढ़ का पहला दौंगड़ा (पहली वर्षा) गिरा। किसान खरीफ बोने के लिए हल ले-लेकर निकले कि रायसाहब के कारकुन ने कहला भेजा, जब तक बाकी न चुक जायगी. किसी को खेत में हल न ले जाने दिया जायगा। किसानों पर जैसे वज्रपात हो गया। और कभी तो इतनी कडाई न होती थी, अबकी यह कैसा हुक्म। कोई गांव छोड़कर भागा थोड़े ही जाता है, अगर खेतों में हल न चले, तो रुपये कहां से आ जायंगे? निकालेंगे तो खेत ही से। सब मिलकर कारकन के पास जाकर रोए। कारकुन का नाम था पडित नोखेराम। आदमी बरे न थे, मगर मालिक का हक्म था। उसे कैसे टालें? अभी उस दिन रायसाहब ने होरी से कैसी दया और धर्म की बातें की थी और आज असामियों पर यह जुल्म हारी मालिक के पास जाने को तैयार हुआ, लेकिन फिर सोचा, उन्होंने कारकुन को एक बार जो हुक्म दे दिया, उसे क्यों टालने लगे? वह अगुवा बनकर क्यों बुरा बने? जब और कोई कुछ नहीं बोलता, तो वही आग में क्यों कूदे? जो सबके सिर पड़ेगी, वह भी झेल लेगा। किसानों में खलबली मची हई थी। सभी गांव के महाजनों के पास रुपये के लिए दौडे। [ ९८ ]98 : प्रेमचंद रचनावली-6 गांव में मंगरू साह की आजकल चढ़ी हुई थी। इस साल सन में उसे अच्छा फायदा हुआ था। गेहूं और अलसी में भी उसने कुछ कम नहीं कमाया था। पंडित दातादीन और दुलारी सहुआइन भी लेन-देन करती थीं। सबसे बड़े महाजन थे झिंगुरीसिंह। वह शहर के एक बड़े महाजन के एजेंट थे। उनके नीचे कई आदमी और थे, जो आस-पास के देहातों में घूम-घूमकर लेन-देन करते थे। इनके उपरांत और भी कई छोटे-मोटे महाजन थे, जो दो आने रुपये ब्याज पर बिना लिखा-पढ़ी के रुपये देते थे। गांव वालों को लेन-देन का कुछ ऐसा शौक था कि जिसके पास दस-बीस रुपये जमा हो जाते, वही महाजन बन बैठता था। एक समय होरी ने भी महाजनी की थी। उसी का यह प्रभाव था कि लोग अभी तक यही समझते थे कि होरी के पास दबे हुए रुपये हैं। आखिर वह धन गया कहां? बंटवारे में निकला नहीं, होरी ने कोई तीर्थ, व्रत, भोज किया नहीं, गया तो कहां गया? जूते फट जाने पर भी उनके घट्टे बने रहते हैं। किसी ने किसी देवता को सीधा किया,किसी ने किसी को। किसी ने आना रुपया ब्याज देना स्वीकार किया,किसी ने दोआना। होरी में आत्मसम्मान का सर्वथा लोपन हआ था। जिन लोगों के रुपये उस पर बाकी थे, उनके पास कौन मुंह लेकर जाय? झिंगुरोसिंह के सिवा उसे और कोई न सूझा। वह पक्का कागज लिखाते थे, नजराना अलग लेते थे, दस्तूरी अलग, स्टांप की लिखाई अलगा उस पर एक साल का ब्याज पेशगी काटकर रुपया देते थे। पच्चीस रुपये का कागज लिखा तो मुश्किल से सत्रह रुपये हाथ लगते थे. मगर इस गाढ़े समय में और क्या किया जाय? रायसाहब की जबरदस्ती है, नहीं इस समय किसी के सामने क्यों हाथ फैलाना पड़ता? झिंगुरीसिंह बैठे दातून कर रहे थे। नाटे, मोटे, खल्वाट, काले, लंबी नाक और बड़ी- बड़ी मूंछों वाले आदमी थे, बिल्कुल विदूषक-जैसे। और थे भी बड़ेहंसोड़। इस गांव को अपनी ससुराल बनाकर माँ से साले या ससुर और औरतों से साली या सलहज का नाता जोड़ लिया था। रास्ते में लड़के उन्हें चिढ़ाते-पंडितजी पैलगी और झिंगुरीसिंह उन्हें चटपट आशीर्वाद देते-तुम्हारी आंखें फूटें, घुटना टूटे, मिर्गी आए, घर में आग लग जाय आदि। लड़के इस आशीर्वाद से कभी न अघाते थे, मगर लेन-देन में बड़े कठोर थे। सूद की एक पाई न छोड़ते थे और वाद पर बिना रुपये लिये द्वार से न टलते थे। होरी ने सलाम करके अपनी विपत्ति-कथा सुनाई। झिंगुरीसिंह ने मुस्कराकर कहा-वह सब पुराना रुपया क्या कर डाला? 'पुराने रुपये होते ठाकुर, तो महाजनों से अपना गला न छुड़ा लेता, कि सूद भरते किसी को अच्छा लगता है?' 'गड़े रुपये न निकलें, चाहे सूद कितना ही देना पड़े। तुम लोगों की यही नीति है।' 'कहां के गड़ेरुपये बाबू साहब,खाने को तो होता नहीं। लड़का जवान हो गया, ब्याह का कहीं ठिकाना नहीं। बड़ी लड़की भी ब्याहने जोग हो गई। रुपये होते, तो किस दिन के लिए गाड़रखते?' झिंगुरीसिंह ने जब से उसके द्वार पर गाय देखी थी, उस पर दांत लगाए हुए थे। गाय का डील-डौल और गठन कह रहा था कि उसमें पांच सेर से कम दूध नहीं है। मन में सोच लिया था, होरी को किसी अड़दन में डालकर गाय को उड़ा लेना चाहिए। आज वह अवसर [ ९९ ]गोदान : 99 आ गया। बोले-अच्छा भई, तुम्हारे पास कुछ नहीं है, अब राजी हुए। जितने रुपये चाहो, ले जाओ, लेकिन तुम्हारे भले के लिए कहते हैं, कुछ गहने-गाठे हों,तो गिरो रखकर रुपये ले लो। इसटाम लिखोगे, तो सूद बढ़ेगा और झमेले में पड़ जाओगे। होरी ने कसम खाई कि घर में गहने के नाम कच्चा सूत भी नहीं है। धनिया के हाथों में कड़े हैं, वह भी गिलट के झिंगुरीसिंह ने सहानुभुति का रंग मुंह पर पोतकर कहा-तो एक बात करो, यह नई गाय जो लाए हो, इसे हमारे हाथ बेच दो। सूद इसटाम सब झगड़ों से बच जाओ, चार आदमी जो दाम कहें, वह हमसे ले लो। हम जानते हैं, तुम उसे अपने शौक से लाए हो और बेचना नहीं चाहते, लेकिन यह संकट तो टालना ही पड़ेगा। होरी पहले तो इस प्रस्ताव पर हंसा, उस पर शांत मन से विचार भी न करना चाहता था, लेकिन ठाकुर ने ऊंच-नीच सुझाया, महाजनी के हथकंडों का ऐसा भीषण रूप दिखाया कि उसके मन में भी यह बात बैठ गई। ठाकुर ठीक ही तो कहते हैं, जब हाथ में रुपये आ जायं, गाय ले लेना। तीस रुपये का कागद लिखने पर कहीं पच्चीस रुपये मिलेंगे और तीन-चार साल तक न दिए गए, तो पूरे सौ हो जायंगे। पहले का अनुभव यही बता रहा था कि कर्ज वह मेहमान है, जो एक बार आकर जाने का नाम नहीं लेता। बोला--- में घर जाकर सबसे सलाह कर लूं, तो बताऊं। 'सलाह नहीं करना है. उनसे कह देना है कि रुपये उधार लेने में अपनी बबांदी के सिवा और कुछ नहीं।' 'मैं समझ रहा हूं ठाकुर, अभी आ के जवाब देता हूं।' लेकिन घर आकर उसने ज्योंही वह प्रस्ताव किया कि कहराम मच गया। धनिया तो कम चिल्लाई,दोनों लड़कियों ने तो दुनिया सिर पर उठा ली। नहीं देते अपनी गाय,रुपये जहां से चाहे लाओ। सोना ने तो यहां तक कह डाला, इससे तो कहीं अच्छा है, मझे बेच डालो। गाय से कुछ बेसी ही मिल जायगा। होरी असमंजस में पड़ गया। दोनों लड़कियां सचमुच गाय पर जान देती थीं। रूपा तो उसके गले से लिपट जाती थी और बिना उसे खिलाए कौर मुंह में न डालती थी। गाय कितने प्यार से उसका हाथ चाटती थी, कितनी स्नेहभरी आंखों से उसे देखती थी। उसका बछड़ा कितना सुंदर होगा। अभी से उसका नामकरण हो गया था--मटरू। वह उसे अपने साथ लेकर सोएगी। इस गाय के पीछे दोनों बहनों में कई बार लड़ाइयां हो चुकी थीं। सोना कहती, मुझे ज्यादा चाहती है.रूपा कहती, मझे। इसका निर्णय अभी तक न हो सका था। और दोनों दावे कायम थे। मगर होरी ने आगा-पीछा सुझाकर आखिर धनिया को किसी तरह राजी कर लिया। एक मित्र से गाय उधार लेकर बेच देना भी बहुत ही वैसी बात है, लेकिन बिपत में तो आदमी का धरम तक चला जाता है. यह कौन-बड़ी बात है। ऐसा न हो तो लोग बिपत से इतना डरें क्यो? गोबर ने भी विशेष आपत्ति न की। वह आजकल दूसरी ही धुन में मस्त था। यह ते किया कि जब दोनों लड़कियां रात को सो जायं, तो गाय झिंगुरीसिंह के पास पहुंचा दी जाय। दिन किसी तरह कट गया।सांझ हुई। दोनों लड़कियांआठ बजते-बजते खा-पीकर सो [ १०० ] गईं। गोबर इस करुण दृश्य से भागकर कहीं चला गया वह गाय को जाते कैसे देख सकेगा? अपने आंसुओं को कैसे रोक सकेगा? होरी भी ऊपर ही से कठोर बना हुआ था। मन उसका भी चंचल था। ऐसा कोई माई का लाल नहीं, जो इस वक्त उसे पच्चीस रुपये उधार दे-दे, चाहे फिर पचास रुपये ही ले-ले। वह गाय के सामने जाकर खड़ा हुआ, तो उसे ऐसा जान पड़ा कि उसकी काली-काली आंखों में आंसू भरे हुए हैं और वह कह रही है-क्या चार दिन में ही तुम्हारा मन मुझसे भर गया? तुमने तो वचन दिया था कि जीते-जी इसे न बेचूंगा। यही वचन था तुम्हारा। मैंने तो तुमसे कभी किसी बात का गिला नहीं किया। जो कुछ रूखा-सूखा तुमने दिया, वही खाकर संतुष्ट हो गई। बोलो।

धनिया ने कहा-लड़कियां तो सो गईं। अब इसे ले क्यों नहीं जाते? जब बेचना ही है, तो अभी बेच दो।

होरी कांपते हुए स्वर में कहा-मेरा तो हाथ नहीं उठता धनिया। उसका मुंह नहीं देखती ? रहने दो, रुपये सूद पर ले लूंगा। भगवान् ने चाहा तो सब अदा हो जायेंगे, तीन-चार सौ होते ही क्या हैं। एक बार ऊख लग जाय।

धनिया ने गर्व-भरे प्रेम से उसकी ओर देखा-और क्या। इतनी तपस्या के बाद तो घर में गऊ आई। उसे भी बेच दो। ले लो कल रुपये। जैसे और सब चुकाए जायंगे, वैसे इसे भी चुका देंगे।

भीतर बड़ी उमस हो रही थी। हवा बंद थी। एक पत्ती न हिलती थी। बादल छाए हुए थे, पर वर्षा के लक्षण न थे होरी ने गाय को बाहर बांध दिया। धनिया ने टोका भी, कहां लिए जाते हो? पर होरी ने सुना नहीं, बोला-बाहर हवा में बांधे देता हूं। आराम से रहेगी, उसके भी तो जान हैं। गाय बांधकर वह अपने मंझले भाई सोभा को देखने गया। सोभा को इधर कई महीने से दमे का आरज हो गया था। दवा-दारू की जुगत नहीं। खाने-पीने का प्रबंध नहीं, और काम करना पड़ता था जी तोड़कर, इसलिए उसकी दशा दिन-दिन बिगड़ती जाती थी। सोमा सहनशील आदमी था, लड़ाई-झगड़ों से कोसों दूर भागने वाला। किसी से मतलब नहीं। अपने काम से काम। होरी उसे चाहता था और वह भी होरी का अदब करता था। दोनों में रुपये-पैसे की बातें होने लगीं। रायसाहब का यह नया फर्मान आलोचनाओं का केंद्र बना हुआ था।

कोई ग्यारह बजते-बजते होरी लौटा और भीतर जा रहा था कि उसे भास हुआ, जैसे गाय के पास कोई आदमी खड़ा है। पूछा-कौन खड़ा है वहां?

हीरा बोला-मैं हूं दादा, तुम्हारे कौड़े में आग लेने आया था।

हीरा उसके कौड़े में आग लेने आया है, इस जरा-सी बात में होरी को भाई की आत्मीयता का परिचय मिला। गांव में और भी तो कौड़े हैं। कहीं भी आग मिल सकती थी। हीरा उसके कौड़े में आग ले रहा है, तो अपना ही समझकर तो। सारा गांव इस कौड़े में आग लेने आता था। गांव में सबसे सम्पन्न यही कौड़ था, मगर हीरा का आना दूसरी बात थी। और उस दिन की लड़ाई के बाद। हीरा के मन में कपट नहीं रहता। गुस्सैल है, लेकिन दिल साफ।

उसने स्नेह-भरे स्वर में पूछा तमाखू है कि ला दूं?

'नहीं, तमाखू तो है दादा।'

'सोमा तो आज बहुत बेहाल है।' [ १०१ ]'कोई दवाई नहीं खाता, तो क्या किया जाय। उसके लेखे तो सारे बैद, डाक्टर, हकीम अनाड़ी हैं। भगवान के पास जितनी अक्कल थी, वह उसके और उसकी घरवाली के हिस्से पड़ गई।'

होरी ने चिंता से कहा- यही तो बुराई है उसमें। अपने सामने किसी को गिनता ही नहीं। और चिढ़ने तो बीमारी में सभी हो जाते हैं। तुम्हें याद है कि नहीं, जब तुम्हें इंफिजा हो गया था, तो दवाई उठाकर फेंक देते थे। मैं तुम्हारे दोनों हाथ पकड़ता था, जब तुम्हारी भाभी तुम्हारे मुंह में दबाई डालती थीं। उस पर तुम उसे हजारों गालियां देते थे।

'हां दादा, भला वह बात भूल सकता हूं? तुमने इतना न किया होता, तो तुमसे लड़ने के लिए कैसे बचा रहता।'

होरी को ऐसा मालूम हुआ कि हीरा का स्वर भारी हो गया है। उसका गला भी भर आया।

'बेटा, लड़ाई-झगड़ा तो जिंदगी का धरम है। इससे जो अपने हैं, वह पराए थोड़े ही हो जाते हैं, जब घर में चार आदमी रहते हैं, तभी तो लड़ाई-झगड़े भी होते हैं, जिसके कोई है। ही नहीं, उससे कौन लड़ाई करेगा?

दोनों ने साथ चिलप पी। तब हीरा अपने घर गया, होरी अंदर भोजन करने चला।

धनिया रोष से बोली-देखी अपने सपूत की लीला? इतनी रात गई और अभी उसे अपने सैल से छुट्टी नहीं मिली। मैं सब जानती हूं। मुझको सारा पता मिल गया है। भोला की वह रांड़ लड़की नहीं है, झुनिया। उसी के घर में पड़ा रहता है।

होरी के कानों में भी इस बात की भनक पड़ी थी, पर उसे विश्वास न आया था। गोबर बेचारा इन बातों को क्या जाने।

बोला-किसने कहा तुमसे?

धनिया प्रचंड हो गई-तुमसे छिपी होगी और तो सभी जगह चर्चा चल रही है। यह है, भुग्गा, वह बहत्तर घाट का पानी पिए हुए। इसे उंगलियों पर नचा रही है, और यह समझता है, वह इस पर जान देती है। तुम उसे समझा दो, नहीं कोई ऐसी-वैसी हो गई, तो कहीं के न रहोगे।

होरी का दिल उमंग पर था। चुहल की सूझ-झुनिया देखने-सुनने पे तो बुरी नहीं है। उसी से कर ले सगाई। ऐसी सस्ती मेहरिया और कहां मिली जाती है?

धनिया को यह चुहल तीर-सा लगा झुनिया इस घर में आये, तो मुंह झुलस रांड़ का। गोबर की चहेती है, तो उसे लेकर जहां चाहे रहे?

'और जो गोबर इसी घर में लाए?

‘तो यह दोनों लड़कियां किसके गले बांधोगे? फिर बिरादरी में तुम्हें कौन पूछेगा, कोई द्वार पर खड़ा तक तो होगा नहीं।'

'उसे इसकी क्या परवाह।'

'इस तरह नहीं छोड़ूंगी लाला को। मर-मर के मैंने पाला है और झुनिया आकर राज करेगी। मुंह में आग लगा दूंगी रांड़ के।'

सहसा गोबर आ के घबड़ाई हुई आवाज में बोला-दादा,सुन्दरिया को क्या हो गया? क्या काले नाग ने छू लिया? वह तो पड़ी तड़प रही है।

होरी चौके में जा चुका था। थाली सामने छोड़कर बाहर निकल आया और बोला--क्या असगुन मुंह से निकालते हो। अभी तो मैं देखे आ रहा हूं। लेटी थी। [ १०२ ]तीनों बाहर गए। चिराग लेकर देखा। सुन्दरिया के मुंह से फिचकुर निकल रहा था। आंखें पथरा गई थीं, पेट फूल गया था और चारों पांव फैल गए थे। धनिया सिर पीटने लगी। होरी पंडित दातादीन के पास दौड़ा। गांव में पशु-चिकित्सा के वही आचार्य थे। पंडितजी सोने जा रहे थे। दौड़े हुए आए। दम-के-दम में सारा गांव जमा हो गया। गाय को किसी ने कुछ खिला दिया। लक्षण स्पष्ट थे। साफ विष दिया गया है, लेकिन गांव में कौन ऐसा मुद्दई है, जिसने विष दिया हो, ऐसी वारदात तो इस गांव में कभी हुई नहीं, लेकिन बाहर का कौन आदमी गांव में आया। होरी की किसी से दुश्मनी भी न थी कि उस पर संदेह किया जाय। हीरा से कुछ कहा-सुनी हुई थी, मगर वह भाई-भाई का झगड़ा था। सबसे ज्यादा दु:खी तो हीरा ही था। धमकियां दे रहा था कि जिसने यह हत्यारों का काम किया है, उसे पाए तो खून पी जाय। वह लाख गुस्सैल हो, पर नीच काम नहीं कर सकता।

आधी रात तक जमघट रहा। सभी होरी के दु:ख में दुखी थे और बधिक को गालियां देते थे। वह इस समय पकड़ा जा सकता, तो उसके प्राणों की कुशल न थी। जब यह हाल है। तो कोई जानवरों को बाहर कैसे बांधेगा? अभी तक रात-बिरात सभी जानवर बाहर पड़े रहते थे। किसी तरह की चिंता न थी, लेकिन अब तो एक नई विपत्ति आ खड़ी हुई थी। क्या गाय थी कि बस देखता रहे। पूजने जोग। पांच सेर से कम दूध न था। सौ-सौ का एक-एक बाछा होता। आते देर न हुई और यह वज्र गिर पड़ा।

जब सब लोग अपने-अपने घर चले गए, तो धनिया होरी को कोसने लगी तुम्हें कोई लाख समझाए, करोगे अपनी मन की। तुम गाय खोलकर आंगन से चले, तब तक मैं जूझती रही कि बाहर न ले जाओ। हमारे दिन पतले हैं, न जाने कब क्या हो जाय, लेकिन नहीं, उसे गर्मी लग रही है। अब तो खूब ठंडी हो गई और तुम्हारा कलेजा भी ठंडा हो गया । ठाकुर मांगते थे, दे दिया होता, तो एक बोझ सिर से उतर जाता और निहोरे का निहोरा होता, मगर यह तमाचा कैसे पड़ता? कोई बुरी बात होने वाली होती है, तो मति पहले ही हर जाती है। इतने दिन मजे से घर में बंधती रही, न गर्मी लगी, न जूड़ी आई। इतनी जल्दी सबको पहचान गई थी कि मालूम ही न होता था कि बाहर से आई है। बच्चे उसके सींगों से खेलते रहते थे। सिर तक न हिलाती थी। जो कुछ नांद में डाल दो, चाट-पोंछकर साफ कर देती थी। लच्छमी थी, अभागों के घर क्या रहती? सोना और रूपा भी यह हलचल सुनकर जाग गई थीं और बिलख-बिलखकर रो रही थीं। उसकी सेवा का भार अधिकतर उन्हीं दोनों पर था। उनकी संगिनी हो गई थी। दोनों खाकर उठतीं, तो एक-एक टुकड़ा रोटी उसे अपने हाथों से खिलातीं कैसा जीभ निकालकर खा लेती थी, और जब तक उनके हाथ का कौर न पा लेती, खड़ी ताकती रहती। भाग्य फूट फूट गए।

गोबर और दोनों लड़कियां रो-धोकर सो गई थीं। होरी भी लेटा। धनिया उसके सिरहाने पानी का लोटा रखने आई, तो होरी ने धीरे से कहा-तेरे पेट में बात पचती नहीं, कुछ सुन पाएगी, तो गांव भर में ढिंढोरा पीटती फिरेगी।

धनिया ने आपत्ति की-भला सुनूं, मैंने कौन-सी बात पीट दी कि यों ही नाम बदनाम कर दिया।

'अच्छा, तेरा संदेह किसी पर होता है?'

'मेरा संदेह तो किसी पर नहीं है। कोई बाहरी आदमी था।' [ १०३ ]'किसी से कहेगी तो नहीं?'

'कहूंगी नहीं, तो गांव वाले मुझे गहने कैसे गढ़वा देंगे।'

'अगर किसी से कहा, तो मार ही डालूंगा।'

'मुझे मारकर सुखी रहोगे। अब दूसरी मेहरिया नहीं मिली जाती। जब तक हूं, तुम्हारा घर संभाले हुए हूं जिस दिन मर जाऊंगी, सिर पर हाथ धरकर रोओगे। अभी मुझमें सारी बुराइयां ही बुराइयां हैं, तब आंखों में आंसू निकलेंगे।'

'मेरा संदेह तो हीरा पर होता है।'

'झूठ, बिल्कुल झूठ। हीरा इतना नीच नही है। वह मुंह का ही खराब है।'

'मैंने अपनी आंखों देखा। सच तेरे सिर की सौंह।'

'तुमने अपनी आंखों देखा। कब?'

'वही, मैं सोभा को देखकर आया, तो वह सुन्दरिया की नांद के पास खड़ा था। मैंने पूछा-कौन है, तो बोला, मैं हूं हीरा, कौड़े में से आग लेने आया था। थोड़ी देर मुझसे बातें करता रहा। मुझे चिलम पिलाई। वह उधर गया,मैं भीतर आया और वहीं गोबर ने पुकार मचाई। मालूम होता है , मैं गाय बांधकर सोभा के घर गया हूं, और इसने इधर आकर कुछ खिला दिया है। साइत फिर यह देखने आया था कि मरी या नहीं।'

धनिया ने लंबी सांस लेकर कहा-इस तरह के होते हैं भाई, जिन्हें भाई का गला काटने में भी हिचक नही होती। उफ्फोह । हीरा मन का इतना काला है। और दाढ़ीजार को मैंने पाल-पोसकर बड़ा किया।

'अच्छा, जा सो रह, मगर किसी से भूलकर भी जिकर न करना।'

'कौन, सबेरा होते ही लाला को थाने न पहुंचाऊंतो अपने असल बाप की नहीं। यह हत्यारा भाई कहने जोग है यही भाई का काम है । वह बैरी है, पक्का बैरी और बैरी को मारने में पाप नहीं, छोड़ने में पाप है।'

होरी ने धमकी दी—मैं कह देता हूं धनिया, अनर्थ हो जायगा।

धनिया आवेश में बोली-अनर्थ नहीं, अनर्थ का बाप हो जाय। मैं लाला को बिना बड़े घर भिजवाए, मानूंगी नहीं। तीन साल चक्की पिसवाऊंगी, तीन साल। वहां से छूटेंगे, तो हत्या लगेगी, तीरथ करना पड़ेगा। भोज देना पड़ेगा। इस धोखे में न रहें लाला और गवाही दिलवाऊंगी तुमसे, बेटे के सिर पर हाथ रखकर।

उसने भीतर जाकर किवाड़ बंद कर लिए और होरी बाहर अपने को कोसता पड़ा रहा। जब स्वयं उसके पेट में बात न पची, तो धनिया के पेट में क्या पचेगी? अब यह चुडैल मानने वाली नहीं। जिद पर आ जाती है, तो किसी की सुनती ही नहीं। आज उसने अपने जीवन में सबसे बड़ी भूल की।

चारों ओर नीरव अंधकार छाया हुआ था। दोनों बैलों के गले की घंटियां कभी-कभी बज उठती थीं। दस कदम पर मृतक गाय पड़ी हुई थी और होरी घोर पश्चात्ताप में करवटें बदल रहा था। अंधकार में प्रकाश की रेखा कहीं नजर न आती थी।